नीरा त्यागी की कविताएँ
परिचय
जन्म स्थान - नयी दिल्ली
शिक्षा- मिरांडा हाऊस, दिल्ली यूनिवर्सिटी से विज्ञान में स्नातक., PGCE, Dip HE Housing From Leeds University, ब्रिटेन के सरकारी प्रोजेक्ट्स में मैनेजर की नौकरी
असुविधा में इस बार नीरा त्यागी की कविताएँ. नीरा के ब्लॉग 'काहे को ब्याहे विदेश' से परिचय लगभग तीनेक साल पुराना है. एक बेहद समृद्ध भाषा में उनका गद्य केवल प्रवासी पीड़ा से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें स्त्री ह्रदय और संसार की तमाम पीडाएं, अंतर्विरोध और उलझनें आकार लेती हैं. यही उनकी कविताओं के बारे में भी कहा जा सकता है. लंबे समय से ब्रिटेन में रह रहीं नीरा की कविताएँ अकेलेपन और पितृसत्ता के महीन रूपों के खिलाफ विद्रोह से जन्मी हैं.
1. क्या दिन क्या रात...
वज़ह नही
हालत नही
जज्बा नही
आस नही
फिर भी
ख़ुद को नही
खामोशी तोड़ो
कलम की आवाज़ से
धो डालो
दुनिया के अवसाद
स्याही के धार से
तूफ़ान को निगला
कई बार
हवा का रुख बदल दो
इस बार
ना बदली दुनिया
ना रोशन हुए रास्ते
नजरिया बदलो तो
क्या दिन क्या रात...
2. पतंग की डोर सा मिल जायेगा..
बिना बताये चला आता है
बीच का यह अंतराल,
अँगुलियों से चुक गए शब्द
आंखों से गुम चाँद की कसक,
सपनों की नींद से
वही पुरानी खटर-पटर,
आज और अभी का चाबुक
दशकों को चुटकी में मसल,
आखों के गढों पर
उम्र की परत लगा ,
भर देता नए - पुराने जख्म
धरकनो से निकल
जिन्दा पलों की महक,
लगा देती थके पाँव में पंख
एक आस
अधखुली आखों से,
अलार्म को अनसुना कर
सपनों को दबोच,
करवट बदल, पलकें मूँद
निहारती फलक
कविता उसे लिखेगी
सूर्यास्त बुलाएगा,
कभी न कभी तो खोया आसमा
पतंग की डोर सा मिल जायेगा।
3. मुझे मुक्त कर दो...
भीतर की औरत
ने पत्नी से पूछा
तुझे क्या मिला?
पति का प्यार,
ड्राइंग रूम की दीवार
पर सजा फेमली फोटोग्राफ,
ग्रीन बेल्ट को छूता
ड्रीम हाउस ,
सड़क नापने को कार,
परिचितों, अपरिचितों का
इर्ष्या भाव,
जब तुम तुम थी
आसमा, सागर पलकों में बसते,
आइना तुम्हे
दिन-रात पढ़ता,
दिल और आत्मा को
आंखों की नज़र करता,
पकड़ती हो साइड मिरर में
भागती उम्र की रफ़्तार,
होती है लाल बत्ती पर
फुर्सत से आँखे चार,
अस्तित्व मिटा
इच्छाएं क़तर
दोष मुक्त हो
पत्नी से परफेक्ट बनी,
भीतर की अग्नि
आंसुओं से भी न बुझी,
अगले क्षण क्या करना है
का सॉफ्टवेयर तुम्हारेहाथ-पाँव में फिट है,
आत्मा को ट्रेश
दिल और दिमाग में
उसे डाउन लोड कर लो,
ग्लास सीलिंग चटखने की धुन ,
ममता और मंगलसुत्र में
तर लो,
मुझे मुक्त कर दो...
4. मेरा अस्तित्व
रोज़ कुदाल लिए
खड़ा हो जाता है, अस्तित्व
हमारे बीच की खाई गहरी करने
आँचल पकड़ करता जिद
चल पहाड़ पर आओ आकाश छु लें
बिछुए संग आया था
मिलवाना भूल गई थी
चुपचाप चला गया वो
हमारे बीच की तंग गली से
इच्छाएं भूल गई दरवाज़ा बंद करना एक रोज
लौट आने का अवसर उसने खोया नहीं उस रोज
गवाह बन गया
वो खुशियों और आंसुओं का
जरूरी हो गया मिलवाना
पहले और आखरी प्रेम का
वफादार हितेषी खाई भरने चले आते हैं
चेहरे पर उम्र की लकीरें, घर की किश्तें, कर्तव्यों की गठरी, मोहल्ले की नज़र, दुनिया का लिहाज
उन्हे आँख दिखा
वो निडर- बेधड़क
पसीना पोंछ
उठा लेता कुदाल
5. ना उसने आवाज़ दी...
कितनी सर्द हवा थी
दोनों के बीच
छुआ जा सकता था
हर साँस को
आइस क्यूब की तरह
टटोलती रही खामोशी
दिल में छुपे राज़...
कैसे मुमकिन हुआ
धड़कनों का मुंह सीना?
आमने-सामने होकर,
आँखें मींच लेना?
जंगल से गुज़र,
पत्ती को न छूना?
उसके सवाल को,
जवाब समझ लेना?
पाँव तले जमीं
ज़रा डगमगाई,
क्या तुम्हीं ने
अनंत दूरी को
पल में मिटाया?
रोज़ नया सूरजमुखी
रातों को उगाया ?
आकाश की तह को
मेरी मुट्ठी में दबाया ?
आँखें गड़ी रही शून्य में
ना तुमने आवाज़ दी
ना मैने मुड़ कर देखा ...
आज सुबह...
आज सुबह
साँसे महक रही थी
होंठों पर नमी थी
आँखों में सवाल था
स्टूल पर पानी का ग्लास खाली था
बगल के बिस्तर की सिलवटें गर्म थी
तकिये पर उसके सर का बाल था
सिरहाने कविता की खुली किताब थी
फिर भी दिल को यकीन था
वो रात साथ नहीं था...
शाम ढले यकीन आया
डूबते सूरज की लाली छु
जब तिलों ने
खुली किताब की
कविताओं को गुनगुनाया
टिप्पणियाँ
मैंने आपका ब्लॉग पढ़ा हृदयस्पर्शी बातें लिखी हुई है | इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ | समय मिले तो मेरे ब्लॉग पे आइये
http://www.akashsingh307.blogspot.com/
नीरा जी के ब्लॉग के नाम से ही अक्सर पूरी कहानी मालूम हो जाती है. उनको बहुत पहले से पढना रहा है. उनकी एक कहानी थी - पंजाबी लड़की वाली जिसका परिवेश बदल जाता है. वो याद ही रह गया.
इन्होने बिना जाली वाली खिड़की से झाकने वाली खामोश लड़की भी अपने अन्दर बसा रखी है जिसका मानना है वो बाहर निकलेगी तो अभी सब कुछ ठीक हो जाएगा... पहली कविता उसी सकारात्मकता से कहती हैं.
कहानी के बीचे कविता कितनी बचती है कहना मुश्किल है. कविता का जादू कभी, कहीं कम नहीं होता. दरअसल यहाँ भी कुछ कविता में कहानी ही बह रही है. ऐसा देखा है अक्सर स्त्री कविताओं में स्त्री और उनके जीवन ही रचे बसे होते हैं. तीसरी वाली इसकी बानगी है.
कुल मिला कर यही कि बहुत संवेदनशील हैं.
और असुविधा पर आसमानी सुविधा देने वाले का आभार...