एक देश है निरुदेश्य है जो अपने नागरिकों के सामने
हल्द्वानी में रहने वाले अमित श्रीवास्तव की कविताएँ सबसे पहले अनुनाद में पढीं थीं. उनके पास अपने जीवनानुभव के साथ उनसे प्रश्नाकुल एक ऐसा कवि व्यक्तित्व है जो उनके पार देखने की कोशिश लगातार करता है. इस आकुलता भरी कोशिश में बिखराव भी हैं, उलझाव भी. लेकिन वह आकुलता इन सबसे टकराती हुई उनसे लगातार सार्थक कवि-कर्म कराती है. असुविधा में उन्हें पहली बार प्रस्तुत करते हुए यह उम्मीद करता हूँ कि आगे भी हमें उनकी कविताएँ नियमित तौर पर पढ़ने को मिलेंगी.
एक डॉक्टर है
जो हफ्ते के एक दिन गुरुवार को संभवतः
मुफ्त इलाज करता है गरीब का
वो जो आश्वस्त है अपने ठीक होने को लेकर और मरीज है तीसरा
कुछ नहीं क्योंकि कुछ हो भी नहीं सकता
डॉक्टर अपनी डॉक्टरी भाषा और पढीस लिखावट मे
कुछ फैक्ट्स मिस कर देता है डिस्चार्ज स्लिप से...
शायद जानबूझ कर
जो भयानक बदकिस्मतियों से ही पता चलते हैं
बदकिस्मती मरीज की उसकी मौत पर
तिस पर बदकिस्मती डॉक्टर की उसका पोस्ट मॉर्टम होने पर।
एक देश है
जो पाठ पढ़ाता है
कम से कम पांच साल की रूरल प्रैक्टिस का
उस समय मे भी जब पूरी दुनिया को एक गांव के शक्ल की दरकार है
गो कि उसके मालिक अब यही चाहते हैं।
एक वकील है
जो मानवाधिकार की बात करता है
आतंक वातंक की नहीं
विथ ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ एण्ड प्रोसीजर स्टैब्लिश्ड बाई लॉ
बेल तो बनती है मेरे क्लाइन्ट की
उसका पेशेवर होना उसकी सबसे बड़ी दलील है।
एक देश है
जो आंखों पर पट्टी बांधता है
बिना वजह
संविधान की बात करता है
कानून की ओर दिखाता है
भूल जाता है
दशाश्वमेघ घाट के पास बम विस्फोट से बचा खुचा आदमी
संविधान की प्रस्तावना पढ़ते पढ़ते
ढेर हो जाता है।
एक पत्रकार है
पेशे से
वैसे तो अजीब किरदार है
होना नहीं चाहिये लेकिन इसका अपना एक विचार है
वो हर घटना को विचार की तरह पढ़ता है
फिर पढ़े जाने के हिसाब से घटना और
घटना के हिसाब से विचार मे
( एक जरूरी सूचना- आज भी सबसे बड़े विचार दक्षिण और वाम पंथ ही हैं
ज्ञात अज्ञात टी आर पी के आजू बाजू )
सनसनाता है
दारू पैसा मुर्गा
मुर्गा दारू पैसा
किसी पगलाई नींद सा बड़बड़ाता
सुबह होने के पहले ही मैनेज हो जाता है।
एक देश है
जो समाज को अखबार की तरह गढ़ने की
सारी सियासी तरकीबें भिड़ाता है
और अधिकारों की सूचना दबा जाता है
दो दो चार चार सीढ़ियां लांघने की हड़बड़ी मे।
एक लेखक है
जो इस तरह का लिक्खाड़ है
कि लिखना ही उसका आखिरी काम है
लेकिन भाषा की खुरदरी जमीन पर
नंगे पांव चलने से डरता है
सुविधाजनक रूप से लेखक एक कवि भी है
जो कविता लिखता है तो कविता से बचता है
कविता मे पाथता है गोबर
और गोबर मे कविता नथता है
फिर श्वेत धवल नख शिख नवल
गोबर से बचता है
सिद्ध हस्त गुरु घंटाल
कविता मे बचता है कविता से।
एक देश है
जो विचारधाराओं का अवांछित निबाह है
जो ‘चाउर औ किनकी’ को एक ही तराजू से तौलता है
जो हुक्मराना पेशेवर पुरस्काराना बर्ताव मे
किनकियों के हक मे टेनी मार देता है।
एक नेता है
जो एक अरब चालीस लाख माथों पर
इबारतें उकेरता है
आपकी दुआओं की फजल से उसे ये रुतबा हासिल है
देश के सारे वैज्ञानिक
इन्जीनियर तत्वज्ञानी
योगी वकील शिक्षक
अफसर नौकर
चोर उठाईगीर लम्पट
घूसखोर उद्योगपती
कुल मिलाकर इससे थोड़ा कम ही जानते हैं
ये मामूली गैर मामूली चीजों का देवता
ये एक आकाशवाणी है
इससे बिजली है पानी है सड़क है
और नहीं है
यही भविश्यवाणी है
हो न हो यही शासनादेश है आज का।
एक देश है
जो समाजवादी है
जो पंथ निरपेक्ष है
जो प्रजातन्त्र है
जो गणतंत्र है
ऐसा सातवीं कहीं कहीं आठवीं बहुत हद तक दसवीं तक
पढ़ा जाता है
समझ की किताब से ये शब्द उड़नछू हो चुके हैं
अब नए व्याकरण के साथ
समाजवाद को ‘प्रोलोंग इमर्जेन्सी’ की तरह पढ़ें
पन्थ निरपेक्ष को ‘गोधरा चाहे मालेगांव’ की तरह लें
प्रजातंत्र को ‘लाल लंगोटी वाला भूत’ समझ़ें
और गणतंत्र को ‘जब सईंया भए कोतवाल तब डर काहे का’ पढ़ लें
कुछ फर्क नही पड़ता।
एक अफसर है
असफल आशिकों की भाषा मे जो थोड़ा ऊंचे दर्जे का बाबू है
जो कृते है
जो सेवा मे है
आज्ञा से भी वही है
जिसकी कोई शक्ल ही नही है
किरदार भी नही
जो विकास की अनुज्ञप्तियों मे
प्रतिनियुक्ति सा आता है
फिर चला जाता है।
एक देश है
जो सो कर उठता है कागजों मे
फिर सूचकांगो मे सीढ़ियां चढ़कर
टेबलों पहाड़ों चार्टों को बेल्ट मे खोंसे खोंसे ही
मेज पर लेट जाता है एक त्रिप्त डकार के साथ ( जो अभी अभी आए आर्थिक सर्वेक्षण के
ताजे आॅंकड़ों मे दिहाई के पाले को छूकर आने की बावजह पीठ ठोंकू अश्वस्ति से फूट ही पड़ती है )।
एक नागरिक है
एक देश है
जिसमे एक विधायिका है
जिसमे एक कार्यपालिका है
जिसमे एक न्यायपालिका है
और अनुपूरक मांगो की तरह एक मीडिया भी है
जो अब मुख्य बजट के सबसे बड़े हिस्से का दावेदार है
देश की विधायिका
विधायन करती है
भाषड़ों आश्वासनों
कभी कभी आरोपों प्रत्यारोपों
गालियों फब्तियों नारों का
वैसे सैद्धांतिक तौर पर पूर्ण सक्षम है विधायिका
देश की कार्यपालिका
व्यावहारिक तौर पर पूर्ण सक्षम है
काम करके बेहया सफाई से उत्तम काम ना करने की राजनीति हुआ करती है
देश की न्यायपालिका के खिलाफ कुछ भी कहना
कन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट की जद मे आता है
एक नामुराद चुप्पी ही न्याय का आखिरी फैसला है
देश का चैथा खम्बा
उस छत को ही टेढ़ा किये दे रहा है
जिसमे जन आन्दोलनो से घबराकर अक्सर देश
छुप जाया करता था
एक देश है
जो निरुदेश्य है
अपने नागरिकों के सामने
निरुपाय
नंगा खड़ा है
नई सदी के पहले दशक मे !!
टिप्पणियाँ
'असुविधा' पर इस का प्रकाशन ही एक 'सुखद' (?) आश्चर्य है . कौन कहता है मार्क्सवादी लोग विरोधी विचारों के प्रति असहिष्णु होते हैं.