वो आ गया कूदन बाबा..
युवा आलोचक पल्लव के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका बनास का नया अंक आ गया है। इसी अंक से एक रोचक संस्मरण
कूदन बाबा
- नेमनारायण जोशी
“उम्र बड़ी है। याद कर ही रहे थे।
वो आ गया कूदन बाबा।“ कहनेवाले की नजर के पीछे पीछे मेरी नजर भी गई तो क्या
देखता हूं कि एक बूढ़ा आदमी हाथ की लाठी पर बिल्कुल दोहरा झुका हुआ, चला आ रहा था।
चार-पांच हाथ की दूरी से ही बोला, “राम-राम ठाकुर सा।“
“राम-राम बाबा, राम-राम।“ कहते हुए ठाकुर गुमानजी अपनी सफेद होती दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले, “आ बैठ, इस बरसती आग में कहां को चला है?”
बूढ़ा नीम की छाया में आ गया – शरीर उसका पांव
से कमर तक तो सीधा था, लेकिन कमर से ऊपर का हिस्सा आगे की
ओर कुछ झुका हुआ। लाठी, जो उसकी जवानी के दिनों में मुश्किल से उसके कंधे तक
पहुंचती होगी, अब दो बालिश्त सिर के ऊपर निकल रही थी।
लाठी
को दोनों हाथों से पकड़कर शरीर का बोझ उस पर डालते हुए, वह जमीन पर उकड़ू बैठ गया।
पेट और सीना उसकी टांगों से चिपक गये। दोनों जबड़े घुटनों पर आकर टिक गये और ठोड़ी दोनों
घुटनों के बीच लटकती रही। उसने लाठी को सम्हालकर दाहिने पांव की जूती से सटाकर रख
ली। फिर दोनों कोहनियां जबड़ों के साथ ही घुटनों पर टिका दीं और हथेलियां भींचकर
अपना सिर उन पर टिका दिया।
गर्मी
से बूढ़ा हांफ रहा था। सुस्ताने लगा। दिन दस एक के उगे दाढ़ी के बाल तो सफेद थे ही,
आंखों की भौंहें तक सफेद-झक पड़ चुकी थी। मुंह पर सलवटें ऐसी पड़ी थीं, जैसे किसी
नौसिखिये लड़के ने खेत में हल से आड़ी-टेढ़ी लकीरें खींच दी हों। आंखें गहराई में
टिम-टिमा रही थी, मानो किसी दरख्त की खोह में चमगादड़ें बैठे हों। छाती की
हड्डियां इतनी सख्त पड़ गई थीं कि छाती ऐसी लग रही थी, जैसे कोयले की खान से
निकाला हुआ काला पत्थर। कपड़ों के नाम पर, कमर में रेजे की धोती और सिर पर लाल
साफा, जिसके चिथड़े लटक रहे थे।
जीवन
चौधरी मेरे बाजू में ही बैठा था। बाबा पर नजर टिका कर पूछ बैठा, “कितने बरसों का हो गया
बाबा?”
दो-तीन
पल तो बाबा विचार में पड़ा रहा। फिर बोला, “ए --- यों तो पता नहीं, लेकिन छप्पन वाले अकाल से पहले एक
और अकाल पड़ा था, वो मुझे अच्छी तरह याद है। मैं तब ग्वालीपना करता था। मेरी एक
बहन थी, मुझसे बरस दो-तीन बड़ी। हम दोनों गांव के ग्वाड़ से रेवड़ लेकर चलते और
चराते-चराते ठेट सूदवाड़ की सीमा तक जा पहुंचते---।“
“तब तो बाबा, तू अस्सी पार कर गया।“ कहते हुए ठाकुर ने बीड़ी
सुलगाकर एक फूंक मारी और कूदन की ओर बढ़ाई, फिर धुंआ छोड़ते हुए बोले, “आपजी कहते थे कि वह अकाल छप्पन के अकाल से पन्द्रह बरस पहले पड़ा था।“ बीड़ी थामते हुए कूदन बोला, “अब बापजी, वो आप जानें, हमने तो
कभी गिनतकारी पढ़ी नहीं और उस वक्त हमारे बचपने में कहां तो भणाई थी और कहां स्कूल
थे?” बीड़ी की फूंक लेकर उसने वापस ठाकुर की ओर बढ़ा दी।
“पीओ, पीओ, यों क्या कर रहे हो?” ठाकुर ने उलाहना दिया।
“ऊं हूं, अच्छी नहीं लग रही।“ कहते हुए अपने साफे के पेच में से खोजकर चिलम निकाली। अंटी
से छोटा-सा कोथला निकाला, जिसमें गड़ डालकर बनाई खाचरोदी तम्बाखू थी। वह अपनी चिलम
भर कर तैयार करने लगा।
मैं
अभी कूदन नाम पर ही विचार कर रहा था। बात कुछ पल्ले नहीं पड़ी तो आखिर पूछना ही
पड़ा, “पर
बाबा, नाम तो कुछ अच्छा निकलवाया होता। ये क्या नाम हुआ, कूदन?”
बाबा
बाएं हाथ के अंगूठे से चिलम की तम्बाखू को जमाते-जमाते मुस्कुराकर बोला, “अरे तो बापजी, मैंने
थोड़े ही निकलवाया? ये नाम तो गांव वालों ने निकाल दिया। मेरा काका तो मुझे
‘मेहराम’ कहता था।“
बीड़ी
फैंककर ठाकुर ने दाढ़ी में कंघी फेरी और उस पर पटका बांधते-बांधते रुक गये। मेरी ओर
देखकर बोले, “जवानी में एकबार यह चौदह हाथ चौड़ा कुआं फलांग गया, तब से लोग इसे ‘मेहराम
कूदन’ कहने लग गये, क्योंकि गूजरों में एक मेहराम और भी था। धीरे-धीरे ‘मेहराम’
तो छूट गया और फकत ‘कूदन’ रह गया।“
मैं आश्चर्य
में पड़ गया – चौदह हाथ जमीन कूद गया? और जमीन ही नहीं, कुआं कूद गया?
इस बात
पर कूदन हंसने लगा। चेहरे की लकीरें और नजदीक हो आई। दांतो की बत्तीसी दीखी, बकरी
के उन्मान। छोटे-छोटे, नजदीक-नजदीक दांत, कुछ पीलापन लीये। गुमानजी मेरे मन की
बात को भांप गये। बोले, “ये बत्तीसी बंधाई (नकली) हुई नहीं है। असली वही दांत हैं और बत्तीसों के बत्तीस
मौजूद हैं। मैं तो अभी साठ भी नहीं पहुंचा, लेकिन आधे से अधिक गिर गये हैं।“
बाबा
मुस्कुराकर बोला, “चौदह तो नहीं था। झूठ नहीं कहना, पूरम-पूर बारह हाथ चौड़ा जरूर था। दूसरे दिन
गांव के लोगों ने रस्सी से नापकर हाथ दिये थे।“ अभी साफे में हाथ डाले बाबा
कुछ खोजते हुए बोला, “चकमक तो साली घर ही छूट गई दिखती।“
तीलियों की डिब्बी उसके मुंह के आगे डालते हुए गुमानजी ने कहा कि एक गोटी
बना ले गोटी। उसने भरी हुई चिलम को अच्छी तरह सम्हालकर जमीन पर रखा और बाएं हाथ
से अपने साफे को कसकर पकड़ा और दाहिने हाथ से एक लटकता हुआ लीरा तोड़ लिया। उसी लीरे
की गोटी बनाकर तीली से सुलगा लिया और जब वह अंगारा बन गई तो उसे चिलम पर जमाकर
अंगूठे से उसे दाब दिया। चिलम के निचले हिस्से पर साफी (एक छोटा-सा गीला कपड़ा) को
लपेटा और चिलम को मुंह की ओर ले गया।
“तो कुंआ फलांगते हुए
तुम्हें डर नहीं लगा बाबा? ये बात बनी कैसे?” जीवन चौधरी ने पूछ लिया।
कूदन ने चिलम की एक लंबी सांस खींची और खांसी के गोट में उलझ गया। सांस आया तब
खंखार थूक दिय। बोला, “क्या कैसे बन गई, मैं एक दिन कुंए पर पानी निकाल रहा था। गूजरों की दो बड़ी
लड़कियां आई वहां पानी पीने को। उनमें से एक दूसरी से बोली कि देख तो सही, कुंआ
कितना चौड़ा है। उसकी बात सुनकर मुझे फुरफुरी आ गई। पानी से भरा चरस चाठ में उल्टा
कर मैं दूर हो गया। कुंए से तीस कदम दूर जाकर मैंने पायचे टांके और दौड़ते हुए आकर
फलांग मारी, जो कुंए के उस पार जाकर गिरा। हौसला बहुत था उन दिनों। डर किस बात का?”
चिलम के
धुंए ने अन्दर जाकर जाने क्या चमत्कार किया कि कूदन डोकरे के मुंह पर चमचमाहट आ
गई, जैसे बूढ़ी भैंस के पुट्ठों पर किसी ने तेल चुपड़ दिया हो। बगीचे की ओर मुंह
घुमाकर बोला, “वो छतरी दीख रही है न, ठाकुर अभयसिंहजी की, उनके बापूजी जीवित थे तब।
तेजसिंहजी नाम था उनका। उनकी खुद की सवारी के लिए एक घोड़ी थी, एकदम सफेद-झक्।
कामदार अमरोजी उसे तालाब में पानी पिलाकर उतर रहे थे। संयोग से मैं सामने पड़ गया।
बोले, “अरे
कूदन, तू दौड़ता तो खूब अच्छा है, पर इस खासा घोड़ी से बाजी मार ले जाए तो जानें।“
“मैं पायचे टांगकर
तैयार हो गया। अमरोजी ने घोड़ी पर सवार होकर मेरे हाथ पर ताली दी और घोड़ी को पादू
के मार्ग चौकड़ी चाल में दौड़ा दी। आगे घोड़ी और पीछे मैं। अभी जहां बंगले का कुंआ
बना है, वहां तक पहुंचते-पहुंचते मैं घोडी से पांच सात कदम आगे निकल गया और झटके
से लपककर घोड़ी की लगाम थाम ली। अमरोजी उछलकर गिरते-गिरते बचे। हें हें करते हुए
उन्होंने दांत बाहर निकाल दिये। फिर गढ़ में जाकर उन्होंने ठाकुरसा को हकीकत
सुनाई, तो ठाकुरसा ने बुलावा भेजा। मेरी पीठ थपथपाई और मुझे मान-सरूप पगड़ी बख्शीश
की।
थोड़ी
देर मौन छाया रहा और हम पत्थर की बनी मूर्तियों की तरह बैठे रहे – मानो घोड़ी और
कूदन की दौड़ हमारी आंखों के सामने ही हो रही हो और हम सांस रोके उसे ही देख रहे
हों। आखिर जीवन चौधरी ने मौन तोड़ा, “तो बाबा कभी ऊंट से भी बाजी हुई होगी?”
हाथ का
उलाहना देते हुए कूदन बोला, “अरे कौन से ऊंट-फूंट। एक बार अकाल बरस में गांव का धन (मवेशी) लेकर मालवे जाने
का काम पड़ा, तो रास्ते में रेल देखी। लोगों ने कहा कि ये अभी खड़ी है, लेकिन जब
भागती है तो सच में बहुत तेज भागती है। सो एक दिन धन सीमा में चर रहा था और मैं
दोस्तों के साथ एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहा था। अचानक पूरब दिशा से आती हुई रेल की
सीटी सुनाई दी। मैं खड़ा हो गया और पांयचे टांग लिये। मंदिर वाले बाबा का स्मरण
किया। इतने में तो सनसनाट करता हुआ इंजन मेरे बराबरी में आया ही। मैंने भी जोर की
लगाई पट्टी और उसके साथ हो लिया। कोस भर भागा जितने तो उसे आगे निकलने दिया नहीं।
फिर कुछ तो मेरे थक जाने से, और कुछ जमीन ही सीधी न होने से आखिर वह आगे निकल गया
और एक-एक कर उसके पीछे जुड़े डिब्बे भी सटक-सटक करते आगे निकल गये। कोस दो तो मैं
भाग ही लिया और मेरी जानकारी में वैसी दौड़ फिर मैंने कभी नहीं लगाई।“
मुझे लगा कि कूदन की टेढ़ी हुई रीढ़ की हड्डी थोड़ी-सी सीधी हुई है। चिलम की
एक फूंक फिर से खींचकर उसने मुझ पर नजर गड़ाई और बोला, “सीमा-क्षेत्र में जाते
और वहां से वापस लौटते मैं मार्ग या पगडंडियों पर क्योंकर चलता? सीध बांधकर उजाड़ में ही चल पड़ता। रास्ते में आने वाली झाड़ियों, बाड़ों और दीवारों
को कूदते हुए ही पार करता। एक बार हम संगी-साथी गढ़ के बाहर कोहर पर बैठे चिलम पी
रहे थे। नाले के परले किनारे पीपली वाले कुंए पर सींचारा (चरस से पानी सींचने वाला)
चरस से पानी निकाल रहा था। एक संगाती बोला कि कूदन, हम तो तब जानें कि भरा हुआ चरस
खाली कर सींचारा उस खाली चरस को कुंए में उतारना शुरू करे उस वक्त तू यहां से दौड़
लगाए और वापस भरे चरस की खीली खुले, उससे पहले तू कुंए पर जा पहुंचे। मैं तुरंत
तैयार हो गया। चकरी पर रस्सी ढीली पड़नी थी कि मैं दौड़ा। कोहर की दीवार फांद, नाला
पार किया, पीपली वाले कुंए के घेरे की दीवार फांदी और सींचारा वारा (भरा हुआ चरस)
झेले-झेले, उससे पहले तो जा पहुंचा कुंए पर और वारा भी मैंने ही झेला।“
“उस वक्त मेरी छाती में दो भैरव नाचते थे – एक इधर
और एक उधर। जेई (लकड़ी की दो-सींगी) और कुल्हाड़ी लेकर मैं जाता था सीमा-क्षेत्र में बकरियों को चराने, तब
खेजड़ियां कहतीं कि तुम्हारे बस का नहीं है हमें छांग लेना (पत्तियों की डाली काट
लेना)। मैं कहता कि छांगकर रहूंगा, बहुत देखी तुम्हारे जैसी। ले कुल्हाड़ी और चढ़
जाता उनकी शाखाओं पर और दो घड़ी में आठ-दसेक के सर्राटे लगा टहनियों सहित पत्तियां
काटकर खूब हल्की कर डालता। नीचे बकरियां चरती रहतीं मजे से। सांझ पड़ते सारी
टहनियों को जेई से इकट्ठी कर बड़ा भारा बांध लेता। उसे झुककर सिर पर उठा लेता, उस
वक्त जैसे हम हथेलियों में भींचकर नारियल फोड़ते हैं झड़ड़ड़, वैसे मेरी छाती की
हड्डियां बोलती थीं। भारे को जेई से दाबकर, बकरियों को बटोरकर वापस घर आ जाता।“
अचरज से चौड़ी हुई मेरी
आंखों की ओर देखते हुए बाबा ने अभी चिलम की फिर से एक लंबी फूंक खींची और उनकी रीढ़
कुछ और सीधी होती लगी। गमानजी ने पूछा, “इतना
काम करते थे बाबा, तब खुराक भी तुम्हारी भूत सरीखी रही होगी।“
खंखार थूककर कूदन बोला, “खुराक की खूब पूछी ठाकुरसा। पेट भर रोटी तो मैंने
पूरी उम्र कभी नहीं खाई। सवेरे नाश्ते में मेरी मां मुझे तीन रोटियां देती थी
गिनती की, वो तो गले-तलुवे के ही नहीं लगती थी। मुझे वह ‘डाकी’ (अघोरी) कहती थी।
खा-पीकर कुंए पर चला जाता और दोपहर की खाने की प्रतीक्षा करता, जैसे कोई मेह
(वर्षा) की प्रतीक्षा करता हो। मझ दोपहर को बहन भाता (दोपहर का भोजन) लेकर आती,
बालिश्त भर रोटियों की ढेरी। भाता भी खा लेता, लेकिन संतुष्टि कहां होती? एक बड़ा
कौर मुंह में गले से नीचे उतरता तब तक तो अंतड़ियां लाओ लाओ करने लगती। पिछले पहर
खोद खोदकर गाजरों की दो ढेरियां लगाता, घुटनों जितनी ऊंचाई
की, एक तो बैलों की खातिर और दूसरी अपनी खातिर। बैलों का तो पेट भर जाता लेकिन
मेरा फिर भी नहीं भर पाता। संतुष्टि तो क्या होती, बस तसल्ली कर लेनी होती थी।
और मालवे गये तब हिस्से आई गायों का दूध निकाल लेते। डेढ़ मटकी भरती। आधी मटकी में
तो बच्चों को निपटाता और एक मटकी मैं पी जाता, लेकिन ठाकुरसा की कसम, पानी की जरूरत भी नहीं पूरी पड़ती।“
कूदन ने मुस्कुरा कर ठाकुर की ओर
देखा, लेकिन वे तो ऊंघ रहे थे। उनका मौठरंगी गोल साफा नींद की झपकी के साथ
आगे-पीछे झुक रहा था। हाथ से सिले मलमल के कमीज में लगे चांदी के बटन चमक रहे थे
और जेब में रखा बीड़ी का बंडल और माचिस साफ दिखाई दे रहे थे।
जीवन ने ठाकुर को झिंझोड़ा, तो वो हें हें करते जाग गये। झेंप मिटाते
हुए-से बोले, “ठंडी हवा से मेरी आंख लग गई थी, जी---“
मैं
विचार में पड़ गया कि कूदन की बातों से हमारे तो रोंगटे खड़े हो गये और ये ठाकुर
नींद के हिलोरे ले रहा था। बाबा का सारा उत्साह जाता रहा। ललाट और चेहरे की सारी
चमक जाती रही, तेल सूख गया और चेहरे की झुर्रियां और गहरी हो गईं। बात अधबीच ही
खत्म होती हमें अच्छी नहीं लगी। मन कूदन का गुदला गया होगा, उसे साफ करने के लिए
बोला, “लोग
सच कहते हैं कि राजपूतों की नींद तो युद्ध का नगारा बजने से ही उड़ती है। थोड़ा-सा आराम
मिला नहीं कि आंख लग जाती है। इनके लिए तो कोई-न-कोई लड़ाई के मोर्चे पर तैनात
रहना चाहिए। ये राजपूत यदि नींद पर फतह पा लेते तो राज यों क्यों गंवाते?”
ठाकुर मुस्कुराकर रह गये, लेकिन बाबा को हंसी आ गई। वह हंसी खांसी में
जाकर खत्म हुई और खांसी खंखार के एक थक्के में। थूककर बाबा ने अपनी बात का सिरा खुद
ही पकड़ लिया, “एक बार मैं थोड़ा सा तृप्त हुआ था। कुंए से घर आया ही था गाजरें खाकर। मां ने
कहा कि बड़ी कोटड़ी से भोजन का न्यौता आया है, सो जाकर जीम आ। वहां जाकर पता चला कि
सीरे-पुड़ी की रसोई बनी है। पर्दे के भीतर खड़े भूरजी महाराज की नजर मुझ पर पड़ी, तो
उन्होंने हाथ का इशारा देकर मुझे एक तरफ बुलाया और मुझे पंगत से अलग एक अंधेरे
कोने में बिठा दिया। फिर बैलों को जैसे नीरा-चारा खिलाते हैं, उससे सवाया सीरा एक
बड़ी परात में पुरस कर मेरे आगे रख दिया। मैं जीमने लगा तो तीन पंगत जीमकर उठ गई,
लेकिन मैं जीमने में लगा रहा। फिर मुझे शर्म आ गई और मैंने चुल्लू कर लिया। पेट
तो उस दिन भी पूरा नहीं भरा, लेकिन हां मन में राजी बहुत हुआ।“
बात को
कल से आज पर लाते हुए जीवन चौधरी ने पूछा, “ए, हरजी आपकी सेवा करता है कि नहीं, बाबा?”
सुनकर
बाबा के चेहरे की चमक और मंदी पड़ गई। चेहरे की झुर्रियां और गहरी हो गई और दाढ़ी के
बाल कांटों सरीखे खड़े। बोला, “क्यों कुरेद रहे हो भाई? जाने दो न। सब ठीक है। रामजी महाराज जीवित रखें।
कमाएं-खाएं। अपन तो उसकी कमाई से कुछ इच्छा करते नहीं। मुंह से काका कहकर बोल
लेता है तो मेरी तो बाप की योनि सुधर जाती है और सेवा करने वाली को तो रामजी ने
कभी का अपने पास बुला लिया। आज पन्द्रह बरस होने को आ गये। कोई सुख-दुख पूछने
वाला ही नहीं।“
कूदन की
आंखें गीली हो गई। सिर झुकाकर उसने चिलम झाड़ दी। नीम की सूखी डाली का एक टुकड़ा
उठाकर उससे गोली पर लगे तम्बाखू को धीरे-धीरे हटाने लगा। आंखों से आंसू की बूंदें
टपाटप गिरने लगी। किसी को जानकारी नहीं थी कि बाबा के भीतर एक नासूर है। आज अजाने
में ही जीवन की अंगुली ने उसे छेड़ दिया। मैं कुछ बोलूं, उससे पहले ही ठाकुर पूछ
बैठे, “तो
बाबा तुम्हारा गुजारा कैसे चल रहा है?”
“चलने को तो चलता ही
है। बस्ती परमेश्वर है। इसी के सहारे पड़ा हूं। छोटा-मोटा काम मिल ही जाता है –
पड़छी बांधनी, मूंज सुलझानी, रस्सी बट देनी, खाट बुन देनी और कुछ न हो तो, बैठा
ढेरिया ही कात लेता हूं। दो रोटी तो मिल ही जाती है। और अब कोई जीने में जीना थोड़े
ही है, दिन पूरे करने हैं, फकत्।“
कूदन
ने सिर ऊंचा किया। उसकी आंखों से आंसू यों रिस रहे थे, मानो गर्मी के मौसम में,
कुंए में पानी की दो पतली पतली सीरें आ रही हों। मेरा कलेजा हिल गया। जेब में से
दस रुपये का एक नोट निकालकर कूदन की ओर बढ़ाते हुए बोला, “महीने के महीने तुम मेरे से
दस रुपये लेते रहो, पर दुख मत करो बाबा। तुम मुझे अपना हरजीड़ा ही मान लो।“
एक बार उस नोट की तरफ और फिर मेरी तरफ देखकर कूदन ने निश्वास छोडी। फिर
बोला, “नहीं बापजी, नहीं। पूरी उम्र किसी के आगे हाथ नहीं पसारा, तो अब बरस दो-बरस की
खातिर क्या कच्चा खाऊं? क्यों अधर्म में पांव रखवाते हो बापजी? दुनिया में धर्म
बड़ा है। इसी धर्म पर धरती टिकी है। चांद-सूरज अटके हैं, लेकिन गिरते नहीं। आकाश
बिना सहारे के तना है। धर्म चला जाए, तो फिर बचा ही क्या रहेगा?”
इतने
में पों-पों करती बस आ खड़ी हुई। अन्दर लोग भरे हुए थे भेड़-बकरियों की तरह।
गुमानजी और जीवन उठे और गाड़ी में चढ़ गये। बकरों के साथ बकरे हो गये। घरघराहट उठी
और बस चल पड़ी। कूदन सूनी आंखों से उड़ती धूल देखता रह गया।
अनुवाद – नंद भारद्वाज
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टिप्पणियाँ
जिस संतान के लिए आदमी तिल-तिल जीता है तिल-तिल मरता है उसी से ऐसी बेरूखी, ऐसी अवहेलना!
"कूदन बाबा" नेमनारायण जोशी जी की पहली रचना जो मैंने पढ़ी! प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल रहे। इस संवेदना से पगी कृति को हम तक पहुँचाने के लिए आभार Nand Sir