कविता की नाकामयाबी - मरने-जीने से आगे
यह आलेख सबसे पहले अंग्रेजी में कविता समय के ब्लॉग पर पोस्ट हुआ था. तभी मैंने इसका अनुवाद करने का वादा किया था. अनुवाद काफी पहले कर लिया था पर पोस्ट अब कर रहा हूँ...
कविता – एक प्रतिरोध स्थली की तरह
- जेरेमी स्माल
- अनुवाद – अशोक कुमार पाण्डेय
अगर आप मेरे यह कहने पर कि, लगभग पिछले तीस
सालों में छपी कविता की हर किताब पूरी तरह से नाकामयाब रही है, मुझसे बहस करना चाह रहे हैं तो संभावना यही है कि आप देश के उस तबके से
हैं जो अपने आप को कवि समझता है। बाकी सबके लिये तो कविता का हाईस्कूल की किताब के
बाहर कोई अस्तित्व है ही नहीं। कवि टाक शो में दिखाई नहीं देते, देर रात के दूरदर्शन के कार्यक्रमों में उनका पाठ शामिल नहीं होता और इस
बात की संभावना बढ़ती जा रही है कि न्यूयार्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट जैसे बड़े और
महत्वपूर्ण अख़बारों में उनकी समीक्षायें भी नहीं हों। प्रकाशन उद्योग में यह सब
जानते हैं कि ब्लाकबस्टर कविता संग्रह भी असफल संस्मरणों और कहानियों, उपन्यासों से हास्यास्पद रूप से कम बिकते हैं। हर उस नज़रिये से जिससे हम
सफलता को नापते हैं – किताबों की बिक्री, इनकी व्यापक प्रासंगिकता, लोगों द्वारा पहचान- हर नज़रिये से कविता आज पूरी तरह से नाकामयाब है। मेरा
तर्क है कि यह एक अच्छी बात है।
तमाम आलोचकों का कहना है कि कविता के
अप्रासंगिक होते जाने का कारण उसकी अत्यधिक प्रयोगशीलता है जो उसे लोगों से दूर
करती जा रही है यानि अगर यह ज़्यादा आसानी से समझ में आ जाये, ज़्यादा आसान हो जाये तब इसे मुख्यधारा
में कोई भी स्वीकार कर लेगा, कवि तब सड़कों पर वास्तविक लेखक की तरह चल सकेंगे जिनके पास
किताबों के अनुबंध और पैसे होंगे। लेकिन क्या किसी ने रुककर यह सोचा है कि वह
कविता दिखेगी कैसी? मैं बाज़ार में सफ़ल या छाया-लेखकों द्वारा
लिखी रास्ते में लगी कविता के जान ग्रिशम या जान पैटरसन की किताबों के, जिनके उत्पाद एक लक्षित बाज़ार के अनुरूप
बनाये गये होते हैं, विज्ञापनों के अलावा किसी और चीज़ के बारे
में नहीं सोच पाता।
असली बात बस यह है कि समकालीन समाज में
सफलता के पारंपरिक मानक पूंजीवादी उद्देश्यों की तरफ़ उन्मुख हैं और इसीलिये वे
लागू नहीं होते। जैसा कि डीन यंग ने पिछली फरवरी में शिकागो में अपने कविता पाठ के
दौरान कहा ‘ कवि बाज़ार नहीं
होते, हम एक जनजाति हैं’। लेकिन फिर यह सवाल उठता है कि अगर
कविता इस संस्कृति में अधिकतर लोगों के लिये अप्रासंगिक है, अगर यह बिकती नहीं है, फिर आज भी इसका अस्तित्व क्यूं है? क्यों यह अब तक पूरी तरह से ग़ायब नहीं हो
गयी?
पिछले बीस सालों में हमने पूंजीवाद के
दूसरे चरण – भूमण्डलीकरण का
विकास देखा है और यह सिर्फ़ एक काम अच्छे से कर सकता है – चीज़ों को माल बनाना और बेचना। दूसरे सभी
कारक निश्चित तौर पर इसी उद्देश्य के अधीन होने चाहिये। स्थानीय संस्कृति और जीवन
के राष्ट्रीय ढंग अगर वे अपने रंग में ढाल कर बिक सकते हैं तो बेचे जाने चाहिये
नहीं तो निश्चित तौर पर इकहरे किये जाने चाहिये, नष्ट किये जाने चाहिये और वस्तु बाज़ार से
विस्थापित कर दिये जाने चाहिये।
आज – और बिलकुल अभी - कविता की सबसे बड़ी और
असली खूबी इस तथ्य में है कि वह भूमंडलीकरण के प्रतिरोध में सक्रिय क्षेत्र है ; और साफ़ कर दूं कि इससे मेरा आशय यह नहीं
है कि कविता को अनिवार्य रूप से राजनीतिक ही होना चाहिए, या किसी के समर्थन या विरोध में ही होना
चाहिए. बेहतर होगा कि नारेबाजी को परचों के लिए छोड़ दिया जाय. कविता बस इस तरह से
प्रतिरोध दर्ज कराती है कि वह जिद पूर्वक एक सच्ची तथा माल न बनाए जा सकने वाली
संस्कृति की रचना कर पूंजीवादी वर्चस्व के नियंत्रण की सीमा से बाहर अस्तित्वमान
रहती है.
यहाँ महत्वपूर्ण बिंदु है एक उपभोक्ता
बाज़ार और सही संस्कृति के बीच के अंतर की समझदारी. एक उपभोक्ता बाज़ार इस बात पर
निर्भर होता है कि किस तरह के लोग किस तरह के सामान खरीदेंगे, यानि, किसको क्या बेचकर किस तरह पैसा बनाया
जाय. सही संस्कृति , कारपोरेट हेरफेर के परे और लाभप्रदता के सन्दर्भ के उस चीज़ का जनता में
प्रसार है जो जनता के लिए महत्वपूर्ण है ; संस्कृति का सही अर्थ है कि किस तरह मानवता अपने को वह समझे
जो वह वास्तव में है. पूंजीवाद इस प्रक्रिया में अपने द्वारा निर्मित अर्थ पैदा कर
गडबडी फैलाता है, अगर यह अंतिम लक्ष्यों को निर्धारित कर
सके तो यह उन अंतिम लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधनों को भी नियंत्रित कर सकता
है, उदाहरण के लिए अगर आप ‘ आधुनिक हिप हाप टाइप’ के बनना चाहते हैं तो फिर आपके लिए फलां
तरह के जूते, टी वी शोज़, शीतल पेय और गाडियाँ हैं.
कविता जिस रूप में आज अस्तित्वमान है, वह सहज, आत्मआयोजित और संस्कृति के पूरी तरह
अलाभकारी स्रोत के रूप में उत्पादन और पूंजीवादी विनियोजन के बीच के अंतराल में
उपस्थित है ; यह विशिष्ट रूप में उस अंतराल में है जहाँ यह भूमंडलीकरण की व्यापक परियोजना
को, जिसे अपनी उत्पादकता और उपभोक्ता
क्षमताओं को लगातार एक क्षतिमान क्षितिज की ओर विस्तारित करना ही होता है, अधिकतम संभव क्षति पहुँचा सकती है. कोई
भी चीज़ जिसमें भूमंडलीकरण के इस व्यापक प्रबंधन को बाधित करने की ताक़त है – जो हमें इसके स्वचालन से विचलित कर सकती
है और वास्तव में सोचने तथा अपनी कल्पनाओं के प्रयोग पर मजबूर कर सकती है – वह हमारी आवश्यक मानवता के परिक्षेत्र
में हमें फिर से स्थापित कर सकती है. आखिर
हम नर्म चमड़ी वाले, नखदंत विहीन कुटुंब हैं जिनके अस्तित्व
के लिए ही सक्रिय और सच्चे कल्पनाशील चिंतकों का पूर्णकालिक सक्रियता आवश्यक है.
सक्रिय और कल्पनाशील व्यक्तित्वों में – बिलकुल उस तरह के लोग जो कविता की सघन रूप से अंतर्गुम्फित
दुनिया बनाते हैं – एक सच्ची प्रतिरोधी राजनीतिक संरचना के निर्माण की क्षमता
होती है.
इस बात पर एक आम सहमति उभरी है कि हमारे
अस्तित्व की वर्तमान स्थिति–भयावह आर्थिक संकट और व्यापक व्यामोह - के लिए खराब प्रबंधन
को दोषी ठहराया जा सकता है और कुछ सुधारों – और कडे विनियमन, कम लाभांश, ज्यादा ईमानदार लेखा आदि से हमारे सामने उपस्थित हो रही
महाआपदा को टाला जा सकता था ; लेकिन असल में जो चीज़ प्रकट हुई है वह है हमारी सामूहिक
कल्पनाशीलता का संकट. यह साफ़ हुआ है कि हम एक ऎसी दुनिया की कल्पना करने में अक्षम
रहे हैं जिसमें एक ऐसा क्षतिमान आर्थिक क्षितिज न हो जिसे, इस तथ्य के बावजूद कि हम जितना अधिक तेज़ी
से दौड़ते हैं, बढ़ती हुई उत्पादकता के साथ हम जितना और
लंबे समय तक काम करते हैं वह और तेज़ी से क्षतिग्रस्त होती चली जाती है, लगातार बढ़ती हुई गति से और तेज भगाना पड़े ; यह कि हम उपभोक्ता उपकरणों, ब्रांड नामों, बहुत बड़े घरों, हरे लान, शापिंग माल्स और गाड़ियों के बिना अपनी
ज़िंदगी की कल्पना कर पाने में असफल रहे हैं, यह कि हम अपने लिए एक ऎसी दुनिया की कल्पना कर पाने में
असफल रहे हैं जिसमें हम सच में फल-फूल सकें.
बुरी तरह से प्रतिकूल बाज़ार की ताकतों के बावजूद कविता का सतत अस्तित्व
मानवता के लिए हमारे अकसर विस्मयकारी अस्तित्व के उद्देश्य को परिभाषित करने वाले
के रूप में इसके महत्व को प्रदर्शित करता है. लोकप्रिय संस्कृति कवियों के प्रति
कोई सम्मान नहीं रखती, यह वास्तविक कल्पनाशील काम
को खारिज करती है – ये बातें हमारे वर्त्तमान राजनीतिक तथा
आर्थिक संकट के वातावरण में आश्चर्यजनक नहीं लगनी चाहिए. हमारी हालिया रूचि, मुख्य रूप से इस सवाल के हल की ओर केंद्रित हो गयी है कि
किस तरह पैसे को और अधिक पैसे में तब्दील किया जाए. वह इस बात पर कोई खास ध्यान
नहीं देती कि अंतिम परिणाम कैसा हो सकता है और इसकी तो बात ही मत कीजिए कि यह कैसा
होना चाहिए.
सांस्कृतिक आलोचक स्लोवाज जिजेक के
अनुसार, आशावादी परिणाम के विशेषाधिकार की
आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि भविष्य की गोद में छुपी हार की अनिवार्यता को स्वीकार
करना चाहिए, इसकी वास्तव में कल्पना करो और फिर इसे
रोकने की हर संभव कोशिश करो – अभी – जब इसे अब भी रोका जा सकता है. लेकिन इसके पहले कि जब एक
नयी यूटोपिया के लिए जमीनी काम शुरू करना संभव हो, इससे पहले कि हम तय करें कि उस नई दुनिया
का ढांचा कैसा होगा, इससे पहले कि जब हम यह जान सकें कि हम
क्या चाहते हैं ताकि हम वास्तव में इसे बना सकें हमें इसकी वास्तव में कल्पना
करने के लिए अपनी पूरी क्षमता के साथ एक मानव समुदाय होना होगा. तो, हम किसे रोकना चाहते हैं? और अगर हम सफल हो गए, फिर?
टिप्पणियाँ
मैं सोंचता हूँ कि कविता के सत्यानुरागी पारंपरिक मानक और पूंजीवादी उद्देश्यों के बीच जो विसंगति की बाधा है वह अन्य विधाओं के साथ भी होनी चाहिए ! संभवतः लेखक यहाँ कविता को उसके व्यापक अर्थ में लेकर अपनी बात कह रहा है !
यह लेख कविता के रूप और उद्देश्य के संदर्भ में उसकी संघर्षपूर्ण स्थिति पर एक विचार मात्र नहीं है वरन यह पूंजीवादी संस्कृति की एक समझ भी देता है और आगामी खतरों से सचेत भी करता है !
अनुवाद और प्रस्तुति के लिए आशोंक जी का आभार !
दिगंबर
क्या संयोग है ....इन पंक्तियों को या कहूँ इस अर्थ की पंक्तियों को अनगिनत बार अलग अलग मंचों पर दुहरा चूका हूँ ...बिलकुल मन की बात को रेखांकित करता बेहद जरुरी आलेख .....अनुवाद भी बढ़िया है ...बहुत धन्यवाद ..ऐसी और "असुविधा-ओं" की जरुरत है :)
और बहुत सुंदर अनुवाद के लिये पाण्डे जी का आभार व्यक्त करता हूँ।