चिकना चुपड़ा लल्लू खुद को गाँधी का नाती कहता है
दिल्ली में रहने वाले युवा कवि कृष्णकांत की ये कवितायें छंद की ताकत का इस्तेमाल करते हुए समकालीन विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए मुझे एक ख़ास तरह की जिद और जिजीविषा दिखाई देती है और एक रा एनर्जी । समकालीन मुक्त छंद कविता परिदृश्य में ऐसी कवितायें एक बहुत सुखद और ज़रूरी विचलन पैदा करती हैं।
1 गाँधी का नाती
चिकना चुपड़ा लल्लू खुद को
गाँधी का नाती कहता है
गांव में आकर खुदको
हम सबका सच्चा साथी कहता है
जितने का घर-बार हमारा
उतने का तो कुरता उसका
दिल्ली और सीकरी उसकी
रोटी उसकी ज़र्दा उसका
हमने कहा कि महंगाई है
भकुआ चुप्पैचाप रहा
हम बोले कि घर नाहीं है
भकुआ चुप्पैचाप रहा
हम बोले गगरी खाली है
भकुआ चुप्पैचाप रहा
बस्ती का बच्चा-बच्चा है
ठण्ड-भूख से कांप रहा
कलावती से प्यार जताकर
कुछ बच्चों को गोद उठाकर
कई बार मेरे ही घर को
वह अपना घर-बार बता कर
चला गया है मूर्ख बनाकर
इसके सारे राज़ पता कर
कौन है यह अंग्रेज का बच्चा
सरपत को गन्ना कहता है
किस चक्कर में आता है यह
तरह-तरह चालें चलता है
अख़बारों में काहे इसका
बड़ा-बड़ा फोटू छपता है
आता है हर साल गांव में
खूब तमाशा करता है
सब बच्चों से रामराज का
झूठा वादा करता है
कहीं मुश्किलें सारी हमने
नहीं किसी पे कान दिया
अगले ही दिन अपना तम्बू
बगल गांव में तान दिया
आठ महीने से घर में
कोई भी सालन नहीं बना
कोदौ-किनकी नाहीं मयस्सर
कहाँ मिलेगा खीर-पना
कुछ-कुछ दिन पर भूख के मारे
कोई न कोई मरता है
आँख बंद है कान बंद है
और ज़मीर पर पर्दा है
अबकी आये टेन्ट लगाये
सारे बल्ली-बांस तोड़ दो
बंद करो यह नाटक अब
हम सबको अपने हाल छोड़ दो
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2. मैं कहता हूँ
मैं कहता हूँ वो बातें
उस भाषा में
जो अम्मा औ बाबुजी को
सहज समझ में आती हों
क्योंकि वे दोनों अनपढ़ हैं
और मुझे लगता है
जो वे समझेंगे
मेरे देश का बच्चा-बच्चा समझेगा
क्योंकि वे भी अनपढ़ हैं
अम्मा औ बाबू की नाईं
वे भी खांटी देसी हैं
दिल्ली के शह और मुसाहिब
उनके लिए विदेसी हैं
मेरी माँ बोली है मुझसे
तुम इनकी आवाज़ बनो
सुर भर दो नीरव जीवन में
ऐसा सुन्दर साज़ बनो
इनके जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा करना
तोपों से, बंदूकों से तुम
कभी न डरना
घर में एक ही लाठी थी
वो बाबू को दे आया हूँ
अपनी कलम दवात महज़
अपने झोले में लाया हूँ
एक-एक बच्चे की बातें
मैं कान लगाकर सुनता हूँ
अक्षर-अक्षर रोता हूँ
मैं कबीर का बेटा हूँ
तिल-तिल कर हर दिन मरता हूँ
मेरे साथ आओ मजलूमों
इक दूजे का हाथ गहो
बढ़े चलो सूरज की जानिब
शब्द शब्द सँघर्ष करो...
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३. दास कबीर, बचे तुम कैसे....?
दास कबीर
हमें हैरत है
करके प्रेम बचे तुम कैसे....?
आकर देखो इस धरती पर
प्रेम में रहना, प्रेम बरतना
प्रेम सोचना, प्रेम निभाना
सारा कुछ कितना मुश्किल है
मूँछों वाले, पगड़ी वाले
ठेकेदार तब नहीं थे क्या,
तुम जैसे बिगड़े लोगों से
उनकी इज्जत लुटी नहीं क्या,
मूँछें उनकी झुकीं नहीं क्या?
अपनी चदरी जस की तस
रक्खा तो कैसे
इस दुनिया में ढाई आखर
बाँचा कैसे
इसकी कीमत हमसे पूछो
मनोज से बबली से पूछो
शारून से गुडिय़ा से पूछो
पूजा से मुनिया से पूछो
हम सबको तरकीब सुझाओ
बचने की कुछ जुगत बताओ
बहुत बड़े शातिर बनते हो
हिम्मत है, इस युग में आओ!
वैसे हमने ठान लिया है
गर्दन उड़े जले तन चाहे
प्रेम तो तब भी करना होगा
कत्ल करें वे प्रेम करें हम
लेकर कफन उतरना होगा
अपना घर फूँकने की खातिर
लिए लुकाठा खड़े हुए हम
आओ हम तुम साथ चलेंगे
देखेंगे घर फूँक तमाशा....।
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४. बाबूजी की याद में
अक्सरहां ही कागज़ पर
शब्द-शब्द इक-इक चुन-चुन कर
मैं जैसे गेहूं बोता हूं
फसलों में जीवन भरता हूं
हरी-हरी गेहूं की दुद्धा बालियां
महकती रहती हैं सांसों में
और पसीने की कुछ बूदें
मिट्टी में घुलती रहती हैं...
याद आता है बाबूजी
कैसे खेतों में खटते थे
थक जाते थे फिर भी
हल के पीछे पीछे चलते थे
भीगी देह गमकती थी
मोती टप-टप-टप झरते थे
जब फसलें हंसने लगती थीं
हरियाई फसलों के बीच
कई घंटों बैठे रहते थे
वे कहते थे खेतों में
रोटी की महक घुली रहती है
खेतों में हो फसल भली तो
तन में सांस बची रहती है
सोचता हूं कि बाबूजी ने
उसी खेत में जा करके
ख़ुदकुशी किस गरज की होगी?
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५. कविता लिखकर क्या होगा
मैंने सोचा
कविता लिखकर क्या होगा
मेरे कविता लिखने से
कुछ उखड़ेगा?
मेरा पड़ोसी मनीराम
मर गया लगाकर फांसी
राम फेर को था बुखार
टें हो गया दवा दारू बिन
तब भी मैं कविता लिखता था
उसका कुछ भी तो नहीं हुआ
धनी राम के घर दो दिन से
चूल्हा नहीं जला है
क्या मेरी कविताएं उसकी खातिर
कुछ भी कर सकती है ?
एक जून की रोटी
उसको दे सकती है ?
कविताओं का क्या होगा
धरे-धरे अलमारी में सड़ जाएंगी
चूहे चीकट कुतर-कुतर कर खाएंगे
टुटहा घर है
एक रोज़ गिर जाएगा
कविता सविता माटी में मिल जाएगी
तब तक हाथ झाड़ता मघई आया
बोला भैया इधर लिखा कुछ ताज़ा?
लाओ सुनाओ
मन बहलाओ
इस दुनिया में बड़ा नरक है
घर से बाहर तक झंझट है
ज़रा देर को ही इन सबसे मुक्ति दिलाओ
हम सब ठहरे अनपढ़ गँवई
तुम्ही से तो आसा है
बदलो यह, कोई और जमाना लाओ
वह अपने घर चला गया जब
मैंने कलम उठाई
और लिखी एक कविता फिर से...
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६. भट्टा परसौल के नागरिकों के नाम
यह कोई कविता नहीं
ये तो उनकी आंखों से टपके
कतरे हैं लहू के
गोलियों से छलनी हुए जो लोग
बटोर कर लाया हूं अभी
पड़े थे उनकी पुस्तैनी ज़मीन पर
कंचों की तरह, लावारिस
वह जो आई थी
नयी बहू, इसी लगन पाख में
सत्ता ने रौंद डाली
उसके सपनों की हसीन बस्ती
कहा, अतिक्रमण है, रौंदो इन्हें
उसने कहा- मेरा सपना है
सिन्दूर है मेरी मांग का
और उम्र की कुछ-एक मुस्कराती पंखुडियां
रहने दो इसे
मगर तब तक चिपक चुका था
उसके माथे पर
विदेशी कंपनियों का विज्ञापन
उसकी हथेली पर
रखा जा चुका था मुआवजा
हो चुका था अधिग्रहण
उसकी कोख का
वहीं पर हमारे पुरखे भी
पाथा करते थे उपले
जहां गांव की सब बूढ़ी औरतें
लगाती रहीं ताउम्र
कंडियों के ढेर
कंडियां और कुछ नहीं होतीं
रोटी के सिवा
जो गढ़ी जाती हैं
तिनके-तिनके से
गांव भर के सपने
फूंक दिए गए बटोर कर
उन्हीं कंडियों में
रख हो गयीं सब रोटियां
वे जो भागे हैं घर छोड़
जीते हैं सहमे-सहमे
उन सबसे कहो
जमा दें अपने पांव
सटाकर अपने घर की दीवारों से
बना लो अपने किले
जिसे न ढहा सके सत्ता का दमन
अन्यथा एक दिन
वे पहुंचेंगे उन सूने स्थानों पर भी
जहां छुपी हैं तुम्हारी धडकनें....
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संपर्ककृष्णकांतF-89, गली नंबर-3, पश्चिमी विनोद नगर,नई दिल्ली- 92mo.- 09718821664
टिप्पणियाँ
मेरे साथ आओ मजलूमों
इक दूजे का हाथ गहो
बढ़े चलो सूरज की जानिब
शब्द शब्द सँघर्ष करो...
पढना बेहद अच्छा और सार्थक लगा ...कवि को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई .....असुविधा का आभार !