किस्सागोई करती आँखें - प्रदीप कान्त
प्रदीप कान्त इधर की हिंदी ग़ज़ल के एक ज़रूरी युवा चेहरे हैं. उनके यहाँ देसज बिम्बों से बनी एकदम सहज भाषा में बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के बड़ी बात कह देने का जो शऊर है, वह पहली नज़र में ही बड़ी मुश्किल से हासिल किया हुआ और साधा हुआ नज़र आता है. अभी उनकी पहली किताब 'किस्सागोई करती आँखें' बोधि प्रकाशन, जयपुर से छपी तो एक कापी उन्होंने मुझे भी उपलब्ध कराई. उसी किताब से कुछ गजलें. किताब हिंदी में सस्ती किताबों के प्रकाशन के लिए प्रतिबद्ध भाई माया मृग से mayamrig@gmail.com पर मेल कर मंगवाई जा सकती है.
एक
बरखा में मुस्काई नदिया
जी भर आज नहाई नदिया
बिटिया हँसी तो खिली फ़ज़ा
मरूथल में इठलाई नदिया
अपनी ज़ुल्फ़ें खोल, झटक
लो
क्यूँ इनमें उलझाई नदिया
झुलसे पाँव धूप में जब जब
पत्थर पर तर आई नदिया
तपता सूरज टहले
ऊपर
मगर कहाँ सुस्ताई नदिया
आँख तरेरी पत्थर ने जब
देख उसे बल खाई नदिया
तहस नहस ना हो जाऐ सब
मत लेना अंगड़ाई नदिया
दो
किसी न किसी
बहाने की बातें
ले देकर ज़माने
की बातें
उसी मोड़ पर गिरे थे हम भी
जहाँ थी सम्भल जाने की बातें
रात अपनी, गुज़ार दें ख्व़ाबों में
सुबह फिर वही कमाने की बातें
समझें न समझें हमारी मर्ज़ी
बड़े हो, कहो सिखाने की बातें
मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे
रोकर कभी भी हँसाने की बातें
तीन
देश के बारे
में बात
होगी
पत्थर हैं पागल के
हाथ में
शरीफ़ों की खुराफ़ात होगी
कल के लिये
जीने वालों पर
वर्तमान की ही घात होगी
सूखे खेत के
सपनों में तो
बादल होंगे, बरसात होगी
किस कदर सिकुड़ कर सोया है वह
फटी चादर की औकात होगी
चार
खेल दिखाएँ, उठो मदारी
खाली पेट जमूरा
सोया
चाँद उगाएँ, उठो मदारी
रिक्त हथेली, वही पहेली
फिर सुलझाएँ, उठो मदारी
अन्त सुखद होता है दुख का
हम समझाएँ, उठो मदारी
देख कबीरा भी हँसता अब
किसे रूलाएँ, उठो मदारी
चार
ज्वार पढ़ेगा सागर में फिर
लफ़्ज गढ़ूँ तब ज़रा देखना
दर्द जगेगा पत्थर में फिर
फिक्र अगर हो रोटी की तो
ख्व़ाब चुभेगा बिस्तर में फिर
अगर ज़रूरी है तो पूछो
प्रश्न उठेगा उत्तर में फिर
भले प्रेम के ढाई आखर
बैर उगेगा अक्षर में फिर
टिप्पणियाँ
जहाँ थी सम्भल जाने की बातें
फटी चादर की औकात होगी
पुस्तक के लिए विशेष बधाई और शुभकामनाएं
आशुतोष जी और अरुण जी ने शिल्प की तारीफ़ की है मगर मुझे कुछ अटकाव लगा
मेरी जानकारी में बहर ओ वज्न पर खरा उतरना शिल्प का मूलभूत होता है