मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ
मिथिलेश की कविताएँ इधर पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से दिख रही हैं. समकालीन कविता के शहराती परिवेश के बीच मिथिलेश ग्रामीण जीवन की स्मृतियाँ ही नहीं अपितु उसके साथ वहां की विडंबनायें और उपेक्षित रह जाने की पीड़ा लिए भी आये हैं. इस कठिन समय में टूटती किसानी के बीच एक निम्नवर्गीय ग्रामीण के जीवन के विविध पक्ष उनकी कविताओं में विन्यस्त हैं और एक ऐसे आत्मीय संसार की निर्मिति करते हैं, जहाँ मुक्ति के सामूहिक स्वप्न की एक विराट ज़िद हस्तक्षेपकारी भूमिका में पाठक के सामने आती है. असुविधा पर उनका स्वागत.
निर्जन वन में
यहां की लडकियां फूल तोडकर
भगवती को अर्पित कर देती हैं
वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भंवरें का मंडराना वे नहीं समझती हैं
किस्से की कोई किताब नहीं है इनके पास
ये अपनी मां के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं
इनकी दृष्टि पृथ्वी से कभी नहीं हटतीं
ये नहीं जानती कि उडती हुई चिडियां कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है
सिद्दकी चौक पर शुक्रवार को जो हाट लगती है वहां तक
यहां से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पायेंगी किसी राहगीर को
सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता
मैं जहां रहता था
मैं जहां रहता था
वहां की लडकियां गाना गाती थीं
आपस में बात करती हुईं वे
इतनी जोर से हंस पडती थीं
कि दाना चुगती हुई चिडियां फुर्र से उड जाती थीं
और उन्हें पता भी नहीं चलता था
मैं जहां रहता हूं
यहां का मौसम ज्यादा सुहावना है
लेकिन लडकियां कोई गीत क्यों नहीं गातीं
ये आपस में बुदबुदाकर क्यों बात करती हैं
किससे किया है इन्होंने न मुसकुराने का वादा
और इतने चुपके से चलने का अभ्यास किसने करवाया है इनसे
कि ये गुजर जाती हैं
और दाना चुगती हुई चिडियां जान भी नहीं पाती हैं
हिस्से में
इन्हें रंग धूप ने दिया है
और गंध पसीने से मिली है इन्हें
यूं तो धूप ने चाहा था
सबको रंग देना अपनी रंग में
इच्छा थी पसीने की भी
डूबो डालने की अपनी गंध में सबको
मगर सब ये नहीं थे
कुछ ने धूप को देखा भी नहीं
पसीने को भी नहीं पूछा कुछ ने
शेष सारे निकल गये खेतों में
जहां धूप फसल पका रही थी
बाट जोह रही थी पसीना
आदमी बनने के क्रम में
पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले
राधेश्याम का बेटा दीपवा
पढ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हांकने चल देता है
हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सून ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा
ओर बांस की फूनगी पर टांग दूंगा...
हालांकि पिता की खुशी
मेरे लिये सबसे बडी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे
आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूं
जिनको पता नहीं होता
ललटुनमा के बाउ
ललटुनमा की माई
आ खुद्दे ललटुनमा
तीनों जने की कमाई
एक अकेले गिरहथ की कमाई के
पासंग के बराबर भी नहीं ठहरता
आखिर क्यों
यह एक सवाल
ललटुनमा के दिमाग में
जाने कब से तैर रहा था
कि बाउ
आखिर क्यों
क्योंकि बिटवा
उनके पास अपनी जमीन है
और हम
उनकी जमीन में खटते हैं
और हमारी जमीन बाउ
बाउ को तो खुद्दे पता नहीं है
अपनी जमीन के इतिहास के बारे में
और आप तो जानते हैं
कि जिनको पता नहीं होता
उससे अगर सवाल किये जाये
तो वे चुप्पी साध लेते हैं
हम ही हैं
हम ही तोडते हैं सांप के विष दंत
हम ही लडते हैं सांढ से
खदेडते हैं उसे खेत से बाहर
सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं
खेत को अगोरते हुये
निहारते हैं चांद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं
देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर
हम कौन हैं कि करते रहते हैं
सबकुछ सबके लिये
और मारे जाते हैं
विजेता चाहे जो बने हो
लेकिन लडाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं
शुभ संवाद
कुछ शुभ संवाद मिले हैं अभी
ये चाहें तो थोडा खुश हो लें
पान खाये
पत्नी से हंस-हंस के बतियाये
दो टके का भांग पीकर
भूले हुये कोई गीत गाये
टुन्न हो अपने मित्रों को बताये
कि बचवा की मैट्रिक की परीक्षा अच्छी गयी है
वह कहता है कि बहुत अच्छा रिजल्ट भी आयेगा
गैया ने बछिया दिया है
और कुतिया से चार महीने पहले जो दो पिल्ले हुये थे
अब वे बडे हो गये हैं
और कल रात वह अकेला नहीं गया था खेत पर
साथ साथ दोनों पिल्ले भी आग-आगे चल रहे थे
कुतिया दरबज्जे पर बैठी चैकीदारी कर रही थी
मगर सोचने पर ढेर सारे तारे जमा हो जाते हैं
आंखों के सामने
कि गेहूं में दाने ही नहीं आये इस बार
दो दिन पहले जो आंधी आई थी उसमें
सारेे मकई के पौधे टूट गये
टिकोले झड गये
दो में से एक पेड उखड गये
महाजन रोज आता है दरबज्जे पर
कि गंेहूं तो हुआ नहीं
अब कैसे क्या करोगे जल्दी कर लो
बेकार में ब्याज बढाने से क्या फायदा
जानते ही हो कि बिटवा शहर में पढता है
हरेक महीने भेजना पडता है एक मोटी रकम
सुनो गाय को क्यों नहीं बेच लेते
वाजिब दाम लगाओगे तो मैं ही रख लूंगा
दूघ अब शुद्ध देता है कहां कोई
हे भगवान क्या मैट्रिक पास करके बचवा
पंजाब भाग जायेगा
बिटिया क्यों बढ रही है बांस की तरह जल्दी जल्दी
दूल्हे इतने महंगे क्यों हो रहे हैं
स्कूल तो था
बात ऐसी नहीं थी
कि लालपुर में स्कूल नहीं था
बात ऐसी भी नहीं थी
कि उसके दिमाग में भूसा भरा हुआ था
बात तो कुछ ऐसी थी
कि उसके घर का खूंटा टूट गया था
बहन बांस हो रही थी
और रात को मां की चीत्कार से
पूरे गांव की नींद खराब हो जाती थी
फिर यह भी एक दृश्य था
कि बीए पास लडका
लालपुर में घोडे का घास छील रहा था
ऐसे में एक रात अगर उसने घर छोड दिया
और पंजाब से पहली चिट्ठी में लिखा
कि मां अब मैं कमाने लगा हूं
चिट्ठी के साथ जो पैसे भेज रहा हूं
उससे घर का छप्पर ठीक करवा लेना
अब जल्दी ही तुम्हरे पेट का दर्द
और बहिन का ब्याह भी ठीक हो जायेगा...
...तो मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं
कि उसने अच्छा किया या बुरा
हालांकि लालपुर में स्कूल था
और उसके दिमाग में
भूसा भी भरा हुआ नहीं था
जैसे फूलकुमारी हंसती थी
मैं यह नहीं कहूंगा साहब
कि मैं एक गरीब आदमी हूं इसलिये
वो-वो नहीं कर पाता जो-जो
करने की मेरी इच्छा होती है
यह सच है साहब कि मैं एक फैक्ट्री में
सत्ताइस सौ रुपये माहवारी पर काम करता हूं
और सवेरे आठ बजे का कमरे से निकला
रात के आठ बजे कमरे पर लौटता हूं
पर इससे क्या
मैं शायद अकर्मण्य आदमी हूं साहब
अब कल ही की बात को लीजिये
रात में कमरे पर लौटा तो
बिजली थी
दिन में बारिश हुई थी इसलिये
हवा नहीं भी आ रही थी कमरे में तो नमी थी
खाट पर लेटा तो हाथ में
अखबार का एक टुकडा आ गया
लालपुर में पांचवी तक की पढाई कर चुका हूं साहब
अखबार के टुकडे में एक अच्छी सी कहानी थी
पढने लगा तो बचपन में पढे
फूलकुमारी के किस्से याद आ गये
कि जब वह खुश होती थी तो
जोर-जोर से हंसने लगती थी
कहानी पढने लगा
पढकर खुश होने लगा साहब
लेकिन तभी बिजली चली गयी
देह ने साथ नहीं दिया साहब
कि उठकर ढिबरी जलाता और
इस तरह खुशी को जाने से रोक लेता
और हंसता जोर-जोर से
जैसे फूलकुमारी हंसती थी
यहां से
सब की तरह
इन्हें भी फूलों को निहारना चाहिये
उसके साथ मुसकुराना चाहिये
चलते-चलते तनिक ठिठककर
कोयल की कूक सुनना चाहिये
और एक पल के लिये दुनिया भूलकर
उसी के सुर में सुर मिलाते हुए
कुहूक-कुहूक कर गाने लगना चाहिये
इन्हें भी हवा में रंग छिडकना चाहिये
वातावरण को रंगीन करना चाहिये
फाग गाना चाहिये
और नाचना चाहिये
लेकिन पता नहीं कि ये किस नगर के बाशिंदें हैं
और क्या खाकर बडे हुये हैं
कि खिले हुए फूल भी इनकी आंखों की चमक नहीं बढाते
कोयल कूकती रह जाती है
और अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर सुन-सुनकर
थककर चुप हो जाती है
वसंत आकर
उदास लौट जाता है यहां से
परिचय24 अक्टूबर,1982 ई0 को बिहार राज्य के सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म । वागर्थ, परिकथा, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कादंबिनी, साहित्य अमृत, बया, जनपथ, विपाशा आदि में अबतक बीस-पच्चीस कविताएं प्रकाशित। गद्य साहित्य में भी लेखन। बाल साहित्य में भी सक्रिय। गद्य व पद्य के लिए क्रमषः वागर्थ व साहित्य अमृत द्वारा युवा प्रेरणा पुरस्कार। कहानी कनिया पुतरा व् स्वर टन पर डाकूमेंट्री फिल्म बनने कि तैयारी , आजकल प्रभात खबर में संपादन डेस्क पर।संपर्क-द्वारा, श्री गोपीकान्त मिश्र,जिलास्कूल,सहरसा-852201, (बिहार)मोबाइल-09473050546
टिप्पणियाँ
सबको रंग देना अपनी रंग में
इच्छा थी पसीने की भी
डूबो डालने की अपनी गंध में सबको
......बहुत सुन्दर धुप के रंग की पसीने की आदिम गंध से महमहाती कवितायें,बधाई मिथिलेश जी,अशोक जी आपके चयन को साधुवाद
सभी कवितायेँ एक से एक बेजोड़ .
मिथिलेश जी को बधाई !
मिथिलेशजी को बधाई