नेहा नरुका की कवितायें
नेहा नरुका की कवितायें अभी बिलकुल हाल में सामने आई हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए दो तरह के ख्याल आते हैं- पहला यह कि कहीं ये अतिरिक्त सावधानी से अपनाई हुई विद्रोही मुद्रा तो नहीं है और दूसरा यह कि एक स्त्री के क्रोध को हमेशा उसकी मुद्रा या फिर उसके निजी अनुभवों से जोड़कर ही क्यों देखा जाय? कहानी में अगर कहानीकार अपने परिवेश से पात्र गढ़ने की आज़ादी लेता है तो कविता को हमेशा कवि का आत्मकथ्य क्यों माना जाय. मैं अभी इस सकारात्मक पक्ष के साथ ही होना चाहता हूँ. इन कविताओं में जो क्रोध है, जो विद्रोह है, जो तड़प है और मुक्ति की जो असीम आकांक्षा है वह हिंदी कविता ही नहीं समाज में ज़ारी स्त्री-मुक्ति आन्दोलनों से कहीं गहरे जुड़ती है. साथ ही इन कविताओं में जो एक ख़ास तरह की स्थानीयता भाषा और चरित्रों के आधार पर लक्षित होती है, वह इन्हें आथेंटिक ही नहीं बनाती बल्कि इस ग्लोबल होती दुनिया के बीच मध्यप्रदेश के एक पिछड़े सामंती समाज के लोकेल को बड़ी मजबूती के साथ स्थापित भी करती है. इस रूप में यह विद्रोह हवाई नहीं रह जाता बल्कि विकास की चकाचौंध में छूट गए समाजों की हक़ीक़त के साथ टकराते हुए एक बड़े सच को भी सामने लाता है. मैं इस कवियत्री को बहुत उम्मीद के साथ देख रहा हूँ और इसमें यह उम्मीद भी जोड़ रहा हूँ कि यह आवाज़ विमर्शों के पंचतारा शोर में खोने से खुद को बचाते हुए अपने समाज और समकालीन राजनीति की विडम्बनाओं को पुरजोर तरीके से सामने लाने और यथास्थिति का सार्थक प्रतिकार करने में पूरी प्रतिबद्धता से सन्नद्ध होगी.
बावरी लड़की
एक लड़की बावरी हो गयी है
बैठी-बैठी ललराती है
नाखूनों से
बालों से...,
भिड़ती रहती है
भीतर ही भीतर
किसी प्रेत से
चाकू की उलटी-तिरछी रेखाएं हैं
उसके माथे पर
नाक पर
वक्ष और जंघाओं पर
उभरे हैं पतली रस्सी के निशान
होंठों से चूती हैं
कैरोसीन की बूंदें
फटे वस्त्रों से
जगह-जगह
झाँकते हैं
आदमखोर हिंसा के शिलालेख
सब कहते जा रहे हैं
बाबरी लड़की
ज़रूर रही होगी
कोई बदचलन
तभी तो
न बाप को फिकर
न मतारी को
सुनी सुनाई
पते की बात है
लड़की घर से
भाग आयी थी
लड़का-लड़की चाहते थे
एक दूसरे को
पर यह स्वीकार न था
गांव की पंचायतों को
सो लड़का, लड़की को एक रात
भगाकर शहर ले आया
बिरादरी क्या कहेगी सोचकर
बाप ने फांसी लगा ली
मतारी कुंडी लगा के पंचायत में
खूब रोई
बावरी लड़की पर
पटरियों...ढेलों से होती हुई
लड़की मोहल्लों में आ गई
रोटी मांग मांग कर पेट भरती
ऐसे ही गर्भ मिल गया
बिन मांगी भीख में
बड़ा पेट लिए गली-गली फिरती
ईंट कुतरती
एक इज्जतदार से यह देखा न गया
एक ही घंटे में पेट उसने
खून बनाकर बहा दिया
और छोड़ आया शहर से दूर
गंदे नालों पर
कचरा होता था जहाँ
सारे शहर का
कारखानों का
पाखानों का
बावरी लड़की कचरा ही तो थी
सभ्य शहर के लिए
जिसमें घिन ही घिन थी
नाक छिनक ली
किस्सा सुनकर महाशयों ने
मालिकों-चापलूसों ने
पंडितों-पुरोहितों ने
और अपने अपने घरों में घुस गये
बाहर गली में
बावरी लड़की पर कुछ लड़के
पत्थर फेंक रहे हैं
‘कहाँ से आ गयी यह गंदगी यहाँ’
हो.. हो.. हो.. हो...
बच्चे मनोरंजन कर रहे हैं
जवान और बूढ़े भी
खिड़कियां और रोशनदान बंद कर
कुलीन घरों की लड़कियां
वापस अपने काम में जुट गईं
‘अरे भगाओ इसे-
जब तक यह...
यहां अड़ी बैठी रहेगी
तमाशा होता रहेगा’
एक अधेड़ सज्जन ने कहा..
पौधों में पानी दे रही उनकी बीबी
नाक-भौं सिकोड़ने लगी
‘कौन भगाए इस अभागिन को’
लड़की बावरी
खुद ही को देख-देख के
हँस रही है
खुद ही को देख-देख के
रोती है
सेकेंड दो सेकेंड
चेहेर के भाव बदलते हैं
गला फाड़ कर पसर जाती है
गली में ही
जानवरों की तरह
बावरी लड़की...
मर्द बदलनेवाली लड़की
मैं उन लड़कियों में से नहीं
जो अपने जीवन की शुरूआत
किसी एक मर्द से करती है
और उस मर्द के छोड़ जाने को
जीवन का अंत समझ लेती हैं
मैं उन तमाम सती-सावित्रीनुमा
लड़कियों में से तो बिल्कुल नहीं हूं
मैंने अपने यौवन के शुरूआत से ही
उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर
अलग-अलग मानसिकता के
पुरुष मित्र बनाए हैं
हरेक के साथ
बड़ी शिद्दत से निभाई है दोस्ती
यहां तक कि कोई मुझे उन क्षणों में देखता
तो समझ सकता था
राधा, अनारकली या हीर-सी कोई रूमानी प्रेमिका
इस बात को स्वीकार करने में मुझे
न तो किसी तरह की लाज है
न झिझक
बेशक कोई कह दे मुझे
छिनाल, त्रिया चरित्र या कुलटा वगैरह-वगैरह
चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए 'सभ्य' समाज के खांचे में
लगातार मिसफिट होती रही हूं
पतिव्रता टाइप लड़कियां या पत्नीव्रता लड़के
दोनों ही मान लेते हैं मुझे ‘आउटसाइडर’
पर मुझे इन सब की जरा भी परवाह नहीं
क्योंकि मैं उन लड़कियों में से नहीं
आलोचना और उलहाने सुनते ही
जिनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं
बहने लगते हैं हजारों मन टेसूए
जो क्रोध को पी जाती हैं
प्रताड़ना को सह लेती हैं
और फिर भटकती हैं इधर-उधर
अबला बनकर धरती पर
चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए मैंने वह सब देखा है
जो सिर्फ लड़कियों को सहेली बनाकर
कभी नहीं देख-जान पाती
मैंने औरतों और मर्दों दोनों से दोस्ती की
इस बात पर थोड़ा गुमान भी है
गाहे-बगाहे मैं खुद ही ढिंढोरा पिटवा लेती हूं
कि यह है ‘मर्द बदलने वाली लड़की’
यह वाक्य
अब मेरा उपनाम-सा हो गया है
चोर और बागी
उसे लगता है
वह एक चोर है
जो रहती है हरदम
एक नई चोरी की फिराक में
जब भी वह अपने शरीर को गहने
फैशन-एसेसरीज से सजाती है
मेकअप में लिपे-पुते होंठ
आंख, गाल, माथा और नाखून
उसे बेमतलब ही
चोर नज़र आते हैं
उसे लगता है
वह छिपाए फिरती है
इन सब में
‘कुछ’
उसे लगता है
घर में
कालोनी में
शहर में हर कहीं
सभी उसके पीछे पड़े हैं
क्या वाकई वह कोई चोरी कर रही है
उसे तो अमूमन यही लगता है
कि उसका भाई जो उसे टोकता है
पड़ोसी जो उसे देखता है
मां जो उसे डांटती है
बहन जो उसे घूरती है
ये सब उसे चोर समझते हैं
उसके पर्स में
किताब में ...
जो रखा है
उसकी डायरी में जो लिखा है
उसमें मन में जो घूमता है
यह सब चोरी का सामान
कहीं कोई देख न ले
पढ़ और समझ न ले
उसे लगता है
समाज की मान्यताओं को नकार कर
लगातार चोरी कर रही है
और ...
सजा से बचने के लिए
कभी-कभी वफादारी का दिखावा कर लेती है
फिर भी उसे महसूस होता है
आज नहीं तो कल ये सब लोग
कोई न कोई सजा तय करेंगे उसके लिए
नहीं, वह नहीं जिएगी
तयशुदा घेरे में बंधकर
चोर की अपनी सीमा होती है
वह सोचती है
उसे तो ‘बागी ’ होना पड़ेगा
बब्बुल की बहुरिया
बंद आंखें झुलसा चेहरा
रुक-रुक कर
रात गए जगाता है मुझे
नियति की जंजीर थामे
बेचैन हो बैठ जाता हूं
सोचता हूं...
तुम गांव में
कैसी होगी ‘बब्बुल की बहुरिया’
खाती-पीती होगी या नहीं
दिन-रात खटती रहती होगी
खेत की मेड़ पर,
सुबकती होगी लेकर मेरा नाम
सोचता हूं जरूर गांव में
कोई बात हुई होगी
अम्मा ने ही डांट न दिया हो कहीं
अबकी फागुन न पहुंच सका था
जरूर चटकी होगी
कलाई की कोई लाल चूड़ी
मुझे याद करके
मेरी तस्वीर से लिपट-लिपट
बहुरिया खूब फफकी होगी
गोरी-चिट्टी सत्रह साल की बहुरिया
गरीबी में दबी-दबी
गांव में कितना झुलसी है
आह!
आज रात एक बार और
वह फिर झुलसी होगी
एक बार और
बड़बड़ाई होगी...
अम्मा की रोटी
अम्मा लगी रहती है
रोटी की जुगत में
सुबह चूल्हा...
शाम चूल्हा...
अम्मा के मुंह पर रहते हैं
बस दो शब्द
‘रोटी और चूल्हा’
चिमटा...
आटा...
राख की पहेलियों में घिरी अम्मा
लकड़ी सुलगाए रहती है
धुएं में स्नान करती
अम्मा नहीं जानती
प्रदूषण और पर्यावरण की बातें
अम्मा तो पढ़ती है सिर्फ
रोटी...रोटी...रोटी
खुरदुरे नमक के टुकड़े
सिल पर दरदराकर
गेंहू की देह में घुसी अम्मा
खा लेती है
कभी चार रोटी
कभी एक
और कई बार तो
शून्य रोटी ।
टिप्पणियाँ
सिल पर दरदराकर
गेंहू की देह में घुसी अम्मा
खा लेती है
कभी चार रोटी
कभी एक
और कई बार तो
शून्य रोटी ।
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अच्छी कविताएँ। हालांकि मर्द बदलने वाली लडकी का तेवर और क्रोध कुछ ज़्यादा सा लगता है।
कह लेते हैं
जो महसूस
भी कर लेते हैं
अपने आस पास
बंद नहीं करते नाक
अगर आ भी
रही हो सड़ांध
कहीं दूर से भी !
या सिर्फ कविता जैसी दिखने के लिए ललित गद्य की पंक्तियों को तोड़कर लिखा गया है ?