चंद्रकांता की कवितायें
चंद्रकांता की कवितायें मैंने नेट पर ही इधर-उधर पढ़ी हैं. इस दशक में एक प्रवृति की तरह उभरी स्त्री आन्दोलन की तीक्ष्ण अभिव्यक्ति वाली कवितायें लिखने वाले स्त्री स्वरों के क्रम में ही चंद्रकांता एक तिक्त और स्पष्ट स्वर हैं. उनके यहाँ जो चीज़ विशेष ध्यानाकर्षित करती है वह है मध्य वर्ग से आगे जाकर सर्वहारा स्त्रियों के बीच उन समस्याओं और विडम्बनाओं को लक्षित करने की क्षमता. हालांकि उनकी संस्कृतनिष्ठता की तरफ झुकी भाषा कई बार इसमें व्यवधान पैदा करती है, लेकिन इनके तेवरों और पक्षधरता को देखते हुए यह उम्मीद की ही जा सकती है कि आने वाले समय में वह गंभीर वैचारिकता के साथ शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी और मानीखेज़ कवितायें लिखेंगी.
तुम्हारी धरोहर
1
मैं गुड़िया नहीं होना चाहती
नहीं खोना चाहती स्वत्व
निर्जीव गुड़िया
जो ना हंसती है
न मुंह खोल पाती है
जिसे समाज के
चिर-विक्षिप्त मान-दंडों पर
कभी मूक, कभी बधिर हो जाना पड़ता है
मुझे नहीं अधिकार
अपनें ही अस्तित्व पर
सभ्य समाज पाकर अधि-सूचना
मेरे वैदेही होने की
जारी कर देता है फ़तवा
गर्भ में अनुनय-विनय करती
मेरी प्रार्थनाएं भी
उसके शिला से हृदय को
पिघला नहीं पाती
और किसी तरह
विरोध की समस्त
काली-तीस्ताओं को
पार कर
यदि अवसर पाती हूँ
जनम लेने का
तब जीवन का प्रत्येक बसंत
बना दिया जाता है कारागृह नवीन
तुम्हारे धर्म की विषम खाद
मुझे पल्लवित-पुष्पित-गर्भित
नहीं होने देती
वसुंधरा की कोख़ में
और मैं नवजात
पीस दी जाती हूँ
तुम्हारे क्रूर हाथों से
संस्कारों के अंकगणित में
सिल और बट्टे के मध्य
नहीं खोना चाहती स्वत्व
निर्जीव गुड़िया
जो ना हंसती है
न मुंह खोल पाती है
जिसे समाज के
चिर-विक्षिप्त मान-दंडों पर
कभी मूक, कभी बधिर हो जाना पड़ता है
मुझे नहीं अधिकार
अपनें ही अस्तित्व पर
सभ्य समाज पाकर अधि-सूचना
मेरे वैदेही होने की
जारी कर देता है फ़तवा
गर्भ में अनुनय-विनय करती
मेरी प्रार्थनाएं भी
उसके शिला से हृदय को
पिघला नहीं पाती
और किसी तरह
विरोध की समस्त
काली-तीस्ताओं को
पार कर
यदि अवसर पाती हूँ
जनम लेने का
तब जीवन का प्रत्येक बसंत
बना दिया जाता है कारागृह नवीन
तुम्हारे धर्म की विषम खाद
मुझे पल्लवित-पुष्पित-गर्भित
नहीं होने देती
वसुंधरा की कोख़ में
और मैं नवजात
पीस दी जाती हूँ
तुम्हारे क्रूर हाथों से
संस्कारों के अंकगणित में
सिल और बट्टे के मध्य
2
यह टंकित की गयी
कोई सरकारी प्रतिलिपि नहीं
यह एक प्रबोध की
हस्तलिखित संवेदनाएं हैं
जो अभिव्यक्ति के स्वानुभूत
स्वरचित पथ पर
पंक्तिबद्ध हो
पारिजात की तरह अमरवृक्ष
हो जाना चाहती हैं
इस अमिय अभिलाषा में, कि
कभी तो मेरा भी आना
उत्सव होगा, मृदंग बाजेंगे
और दादी माँ
सवा मन बूंदी वाले पीले लड्डू
मोहल्ले भर में बाटेंगी
प्यारी माँ मुट्ठी भर बताशा
मुझ पर वार कर
मेरी भी बलैया लेगी
बाबा सुनो !
तुम दोगे ना अपनी तनया को
स्नेह की मीठी भु-र-भु-री थपकी
सदियों से स्रावित होती पीड़ा पर
गली-चौराहों पर
मेरी अस्मिता के फटे ढोल
नहीं पीटे जाएंगे
और नहीं बनाया जाएगा
कुछ चिथड़ों को
मेरे अस्तित्व का यक्ष प्रश्न
सुनो ! अम्मा
मेरे वक्षस्थल पर नहीं होगा भार
मान-सम्मान की
मैली-कुचली गठरी का
और मेरी योनि पर अधिष्ठित नहीं होगा
वह अभिमंत्रित लिंग
जो प्रतीक है पुरुष-प्रकृति की सन्निधि का
किन्तु जिसके भौतिक बिम्ब से
वर्चस्व की गंध आती है
बिरादरी की द्यूत-क्रीड़ा पर
हरी-भरी सभा में
दुर्योधन की जंघा पर
अब नहीं बैठाई जाएगी कृष्णा
पांडवों के आमोद-प्रमोद हेतु
मंदिर के प्रसाद की भांति
वह नहीं बांटी जाएगी
और दामिनी की खंडित देह पर
हितोपदेश के दाँव-पेंच नहीं खेले जाएंगे
मैं बेटी हूँ
तुम्हारी धरोहर
तुम्हारी ललनाओं का एक अंश
तुम्हारे क्षितिज का एक नाजुक छोर
और तुम्हारी चौखट का एक मजबूत स्तंभ
मुझे मेरे अस्तित्व का
प्रज्ज्वलित दीप
हिम की अभेद्य श्रृंखलाओं पर
जला लेने दो
जब नहीं रहूंगी
तो बुझ जाएगा जीवन गीत
रुद्ध हो जाएंगे सामजिक आचार
विलुप्त हो जाएगी सभ्यता
और प्रगति के समस्त चिन्ह एकालाप करेंगे
मैं बेटी हूँ
तुम्हारी धरोहर ..
***
कूड़ेवाली
कूड़ा बीनती
तरबूज़ सी मोटी आंखोंवाली
मतवाली
वह लड़की
जिसके दायें गाल पर तिल था
गंदगी से
छांटकर बचा-खुचा सामान
जूट की सस्ती
किचली-किल्लाती बोरी में
भरती जाती थी
पगली लड़की
ढीठी आँखों से
अपना जीवन चुनती थी
झाड़-पोंछकर सपनों को फिर
झोली में धर गिनती थी
एक दिवस
सांझ को सूरज ढले
बस्ती के सुनसान कोने में
एक पुरानी फैक्टरी के बिछौने में
लड़की का मन ठिठकाया
तांबे के
टूटे-फूटे तार देख उसका
भूखा मन ललचाया
कानों में दस रूपया खनका
और दीदों में राम हलवाई की
तीखी चाट उतर आई थी
सी sssss..s..s
अचानक
घात लगाए बैठा
एक भेड़िया आया
उसने अपने सख्त पंजों से
लड़की को धरा दबाया
नोचा !
आह्ह ..खरोचा !
अवसर मिलते से
सर पर रखकर पाँव
वह लड़की सरपट भागी
किन्तु, उधड़ गयी मैली कतरन भी
झाड़ी में फंसकर आधी
प्रकृति का
एक बासी फूल, पुनः
धूल पड़े मुरझाया
उसकी बुझी देह पर सबनें
अपना अपना दीप जलाया
कूड़ा बीनती
तरबूज़ सी मोटी आंखोंवाली
मतवाली
वह लड़की
जिसके दायें गाल पर तिल था
गंदगी से
छांटकर बचा-खुचा सामान
जूट की सस्ती
किचली-किल्लाती बोरी में
भरती जाती थी
पगली लड़की
ढीठी आँखों से
अपना जीवन चुनती थी
झाड़-पोंछकर सपनों को फिर
झोली में धर गिनती थी
एक दिवस
सांझ को सूरज ढले
बस्ती के सुनसान कोने में
एक पुरानी फैक्टरी के बिछौने में
लड़की का मन ठिठकाया
तांबे के
टूटे-फूटे तार देख उसका
भूखा मन ललचाया
कानों में दस रूपया खनका
और दीदों में राम हलवाई की
तीखी चाट उतर आई थी
सी sssss..s..s
अचानक
घात लगाए बैठा
एक भेड़िया आया
उसने अपने सख्त पंजों से
लड़की को धरा दबाया
नोचा !
आह्ह ..खरोचा !
अवसर मिलते से
सर पर रखकर पाँव
वह लड़की सरपट भागी
किन्तु, उधड़ गयी मैली कतरन भी
झाड़ी में फंसकर आधी
प्रकृति का
एक बासी फूल, पुनः
धूल पड़े मुरझाया
उसकी बुझी देह पर सबनें
अपना अपना दीप जलाया
***
भीख
1
1
चिथड़ों से झांकती
वह चितकबरी देह
फैलाकर हाथ खड़ी थी
भागती, सड़क के उस पार
होठों पर मैली मुस्कान
लिए, असमंजस की
उबड़-खाबड़ लकीरें
वह शीशे पर ठहर गयीं
सरपट दौड़ती उस मोटर-कार के
मैंने देखा !
उन दियासलाई सी आँखों
से गुमशुदा थे ख्वाब
पेट की भूख-प्यास
उसके नन्हें हाथों पर
ठेठ बनकर पर उभर आई थी
वह चितकबरी देह
फैलाकर हाथ खड़ी थी
भागती, सड़क के उस पार
होठों पर मैली मुस्कान
लिए, असमंजस की
उबड़-खाबड़ लकीरें
वह शीशे पर ठहर गयीं
सरपट दौड़ती उस मोटर-कार के
मैंने देखा !
उन दियासलाई सी आँखों
से गुमशुदा थे ख्वाब
पेट की भूख-प्यास
उसके नन्हें हाथों पर
ठेठ बनकर पर उभर आई थी
2
मैं भीख हूँ
धूल से लबरेज़
खुरदरे हाथ-पाँव
सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज
निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को
जिंदगी की कटी-फटी
चादर में छिपाती हूँ
मैं भीख हूँ
अपनी बे-कौड़ी किस्मत
खाली कटोरे में आजमाती हूँ
कूड़े करकट के रैन-बसेरों में
मैली-कुचली कतरनों को
गर्द पसीनें में सुखाती
ओढती-बिछाती हूँ
मैं भीख हूँ
आम आदमी की दुत्कार
पाती हूँ घृणा-तिरस्कार
फांकों में मिलता है बचपन
चिथड़ों में लिपटा आलिंगन
मैं नहीं जानती सभ्यता के
आचार-व्यापार, व्याभिचार
मैं भीख हूँ
ढीठ, फिर मुस्कराते हुए
निकल पड़ती हूँ
हर रोज सड़क पर
अकेली, भीड़ में
अपने हिस्से के छूट गए
मांगने को 'दो टुकड़े चाँद' के
धूल से लबरेज़
खुरदरे हाथ-पाँव
सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज
निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को
जिंदगी की कटी-फटी
चादर में छिपाती हूँ
मैं भीख हूँ
अपनी बे-कौड़ी किस्मत
खाली कटोरे में आजमाती हूँ
कूड़े करकट के रैन-बसेरों में
मैली-कुचली कतरनों को
गर्द पसीनें में सुखाती
ओढती-बिछाती हूँ
मैं भीख हूँ
आम आदमी की दुत्कार
पाती हूँ घृणा-तिरस्कार
फांकों में मिलता है बचपन
चिथड़ों में लिपटा आलिंगन
मैं नहीं जानती सभ्यता के
आचार-व्यापार, व्याभिचार
मैं भीख हूँ
ढीठ, फिर मुस्कराते हुए
निकल पड़ती हूँ
हर रोज सड़क पर
अकेली, भीड़ में
अपने हिस्से के छूट गए
मांगने को 'दो टुकड़े चाँद' के
***
गौरैया
आज सांझ के
प्रथम पहर में
अपने छज्जे से बाहर, मैंने
धरती की गोलाई नापते वक़्त
दूर तलक फैले विस्तृत क्षितिज़ को टोहा
पास के मैदान के
ठीक बीचों-बीच से
एक ठहरी हुई सड़क जाती थी
सड़क के उस पार
शहर के कुछ लड़कों का जमावड़ा
गेंद-बल्ले का कोई युद्ध मालूम होता था
कुछ फ़ील्डिंग में जुटे थे
और कुछ फील्ड को तोड़ने में
सर के ऊपर
खुला आकाश था नीला
और उसके नीचे फागुन का गीत
गाते, ऊंचे-नीचे क्रीड़ा करते पंछी
अचानक नीचे
जमीन पर निगाह हुई
इकठ्ठा हुए गंदे पानी में एक सिहरन थी
कुछ कम्पन की आवाज़ सुनी
उत्सुकतावश
मैं भी नीचे उतर आई
देखा गौरैया के दो अधपके बच्चे
बेजान गिरे पड़े थे पानी में
और झाड़ियों पर टूटा हुआ एक घोंसला
मैं सहमी
सहसा कुछ कौवों नें ध्यान खींचा
मैंने मन को भींचा
काँव-काँव करते शोक गीत गाते थे
या करते थे विजय का उत्सव गान
ठीक उसी क्षण
सूखे तिनके जैसा लड़का
कुछ ढूंढते हुए वहां आया
अचरज से देख मुझे, सकपकाया
और झाड़ियों से गेंद निकाली काली
मन बहुत व्याकुल हुआ
समझकर यह सारी क्रीड़ा
पहले कंक्रीट की ऊँचाईयों नें
फिर खेल के मैदानों नें
आह ! छीन ली हमसे
हमारे बचपन की दोस्त चीं-चीं करती गौरैया
***आज सांझ के
प्रथम पहर में
अपने छज्जे से बाहर, मैंने
धरती की गोलाई नापते वक़्त
दूर तलक फैले विस्तृत क्षितिज़ को टोहा
पास के मैदान के
ठीक बीचों-बीच से
एक ठहरी हुई सड़क जाती थी
सड़क के उस पार
शहर के कुछ लड़कों का जमावड़ा
गेंद-बल्ले का कोई युद्ध मालूम होता था
कुछ फ़ील्डिंग में जुटे थे
और कुछ फील्ड को तोड़ने में
सर के ऊपर
खुला आकाश था नीला
और उसके नीचे फागुन का गीत
गाते, ऊंचे-नीचे क्रीड़ा करते पंछी
अचानक नीचे
जमीन पर निगाह हुई
इकठ्ठा हुए गंदे पानी में एक सिहरन थी
कुछ कम्पन की आवाज़ सुनी
उत्सुकतावश
मैं भी नीचे उतर आई
देखा गौरैया के दो अधपके बच्चे
बेजान गिरे पड़े थे पानी में
और झाड़ियों पर टूटा हुआ एक घोंसला
मैं सहमी
सहसा कुछ कौवों नें ध्यान खींचा
मैंने मन को भींचा
काँव-काँव करते शोक गीत गाते थे
या करते थे विजय का उत्सव गान
ठीक उसी क्षण
सूखे तिनके जैसा लड़का
कुछ ढूंढते हुए वहां आया
अचरज से देख मुझे, सकपकाया
और झाड़ियों से गेंद निकाली काली
मन बहुत व्याकुल हुआ
समझकर यह सारी क्रीड़ा
पहले कंक्रीट की ऊँचाईयों नें
फिर खेल के मैदानों नें
आह ! छीन ली हमसे
हमारे बचपन की दोस्त चीं-चीं करती गौरैया
तम्बाकू की बेटी
सूखे मैदान में
घास के झुरमुटों के दायीं ओर
लोहे के कंटीले तारों से
ठीक तीसरे छोर
पड़े हुए बीड़ी के टुकड़े नें
ब-र-ब-स ही मेरा ध्यान खींचा
आख़िर किसने ?
सुलगाया होगा
तेंदू पत्ते में कई फोल्ड लिपटी
तम्बाकू की बेटी को
अरसे पहले रिटायर हो चुके
बु-द-बु-दा-ते हुए
किसी बुजुर्ग नें
बेंच के कोने पर बैठ
अपनें कांपते हाथों से
अपनी उम्मीदों को जलाया होगा ?
किसी अर्द्ध-डिग्रीधारक नौजवान नें
पैसे की तंगी को लेकर
अपनें खस्ताहाल सपनों को
जलती हुई बीड़ी के
नग्न पतंगों के बीच
तिल-तिल बुझाया होगा ?
गाँव की किसी ताई-अम्मा नें
पेट में उफनती
पुरानी कब्ज़ मिटाने को
लिए होंगे सुट्टे दो-चार
लगभग पैंतालिस डिग्री कोण पर
पताका को मुट्ठी में भींच ?
आज बैडमिंटन खेलते हुए
बेसुध पड़ी बीड़ी को देख
क्रीड़ा के आरोह-अवरोह के मध्य
यह ख़याल गु-ड़-गु-ड़ा-या
यहाँ बीड़ी जली थी
या जिंदगी के कुछ जाने-पहचाने चेहरे
*****************************************
परिचय
सुश्री चंद्रकांता स्वतंत्र रचनाकार एवं आयल आर्टिस्ट
हैं व दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं. वह ग्रामीण विकास और मानवाधिकार विषय
से परास्नातक हैं.
ब्लॉग : www.chandrakantack.blogspot.in
ई मेल : Chandrakanta.80@gmail.com
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टिप्पणियाँ
रचनाओं को यहाँ असुविधा पर स्पेस देने के लिए आपका मन से आभार.
तेवर तीखे हैं...इनमें जब जीवन के अनुभवों की समृद्धता शामिल होती जाएगी, तब चन्द्रकान्ता की कविता के कथन अधिक संतुलित, सान्द्र और प्रभावी होंगे..मेरी शुभकामनाएं।