श्वेता तिवारी की कविताएँ
श्वेता की कविताएँ हाल में ही कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. हालाँकि हिन्दी के विमर्श बोझिल काल में उनकी चर्चा अभी बहुत सुनाई नहीं दी है लेकिन उसके वजूहात श्वेता की कविताओं के भीतर और बाहर तलाशे जा सकते हैं. उनकी कविता में शोर की जगह संवेदना है और विमर्श की जगह विचार. कविता के बाहर उनकी सक्रियताएं वैसी नहीं हैं. न आभासी संसार में न ही वास्तविक संसार में. एक छोटे से कस्बे से निकलकर फिलहाल दिल्ली में रह रहीं श्वेता की कवितायेँ पढ़ते हुए आप एक स्त्री की दृष्टि से अपने आस पड़ोस के तमाम रोजमर्रा के चित्र देखते हुए उनके उस अनूठेपन की पहचान कर सकते हैं जो आमतौर पर अनदेखा, अनचीन्हा रह जाता है. भाषा और शिल्प के स्तर पर परिपक्व श्वेता का असुविधा पर स्वागत है और उम्मीद की उनकी कविताएँ हमें आगे भी लगातार पढने को मिलेंगी.
उनका अपना कहीं कुछ नहीं थातमाम आशाओं और स्वप्नों को
अपनी आँखों में सँजोए हुए
आए वो शहर
जो कृत्रिम रौशनी से लथपथ था
फिर भी
उनकी आँखें चुँधियाती हैं और घना अन्धेरा उनके जीवन में उतर आता है गाढा-काला दुर्गन्ध से भरे नाले के किनारे से बहुत मुश्किल होता है कुछ पल के लिए गुज़रना भी
बोरियों और पालीथीन के जोड़ से
बने हैं
इसी नाले किनारे इनके घर
इसी शहर में मिली
इतनी ही कामयाबी
कुल इतना ही सबूत है
फिलहाल
उनके पास
कि वे ढोते हैं मज़बूर ज़िन्दगी का पत्थर
खींचते हैं ठेले पर दुनिया की भूख का वज़न
मेहनत की नदी में नहाई उनकी काया है
जिन्हें ढोते हैं वे उन्हीं पत्थरों पर
वे पीसते हैं मसाले
इन्हीं पत्थरों पर रखा है
मिट्टी का चूल्हा
जिस पर बनाते हैं
भरपूर सुगन्धित सब्ज़ी और
भूख की आग पर सेंकते हैं सोंधी सोंधी रोटियाँ
निश्चिन्त सोते हुए परिवार संग इन्हीं पत्थरों पर
वे देखते हैं
जीवन के ब्रह्माण्ड में
झिलमिलाते स्वप्न
कई कई आकाशगंगाओं के पार
और उन तक पहुँचने के लिए
खटते हैं
दिन दिन भर ...
सपने फिर जन्म लेंगे
हाथ-बुने मोज़े-स्वेटर
के रेशे-रेशे में सँजोई
गुनगुने स्पर्श की गर्माहट
ढूँढती है नाज़ुक तुम्हारी देह
बेहोश होती है बार-बार मेरी काया
जब तुम्हारा मृत नन्हा शरीर
मेरी गोद में दिया गया तब
कुछ स्वर फूटे थे
गाया था मैंने शायद
लोरी थी या मर्सिया
होश नहीं
मेरी आस हुई पत्थर
ममता हुई मिट्टी
आषाढ का समुद्र है मेरी कोख
जो आँखों की नदी को पुकारता है
और
इस सपने के भरोसे जी रही हूँ
इस अनात्म संसार में कि सपने
फिर जन्म लेंगे।
अनुपस्थिति
तुम्हारी उपस्थिति का अतीत
तुम्हारी अनुपस्थिति में कहीं ज़्यादा करीब होता है
घेर लेती हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
जो बसी हैं मेरी हरक़तों में
ठहर-ठहर कर
इस अलबेली को देखती हूँ कौतुक से
यह मुझमें
तुम हो
मधुर संगीत के सुर की तरह
अनुभवों को बनाते हुए दर्शनीय
कभी-कभी जीवन में
आत्मा पर बने भित्ति चित्र
ज़्यादा अर्थपूर्ण हो जाते हैं
तुम्हारी अनुपस्थिति के विषम क्षणों में.… ।
दामिनी का बयान
हाथों में मसालों और स्याही गंध की भाषा का संतुलन है
पुरुषत्व अत्याचारी, मक्कार आवाज़ों के विरूद्ध
अचकनों का आन्दोलन है
परकटी उड़ानों से लेकर
सधे कदमताल के जूते हैं
समय के विशाल सुनहरे फ्रेम में मढ़े थे
उन्हीं स्त्रियों के नाम और चित्र
जिनकी गरिमा गरिष्ठ हाजमे के
क़ाबिल न लगी महापुरुषों को
इन सबके बावज़ूद
सामाजिक परम्पराओं से दबी
कोई प्राचीन आवाज़ कराहती है
she हीन तो है ही
मुझे माफ़ करना, पर हाँ
आज मैं कहूँगी she हीन है
दुनिया के किसी कोने में जबरन
छह सात लोगों से घिरी अकेली
घटी एक घटना है
वहशियत और शोषण की पीड़ा से
निचुड़ता रक्त का कतरा कतरा है
यातनाओं और दर्द के टुकड़े ठूंसते रहे
मुझ में
साक्ष्य है यह शरीर
मेरी देह हथकड़िया खोने को विकल है
चाहती हूँ
ऐसी घटना के लिए सारी दुनिया में
न आये ऐसा कोई दिन
किसी के सपनों और मुस्कुराहटों पर
न जमे राख
इस कातर उम्मीद के सिवा
बचता नहीं अब
कोई भी विकल्प
टिप्पणियाँ
मेरी तरफ से असुविधा को बधाई कि इतनी उम्दा कविताएँ पढ़ने का मौका मुझे मिला।
सादर,
प्रांजल धर
वे देखते हैं
जीवन के ब्रह्माण्ड में
झिलमिलाते स्वप्न
कई कई आकाशगंगाओं के पार
और उन तक पहुँचने के लिए
खटते हैं
दिन दिन भर ...
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अच्छी कविताएँ हैं, बधाई
आसपास का जायज़ा लेती, एहसासों को सहेजती
मानवीय संवेदनाएं है इन कविताओं में। श्वेता तिवारी जी हमारे वर्तमान समय की एक किस्सागो सी लगे अपनी इन कविताओं में … यहां जीवन का छद्म नहीं बल्कि एक भोगा हुआ संकुल यथार्थ है। अनात्म संसार का एहसास तो है पर सपने भी विश्वसनीयता से सने हैं…
सभी कविताएं सुंदर है । श्वेता जी की कविताएं भी आत्मा पर बने भिति चित्रों की सी है। यहाँ कातर उम्मीदें असमर्थताओं में भी पनपे।
हर कविता मन को छुए…हमसे संवाद करे…हमारी
संवेदनाओं को थपथपाए और झकझोरे भी । कविताएं श्वेता जी को अनूठी पहचान भी दे । और यह सच ही कहा गया है उनके लिए कि भाषा और शिल्प के स्तर पर वह परिपक्व है। श्वेता तिवारी जी के पास लेखन विधा है और
प्रभाव पूर्ण अभिव्यक्ति भी, बस उन्हें लिखते रहना है …
खींचते हैं ठेले पर दुनिया की भूख का वज़न
shaandaar rachnayeein hain... dhanyawaad