सत्यापन पर डा रोहिणी अग्रवाल
’आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’
’’बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान – रघुबर
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
हे पुरुष सिंह, तुम भी यह
शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम ही सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनंदन।’’
(राम की
शक्तिपूजा, निराला)
’’मौन और
मितव्ययिता के कथाकार कैलाश वानखेड़े। दलित अस्मिता को बिना किसी कुंठा,
प्रतिशोध और बड़बोलेपन के मनुष्योचित गरिमा से उकेरता उनका कहानी संग्रह ’सत्यापन’। अपनी छिनी
हुई जमीन आत्मविश्वासपूर्ण अधिकार से वापस लेने और उस पर तने आसमान में मुक्त उड़ान
भरने का साक्ष्य रचती हैं इस संग्रह की कहानियां - विशेषकर ’सत्यापित’,
’अंतर्देशीय पत्र’ और ’तुम लोग’। मानो सूत से
सूत कात कर कथा-वितान फैला रही हो बूढ़ी नानी,
और इतिहास अपनी करनी पर लज्जित माफी मांगता पीछे-पीछे चला आ रहा हो। इतनी
सूक्ष्म व्यंजकता, आब्जर्वेशन का
पैनापन और उद्देश्य की कलात्मक संश्लिष्टता - सचमुच अप्रतिम है।’’
कहानीकार कैलाश वानखेड़े के संग्रह ’सत्यापन’
को पढ़ने के तुरंत बाद लिखी टिप्पणी को एक लम्बे अंतराल के बाद निःसंग भाव से
पुनः पढ़ रही हूं और सोच रही हूं कि इतना भर यथेष्ट नहीं होता किसी रचना और रचनाकार
को जानना। रचना कुआं नहीं होती कि उसकी जगत पर खड़े होकर सतह पर ठिठके पारदर्शी जल
में अपने संवेगों और अपेक्षाओं की सूरत निहार कर संतुष्ट हो जाओ। साहित्य कुओं के
भीतर प्रवाहमान जल के अजस्र सोतों की तलाश में की गई सत्यान्वेषण की संश्लिष्ट
यात्रा है जो किसी मुकाम तक पहुंच कर सम्पन्न नहीं होती बल्कि हर मुकाम को अस्थायी
पड़ाव मान आगे ही आगे किसी अन्य गहन रहस्य की तलाश में निकल पड़ती है। प्रकृति और
मनुष्य के अंतर्मन के रहस्यों की पार कहां तक पा सका है कोई?
ये दोनों बाहर से जितने निरीह और सरल हैं,
भीतर से उतने ही जटिल, उलझे और अनंत।
एकदम वक्त की मानिंद जो अपनी क्रमिक गति में किसी को तेजी से सदियां फलांगता दीखता
है तो किसी को मलूकदास के अजगर की तरह आलस में अपनी ही परिधि पर ठिठका खड़ा। वक्त
की किताब बेआहट वरक पलटती चलती है और किसी को कानांेकान खबर नहीं होती कि काल-चक्र
के गोल-गोल घूमने, तेजी से आगे
बढ़ने या द्वंद्वग्रस्त स्थिति में पंेडुलम की तरह दाएं से बाएं,
बाएं से दाएं भटकने की प्रक्रिया शुरु हो गई है। सांसारिकता में लिप्त व्यक्ति
बस जीता चलता है और दुखिया दास कबीर जागते-रोते हुए वक्त को साक्षी भाव से शब्दों
की दुनिया में अमरत्व दे डालता है। लेकिन कबीर होना क्या इतना सरल है?
हर कलाकार कबीर होता तो व्यवस्था की पोषक ताकतों को अपने लिए भाट-चारणों का
हजूम क्यों आसानी से सुलभ हो पाता? कबीर होने का
अर्थ फक्कड़ वैरागी स्थितप्रज्ञ, जुझारु योद्धा
और मानतावादी होना भर नहीं है। कबीर होने का अर्थ है इन सब को रचनात्मक स्पंदन से
जोड़ वक्त की आहटों के भीतर छिपे नाद और लिखावट को समझना और ’लाल की उस
लाली’ में रंग कर नए मनुष्य की
रचना करना। जब तक कृति रचयिता के वर्चस्व और व्यक्तित्व को अपदस्थ कर स्वयं अपना
सिक्का न जमाए, तब तक
रचना-शक्ति से भरपूर रचना कैसे हो सकती है?
बेशक कसौटी कठिन है। तो भी मुझे इसी पर कैलाश वानखेड़े की
रचनाधर्मिता को कसना होगा। दलित लेखन की एक पूरी परंपरा निराला और प्रेमचंद के
मुकामों पर क्षण भर रुक कर जोतिबा फुले की रचनाओं पर आ टिकी है। लेकिन कलेजे की
हूक है कि कहीं ठहरने नहीं देती। मन बार-बार दौड़-दौड़ कर 73ई0 पू0 रोम के बाहरी
क्षेत्र में सूली पर टंगी अधजिंदा-अधखाई लाशों को एकटक निहार रहा है। गिद्धों के
झुंड के बीच खून और दुर्गंध से सनी लाशों को देख कर मितली नहीं आती। गर्म लहू लावा
बन कर इन लाशों को जिला देने के जनून में ढल जाना चाहता है। स्पार्टाकस जैसे हर
विद्रोही की रग में बह कर वह एक बार फिर अखाड़े में घुस जाना चाहता है। इस बार भूखे
शेरों के साथ निहत्थे दो-दो हाथ करने नहीं,
न ही अपनी जान बचाने के नाम पर अपने जैसे किसी ग्लेडिएटर को मार कर अभिजन समाज
की प्यासी आंखों और मुरादों को ठंडक पहुंचाने के लिए। इस बार वह अपमान,
तिरस्कार और मौत के खौफनाक दर्द को अपने आकाओं की आंख में उतार देना चाहता है।
न, यह प्रतिशोध का खूनी खेल
नहीं। दूसरे के पैर में फटी बिवाई के दर्द की सिहरन दौड़ा देने की मासूम चाहत है
ताकि वह दूसरा उसके पैरों की बिवाइयों के सदियों पुराने दर्द की लहर को महसूस सके।
’घायल की गति घायल जाने’
- मीरांबाई विद्रोहिणी हैं, दमनकारी नहीं।
फिर अज्ञेय भी तो कह गए हैं न कि ’दुख सबको
मांजता है’। सुख के सरोवर में गोते
लगाने वाला सूखी तलैया के दर्द को नहीं जान पाता जो अपने दरके सीने को उघाड़ देने
के बाद भी किसी से दो बूंद पानी नहीं ले पाती।
सचमुच, एक और कठिन
कसौटी ले आई हूं मैं। ’स्पार्टाकस’
की मर्मबेधी संवेदना, कलात्मक संयम
और वक्त को बुनती/वक्त के साथ बुनी जाती बीहड़ सच्चाइयों का दो टूक आख्यान। क्या
औदात्य के सारे प्रपंचों को तार-तार कर इस जमीनी क्रंदन को कैलाश वानखेड़े आंसुओं
में नहीं, आत्माभिमान की दर्प भरी
सर्जनात्मक लड़ाई में उकेर पाएंगे हावर्ड फास्ट की तरह,
जहां रचनाकार दृष्टिओझल हो जाता है? सामने रह जाता
है अपने ध्येय के लिए लड़ता स्पार्टाकस। न न,
प्रकाश-पुंज! जिसकी रश्मियों में है एकाग्रता,
दृढ़ता, निर्भीकता,
लक्ष्यगत स्पष्टता और मृत्यु को पराजित करती जिजीविषा। कृति इसीलिए तो ’रचना’
है कि रची जाकर वह रुद्ध और बिद्ध नहीं होती,
पल-पल बदलते वक्त के साथ अपने को रच कर नव्या बनी रहती है।
हावर्ड फास्ट भाग्यशाली हैं कि इतिहास ने उन्हें स्पार्टाकस
जैसा जांबाज ग्लेडिएटर दिया है और वक्त ने अपनी पुरानी फाइलों को खोल-टटोल कर
तिथियों में बंधे विद्रोह की सिलसिलेवार घटनाएं। कैलाश वानखेड़े के पास इतिहास नहीं,
पुराण आता है - कुछ पात्रों और आख्यानों के साथ। विद्रोह-कथा कहने नहीं,
उत्पीड़न को महिमामंडित करने के हुनर को लेकर। एकलव्य और बर्बरीक शौर्य और
न्यायप्रियता के प्रतीक में ढाल कर रास्ते से हटा दी गई शख्सियतें हैं जिन्हें
अपनी पीड़ा और आक्रोश के साथ सभ्य समाज के सामने उपस्थित होने की छूट नहीं दी गई।
शायद छूट न दिया जाना ही बेहतर रहा क्योंकि मनोहारी छल और प्रवंचना का शिकार होने
के बाद स्वयं अपने भीतर की छटपटाहट और कड़वाहट को कहने का मौका कर्ण की तरह मिलता
भी तो क्या कर पाते वे? क्या वे नहीं
जानते कि सूतपुत्र होने के गुनाह ने कर्ण के पराक्रम और आवाज दोनों का गला घोंटा
दिया था? वक्त के अंतरिक्ष से तैर
कर कैलाश वानखेड़े के पास पहुंची है एक हूक जिसे सवाल बना कर प्रस्तुत करते हैं वे
कि ’’जो हमें नहीं जानता,
नहीं पहचानता, वही हमें
सत्यापित करता है। उसी न जानने वाले के दस्तखत से हमें जाना जाता है। कभी-कभी लगता
है कि ये कौन हैं, कहां से आए
हैं जिनके पेन से ही तय होती है हमारी पहचान?’’
इसलिए अनायास नहीं कि उनके यहां सवाल की टंकार नायक का दर्जा पाती है और इस
प्रकार कथाकार के तौर पर वे कथा-संरचना की पहली रूढ़ि को अनायास तोड़ जाते हैं।
चूंकि सवाल उनका नायक है, इसलिए
कहानी-दर-कहानी असहमति और विरोध का सिलसिला आगे बढ़ाता हुआ विद्रोह में संघटित हो
जाता है - ’’इंतजार वाले अगर हाथ में
हाथ डाल कर एक चेन बना लें तो?’’
कैलाश वानखेड़े जानते हैं यदि सवाल नकार और दिशाहीनता की ओर
कदम बढ़ाने लगे तो प्रतिशोध में विघटित होकर अपनी अर्थवत्ता स्वयं खो बैठता है।
अपने से एक पीढ़ी पुराने सहयात्रियों की साहित्य-यात्रा का हश्र वे देख चुके हैं।
साथ ही पा चुके हैं यह ज्ञान कि मंडल-कमंडल के इर्द-गिर्द भुनगे की तरह मंडराते
आंदोलन राजनीतिक लाभ और सुर्खियां बटोरने की फौरी युक्तियां हैं,
सवालों के जवाब ढूंढने की क्रमिक अवस्थाएं नहीं। दरअसल सवालों के जवाब बाहर
से पाए ही नहीं जा सकते। उन्हें रोजमर्रा
की जिंदगी के बीचोबीच टंगे हुए देखना और जानना जरूरी होता है। अपमान की बिलबिलाती
मार के कारण भीतर भले ही वे निरीह हैं, लेकिन ’सबद की चोट’
और ’सबद’
के मर्म दोनों को समझते हैं। ’’शब्दों की मार
कितनी खतरनाक होती है - यह वही जान सकता है जिसने सही हो शब्दों से प्रताड़ना।
जिसके झुलस गए हों शबदों की आड़ में तमाम सपने। शब्दो,
तुम प्रताड़ना और पीड़ा के लिए क्यों हथियार बनते हो?’’
सवाल चूंकि नायक है और शब्द-लीला को खूब समझता है,
इसलिए सचेत होकर अपने व्यक्तित्व में एक मानवीय गुण तो भर ही लेना चाहता है कि
भाषा का असंयत, आक्रामक और
अश्लील प्रयोग वह न करे।
कैलाश वानखेड़े साहित्य के स्वतःस्फूर्त चरित्र में सजगता और
सचेतनता की बिनाई करना बेहद जरूरी समझते हैं। यह वह खूबी है जो प्रवंचना और दमन की
परंपरा को खत्म करने के लिए हिंसा और बहिष्कार की सरल-इकहरी कार्यशैली को नहीं
अपनाती, बल्कि चेतना को मनुष्य की
गरिमा में रूपायित कर संवाद की पहलकदमी करती है। वे जानते हैं ’’होने वाले
अपमान का विचार ही अपमापित कर देता है। होने के बाद तो वह पीड़ा से एकाकार हो जाता
है। चूंकि पीड़ा ’’गीली लकड़ियों की
तरह’’ कसैले धुएं और कड़वे आंसुओं
से मन के आंगन को भर देती है, इसलिए वे
परपीड़ा के साम्राज्य का विस्तार नहीं करना चाहते। एक शिष्ट-सौम्य दृढ़ता के साथ
अपने प्रतिरोध को दर्ज करते हैं - ’’जब मुस्कराहट
भरे मेरे चेहरे को क्लर्क ने देखा था तो वह परेशान हो गया था। दूसरों का हंसता
चेहरा खुशी नहीं देता ़ ़ ़ मेरा काम हो या न हो,
लेकिन क्लर्क से अभद्रता का बदला लेने की हसरत ने मुस्कराहट बढ़ा दी। गोया कोई
यंत्र लगा हो कि क्लर्क की परेशानी उसके चेहरे को बदरंग जा रही थी,
उतनी ही मात्रा में मेरे चेहरे को रंगीन बना रही। खेल अपने चरम पर आ गया।
उपेक्षा और उपहास क्लर्क को परेशान कर रहा था। धैर्य रखना है मुझे।’’
घनघोर असहनशीलता के युग में धैर्य रखने की सलाह पलायन या
सब्मिशन के लिए नहीं, एक स्ट्रैटजी
के तहत है। धैर्य चेतना को प्रखर बनाता है और अपनी सीमाओं-अपेक्षाओं को थहाने का
विवेक भी देता है। अपने अधिकारों को पाने की लड़ाई तब तक संभव नहीं जब तक मनुष्य के
रूप में आत्मादर का भाव अर्जित न करे व्यक्ति। व्यवस्था से विरोध है तो सबसे पहले
आंखों पर चढ़े व्यवस्था के चश्मे को तोड़ना होगा। घीसू,
रमुवा, गोबर,
चतुरी, कलुवा नामों में भी
वर्णव्यवस्था! मानो पुकारने के नाम व्यवस्था के कोड़े बन कर व्यक्तित्व पर बरसने
लगते हैं और फिर लद्दू खच्चर बना कर मनचाही जोत में जोतने के लिए प्रशिक्षित कर
देते हैं। सवर्ण समाज का संस्कार ही यदि सभ्य समाज है तो कैलाश वानखेड़े अपने
पात्रों को उसी जमीन पर उसी नाम-पहचान के साथ उतारते हैं - रत्नप्रभा,
प्रज्ञा, तेजस,
समर, असीम,
मिलिंद। यह दूसरों की जमीन को हथियाने या अपनी हथियायी जमीन को पाने की
रस्साकशी नहीं, सजग
आत्मविश्वास के साथ सबकी साझी जमीन पर सबके साथ चलने का अधिकार है। एक गहरी आंतरिक
इच्छा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति!
बेशक, व्यवस्था के
दबावों को ढहा देने की ताकत आ जाए तो अपने को एसर्ट करना सरल हो जाता है। ’’पैसा मिले,
नीं मिले, लेकिन बात तो
सीधे मुंह करनी चाहिए। वो तो मेरे को देखती और काटने लगती’’
- भौतिक लाभ की आकांक्षा नहीं, आत्माभिमान का
भाव। इस मोड़ पर आकर कैलाश वानखेड़े के सवाल-नायक के पास शिकायतें हैं,
असहमतियां हैं और मनोग्रंथियांे से उबर कर अपनी आवाज को पुल बनाने का जज्बा भी
है। उल्लेखनीय है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में अपने पात्रों को विन्यस्त करते
हुए कैलाश वानखेड़े जब जोतिबा फुले के सामाजिक आंदोलन को अंबेडकर के राजनीतिक
संघर्ष के साथ जोड़ते हैं, तब
वर्ण-व्यवस्था की अमानुषिकता अपने सांस्कृतिक संदर्भो के साथ पूरी तरह उभर कर
सामने आ जाती है। संवेदना की तरलता और आत्ममंथन की प्रखरता से सिरजे हुए हैं कैलाश
वानखेड़े के पात्र। व्यवस्था से टकराने से पहले अपने को सौ-सौ निगाहों से जांचने की
तदबीरें हैं ताकि पैरों तले की जमीन पोली होकर न दरके। ’हम’
और ’वे’
का विभाजन यदि इतनी स्पष्ट इबारत में समाज की स्लेट पर लिखा है तो क्या उसके
प्रति उत्पीड़ित वर्ग के विद्रोह के स्वर उसमें नहीं जुड़े होंगे?
फिर वे उसे अनदेखा कर ’तू तू’
’मैं मैं’ का रार क्यों बढ़ाए जा रहे
हैं? ’सत्यापित’
कहानी का वह मरियल सा आदमी भाऊ साहेब इंगले अड़ा है अपनी बात पर कि उसके गांव
चापोरा में कोई महारवाड़ा नहीं। वह बौद्धवाड़ा में रहता है और यही उसका स्थायी पता
है। फिर कैसे कोई नर्स (या सरकारी आदमी) उसके सत्य को झुठला कर उस पर अपना
मनोनुकूल सत्य चस्पां कर दे कि नहीं, उसकी पहचान है
- ’महारबाड़ा,
चापोरा’। उसका यह कृत्य महज एक
व्यक्ति द्वारा एक अन्य व्यक्ति की पहचान को बेदखल करना नहीं,
एक प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा इतिहास की किताबों में धधकती राजनीतिक चेतना को
दफन कर देने का षड्यंत्र है जिसने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी को
समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की संवेदना से सींचने का काम किया। दरिद्रता और अभावों
को अपनी नियति मान उनसे जूझने का हौसला रखता है भाऊ साहेब इंगले। डाॅक्टर द्वारा
दो दिन बाद दिखाने की टरकाऊ सलाह देकर उसकी गर्भवती पत्नी को हस्पताल में न भर्ती
किया जाना, रेलवे स्टेशन पर गर्भवती
पत्नी और मां के साथ इंतजार के दो दिन काटना;
दर्द से बिलखती पत्नी का अस्पताल के गेट के बाहर ही बच्चे को जन्म देना;
ट्रक लेकर गए भाऊ इंगले का चालान हो जाने पर मालिकों द्वारा कई-कई दिन छुड़ाने
की पहल न करना - भाऊ साहेब इंगले इन सब बातों को बदनसीबी के खाते में डाल कर सब्र
कर सकता है; लेकिन अपने लिए ’तुम लोग’
संबोधन नहीं सुन सकता। ’तुम लोग’
यानी समाज के शरीर से काट कर फेंक दिया गया कोई अनावश्यक या घृणित हिस्सा -
छिंगुली जैसा। यदि वह काट कर फेंक दिया जाने वाला ऐसा ही कोई घृणास्पद अंग है तो
क्या वह इस देश का नागरिक नहीं? यदि नागरिक है
तो उसके संविधान-प्रदत्त अधिकारों पर आक्रमण करने वाला व्यक्ति क्या दंडनीय नहीं?
उस व्यक्ति के पीछे यदि समूची व्यवस्था की ताकत है तो क्या वह व्यवस्था ही
कानून के कटघरे में न ले जाई जाए? ये इंगले के
सवाल नहीं, मंथन की क्रमिक कड़ियां
हैं। कहानी में शब्दबद्ध रूप में नहीं आतीं,
एक साफ पारदर्शी समझ के तहत शिकायत - असहमति और विरोध का सम्मिश्रित रूप - बन
कर आती है कि ’’मेरे को ये
बोलना कि वो नरस क्यों नीं मानती हमारी बात?
जो हम कहते, वो क्यों नीं
लिखती? क्यों नीं मानती हमारी बात
को सच्ची? वो तय करती हे कि क्या
लिखना है। किसने दिया है ये हक किसने?’’
मैं यहां अनायास थम जाती हूं। न रिरियाहट,
न खिसियाहट, न तिल-तिल दम
तोड़ने की व्यर्थता। मरियल से भाऊ साहेब इंगले में इतना दम कि निश्चयात्मक दृढ़ता के
साथ उस ’रुके हुए आदमी’
को रुकने को कह कर अपनी शिकायत दर्ज कराने हाशिए से मुख्यधारा में प्रविष्ट हो
जाए। भाऊ साहेब इंगले क्या जोतिबा फुले हैं या उनकी कहानी ’तृतीय रत्न’
का पात्र जोगाई, जिसने सपत्नीक
जोतिबा फुले की रात्रिशाला ज्वाइन कर दमन और अन्याय के इतिहास की बारीक समझ और
क्रांति की संतुलित चेतना अर्जित कर ली है?
लेकिन उससे पहले तो वह निरा गंवार है - यदि गंवार को अंधविश्वासी,
कर्मकांडी, धर्मभीरु,
बेवकूफ अर्थ में संकुचित कर दें, तो। गर्भस्थ
शिशु की विपरीत ग्रह दशा का डर दिखा का ब्राह्मण ज्योतिषी जोशी इस मूर्ख दम्पत्ति
से उसकी कुल संपत्ति ही नहीं ठगता, वरन् तेईस
ब्राह्मणों को घी-रोटी का भोज कराने की अनिवार्यता दिखा उन्हें महाजन के कर्ज तले
भी झोंक देता है। दूसरों की आह-कराह से उसे क्या?
उसकी अपनी पांचों उंगलियां घी में होनी चाहिए और सिर कड़ाही में। ठीक कहता है
विदूषक (क्या यह विदूषक जोतिबा फुले नहीं जो ब्राह्मण और कुनबी दम्पत्ति की बातचीत
को परिप्रेक्ष्य देने स्वयं कथा में उपस्थित होते रहते हैं?);
कि ’ब्राह्मणों ने अपने मन से
ग्रहों को पैदा किया है, लेकिन अपने
अज्ञान में मग्न कुनबी दम्पत्ति को उन ढोंगियों की बातें उपदेश सरीखी लगती हैं।
ब्राह्मण ’मैं’
और ’वह’
के भेद को ब्रह्म-विधान के रूप में तर्कसंगत ठहराते हैं;
और कुनबी दम्पत्ति बिना विचार किए उस फर्क को अंगीकार करते हुए कोने में
सिकुड़ते चलते हैं। इतना अधिक कि आत्मानादर और आत्मपीड़न जिस अनुपात में उनका स्वभाव
बन गया है, उसी अनुपात में ब्राह्मणों
की पूजा करना उनका धर्म। इसलिए एक ठंडे स्वीकार के साथ उस फर्क को गहराने में अपना
योगदान भी दिए चलते हैं कि ’’हम लोग केवल
भेली के पानी के साथ रोटियां खाते हैं’’, उनको ’’खटाई की तरह
पेट भर के घी खाने को चाहिए।’’
मुझे जोगाई और उसकी पत्नी में कभी जोखू और गंगी (प्रेमचंद
की कहानी ’ठाकुर का कुआं’
के पात्र) दिखाई देने लगते हैं, कभी दुखी चमार
और उसकी पत्नी झुरिया (सद्गति)। ’हम’
और ’वे’
का विभाजन समाज में विषमता का प्रसार ही नहीं करता,
दोनों पक्षों से ’मनुष्य’
होने की पहचान छीन लेता है। एक पक्ष को आतंक,
त्रास और हैवानियत का प्रतीक बनाता है तो दूसरे पक्ष को भय और अभाव से सिहरती
पिंजर काया। ’ठाकुर का कुंआ’
कहानी सिनेमोटोग्राफी इफेक्ट के साथ आंख के सामने घूमने लगी है। आखिरी दृश्य
में कुएं की चरखी से रपट कर कुंए के पानी में छप्प से औंधे मुंह जा गिरी बाल्टी
अपनी सांसें बचाने के लिए डुब्ब-डुब्ब पानी में डूब-उतरा रही है। आत्मरक्षा के
प्रयास में इतना शोर कि दूर-दूर तक पसरी रात की निस्तब्धता जाग कर पांचों
इन्द्रियांे समेत पानी-चोर को तलाशने लगी है। गंगी के भीतर का आतंक बाहर रात के
अंधेरे में और भी घनघोर हो गया है। उसके अपराध-बोध ने उसकी मानवीय इयत्ता को ’चोर’
में तब्दील करते ही ठाकुर को खुर्राट हवलदार के बेपनाह हक सौंप दिए हैं। गंगी
की भय-कातरता ठाकुर की ताकत है। ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण के द्वार के बाहर दुखी
की लाश को घेर कर चमारटोले की स्त्रियों का छातीकूट रुदन और धोती में मुंह छुपाए
पड़े पुरुषों का पलायन न ब्राह्मण महाराज की सफेदी को दागदार कर पाता है,
न किए गए अन्याय की कैफियत देने को मजबूर कर पाता है। अपने आदर्श स्वरूप में
साहित्य पाठक के पूर्वाग्रहों को तोड़ कर उसे अधिक संवेदनशील और मननशील बनाने का
दावा करता है, लेकिन सत्य यह
है कि संस्कारों के खोल में बंद पाठक के एक बड़े वर्ग को वह अपनी जमीन से रंच भर भी
हिला नहीं पाता। इसलिए जब-जब इस पाठक वर्ग के संस्कारों को चोट लगती है,
वह ’लिहाफ’
(इस्मत चुगताई) या ’खोल दो’
(मंटो) के बहाने कोहराम मचाने लगता है। गिद्ध-कौओं के सुपुर्द करने के लिए दुखी
चमार की लाश को घसीट कर ले जाता पं0 घासीराम उसके
भीतर के अभिजात दंभ का मूक समर्थन पाकर वर्णव्यवस्था को बदल डालने की टंकार नहीं
बनता।
मैं अनायास चौंक जाती हूं। यह जो साहित्य को समाज का दर्पण
कहने की परंपरा चली आ रही है, वह क्या महज
इस तथ्य को प्रतिपादित करने के लिए कि व्यवस्था के वर्चस्व के बरक्स हाशिए पर धकेल
दी गई अस्मिताओं की नतशिर स्थिति ही सनातन सत्य है?
अपने पाले में दुबक कर नतशिर रहें तो पालतू बना सकने वाली पशु-प्रजातियों के
रूप में आइडेंटिफाई कर उन्हें कृपापूर्वक ’भालू-वानर’
नाम दे दिया जाता है, अन्यथा अपनी
मनुष्य अस्मिता की लड़ाई के लिए बराबर के दमखम के साथ ललकारने लगें तो ’राक्षस’
कह कर ’अ-मनुष्य’
साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती। मजबूत दावों के बावजूद साहित्य का
सृजन/पाठ अखंड समग्र मनुष्य की परिकल्पना के जरिए नहीं होता। रचनाकार/पाठक देश-काल
में अपनी सुनिश्चित पोजीशनिंग के साथ परतों के भीतर छिपे अर्थ को पकड़ता-गुनता-संप्रेषित
करता है। पोजीशनिंग ही किसी रचनाकार को जोतिबा फुले बनाती है और दूसरे को प्रेमचंद
या निराला। एक की रचनाओं में आग और गति का तूफान लाती है,
दूसरे की रचनाओं में आंसुओं के सैलाब के साथ निराशा-हताशा और जड़ता का घटाटोप।
प्रेमचंद जिस बिंदु पर अपनी कहानियां खत्म करते हैं,
कैलाश वानखेड़े वहीं से अपना कथा-वितान बुनना शुरु करते हैं - नितांत दूसरी
दिशा में घूमते हुए। जोतिबा फुले मानो दोनों की दृष्टियों का समाहार कर शोषण और
विभाजन की क्रूर व्यवस्था को अथ-इति की क्रमिक पड़ताल के साथ साक्षात् कर देना
चाहते हैं।
सृजन की अनेकायामी संभावनाओं के धनी कैलाश वानखेड़े की
कहानियों का एकल पाठ मेरे लिए संभव नहीं, और समकालीन
हिंदी दलित लेखन परंपरा में रख कर मैं उन्हें समझना नहीं चाहती। शायद इसलिए कि
अपनी ही परंपरा से बहुत दूर जाकर वे प्रयासपूर्वक स्वयं को उसके प्रभाव,
लक्ष्य और शैली से मुक्त करने में जुटे हैं क्योंकि जानते हैं ’ठोस सामाजिक
संदर्भों का बयान करने वाली कहानियां अक्सर ’अन्य’
को प्रतिपक्ष में खड़ा करने या खुद प्रतिपक्ष बनने की चेष्टा तक सीमित हो जाती
हंै।’’ कैलाश वानखेड़े की ताकत
उनके अनुभव नहीं, विवेक की सान
पर चढ़ा कर जीवनानुभवों को अंतर्दृष्टि में विकसित करना है ताकि नैतिक मूल्यों का
क्षरण करती हर बेहयाई को सवाल के कठघरे में खींच कर लाया जा सके। प्रेमचंद के लिए
साहित्य यथार्थ का यथातथ्य चित्रण हो सकता है,
कैलाश वानखेडे के लिए नहीं। यथार्थ की खुरदरी जमीन को सर्वग्रासी दलदल में
विघटित करती ताकतों के साथ उन्हें लोहा लेना है,
इसलिए वे मुझे जोतिबा फुले के नजदीक जान पड़ते हैं। फर्क इतना है कि
चिंतक-सुधारक फुले के पास सर्जनात्मक कौशल जरूरत भर नहीं है। कैलाश वानखेड़े की तरह
एक संयत संजीदगी के साथ आक्रोश और जुगुप्सा को धधकते ज्वालामुखी में ढालना वे नहीं
जानते। लेकिन कहन की कसक को हर तरह की सपाटबयानी से बचा ले जाकर मिशन में ढालने का
हुनर तो जानते ही हैं। फुले के जोशी जी (तृतीय रत्न) प्रेमचंद के पं0 घासीराम
(सद्गति) और विप्रजी महाराज (’सवा सेर गेहूं’)
जितने क्रूर नहीं हैं, लेकिन फिर भी
फुले उन्हें बख्शने केा तैयार नहीं। प्रेमचंद की तरह विदीर्ण हृदय के साथ वे रोने
नहीं बैठते, ब्राह्मण वर्ग की क्रूरता
को शब्दों में बांध कर जन-जन तक पहुंचा आने का जतन करते हैं। विदूषक की भूमिका में
मानो हर एक को बता कर वे उसकी सहमति भी बटोर लेना चाहते हैं कि ’’साहूकार भी
कर्ज देकर सुविधा से किस्त के हिसाब से पैसा वसूल करते हैं,
लेकिन जोशी जैसे लोग यमराज की तरह पीछा करके बड़ी बेसब्री से लेते हैं;
कि नहीं?’’ (जोतिबा फुले रचनावली,
भाग 1, पृ0
30) यह फुले की रचना-शैली की पहली पायदान है। उनका आत्यंतिक लक्ष्य उपदेश देना
नहीं, पहले जोगाई जैसे दलितों का
उद्बोधन करना है और फिर उन्हें जुझारु रणबांकुरों के रूप में प्रशिक्षित करना।
फुले के पास अपना पक्ष मजबूत करने के लिए न कोई कानून है,
न संविधान। है तो मनुवादी शास्त्र जो उनके हौसलों को पस्त करने का बीड़ा उठाए है।
इसलिए पादरी (अंग्रेजी राज के कानूनों, कल्याण-कार्यक्रमों
और सुविधाओं का पुंजीभूत रूप) के पास जाना उनकी मजबूरी है जो समानता के साथ-साथ
शिक्षा का आलोक देकर उनके भीतर की हीन ग्रंथियों और अपराध बोध को खत्म करने का
प्रयास करता है। शिक्षा का प्रसार समाजसुधारक फुले का बुनियादी एजेंडा है। इसलिए
वे विद्रोह को आवेशजनित तोड़-मोड़ में नहीं,
वैचारिक क्रांति के जरिए लाना चाहते हैं। फुले कथा का क्रमिक विकास करने की
कला नहीं जानते, कथ्यगत अभीष्ट
को संप्रेषित करना जानते हैं। इसलिए जोशी जी के चंगुल में फंस कर अपने आपको जिबह
करता जोगाई पादरी के सान्निध्य में मानो अपना अंतर्मन खोलने लगता है। कीड़े की तरह
रेंगती अमानुषिक परिस्थितियों के बीच सुरक्षित वर्तमान और बेहतर भविष्य की कामना -
जोगाई सोलहों आने आम आदमी जैसा आदमी है। ’’बड़ी-बड़ी
प्रतिष्ठा पाने वाले लोगों को जब हम अपनी आंखों से देखते हैं,
तब हमारे मन में पढने की भावना क्या जागती नहीं होगी?
नहीं नहीं, हमारे मन में
हमेशा यह आता है कि हमको भी विद्वान होकर तहसीलदार तो होना ही चाहिए,
लेकिन यहां के ब्राह्मण पंडितजी के षड्यंत्र को आप क्या कहेंगे?’’
(महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, भाग 1 पृ0
40) कौन कहता है जोगाई ऐतिहासिक चेतना से सम्पन्न नहीं?
उसके इस सवाल में क्या वे तमाम अंतध्र्वनियां नहीं गुंथीं जो वेद-पाठ की कौन
कहे, वेद-श्रवण के अपराध में
कानों में गर्म पिघला सीसा उंडेल देने की परंपरा की साक्षी रही है?
ऐसे में जब वह भगवान की मूर्तियों को तहस-नहस करके ईश्वर और ब्राह्मण दोनों के
अस्तित्व को धूल में मिला देने का आह्वान करता है,
तब वह कथा-चरित्र के रूप में भले ही अविश्वसनीय जान पड़े,
लेकिन ’सत्यशोधक समाज’
की रचना की पक्षधरता तो कर ही जाता है। उसके विद्रोह में यदि फुले के विद्रोह
की स्वतःस्र्फूतता, दिशा और
प्रखरता है तो महज इसलिए कि वे साहित्य को सचमुच मशाल बनाना चाहते हैं। विभीषिका
को ’नाइटमेयर’
बनाने से निष्क्रमण के रास्ते नहीं खुलते। गंगी की असहायता को विकल्पहीनता का
पर्याय बना कर प्रेमचंद कठिन-कठोर यथार्थ का संश्लिष्ट चित्रण अवश्य कर पाते हैं, व्यवस्था की जड़ता और शठता को तोड़ कर जीवन का स्पंदन नहीं बिखेर पाते। निराला
के पास भी, प्रेमचंद की तरह,
अपने पात्रों को देने के लिए सहानुभूति है,
लेकिन वे उनके भीतर उबलते असंतोष को देख भी पाते हैं,
और उसे निष्कृति का मार्ग भी सुझाते हैं। जोखू,
दुखी, घीसू-माधव,
शंकर और हल्कू से काफी अलग है चतुरी चमार। न उतना जड़,
न उतना अज्ञानी, न आत्मसंतुष्ट,
न निर्लिप्त, न भाग्यवादी,
न गैर जिम्मेवार। वह अपने दर्द की जाति भी जानता है और विद्रोह की औकात भी।
जमींदार के सिपाही को हर साल एक जोड़ा जूता बेगार में देना उसकी मजबूरी है,
लेकिन मुफ्त में अपने श्रम को ’भेंट’
दे देने की कसक इतनी इतनी तीखी है मानो अपनी ही देह के चाम का जूता बना कर
बेगाने पैरों में पहना दिया हो। अपनी सीमाओं को जानता है,
इसलिए बेटे को पढ़ा-लिखा कर ’आदमी’
बनाना चाहता है। लगान-डिगरी के खिलाफ अपने दम पर मुकद्दमा लड़ने का जज्बा है
उसमें। सब कुछ गंवा कर अब क्या संभाल लेगा वह?
हालात बदतर हो जाएं तो जमींदार कुर्की करा कर क्या ले जाएगा उससे - ’’छेदनी-पिरकिया
आदि (जूता गांठने के औजार) मालिक ही ले लें’’। (निराला
रचनावली, भाग 4 पृ0
369) सब कुछ भूल कर कानूनी लड़ाई लड़ने के बावजूद रह-रह कर बेगार की कचोट उसे
तिलमिलाती है। जब उसका बनाया जोड़ा दो साल मजे में चल जाता है,
तब सिपाही भगतवा और पंचमा से भी हर साल जूता क्यों ऐंठता है?
ज्यादा लेकर कोई चमड़े की बरबादी क्यों करे?
उपहास को सांत्वना में ढाल लेखक ने उसे शांत करने की कोशिश की है - ’’चतुरी,
इसका वाजिब-उल-अर्ज में पता लगाना होगा। अगर तुम्हारा जूता देना दर्ज होगा,
तो इसी तरह पुश्त-दर-पुश्त तुम्हें जूते देते रहने पड़ेंगे।’’
चतुरी शांत नहीं हुआ, उद्विग्न हुआ
- यह जानने के लिए कि ’अब्दुल-अर्ज’
में उसकी देनदारी के रूप में क्या-क्या दर्ज है?
निराला कथा में स्वयं कुछ नहीं कहते, धर्मशास्त्रों
पर टिकी समाज-व्यवस्था के आधार को खिसका कर दुखी चतुरी के चेहरे पर विजय की हंसी
पोत देते हैं - ’’काका,
जूते और पुरवाली बात अब्दुल-अर्ज में दर्ज नहीं है।’’
जाहिर है चतुरी की अपने खेत बचाने की लड़ाई अंत तक आते-आते वजूद की जमीन बचाने
की लड़ाई बन जाती है। संयम और तटस्थता निराला की विशेषताएं हैं। जोतिबा फुले की तरह
वे अपने पात्रों की लड़ाइयां खुद नहीं लड़ते। मुक्ति की आकांक्षा निराला का
जीवन-संघर्ष है। इसलिए प्रेमचंद की तरह रोते-धोते हुए वे अपने पात्रों को व्यवस्था
की दीवारों के बीच जिंदा दफ्न किया जाता नहीं देख सकते। वे जानते हैं विद्रोह के
लिए जज्बा होना जितना जरूरी है, उतनी ही जरूरी
है अपनी कमियों की तीखी पहचान। तमाम सदिच्छाओं के बावजूद चतुरी को विद्रोही नायक
का दर्जा देने में संकोच कर जाते हैं निराला - ’’वह एक ऐसे जाल
में फंसा है जिसे वह काटना चाहता है, भीतर से उसका
पूरा जोर उभड़ रहा है, पर एक कमजोरी
है जिसमें बार-बार उलझ कर रह जाता है।’’ (निराला
रचनावली, भाग 4 पृ0
363)
निराला की सहानुभूति में यथास्थितिवाद का पोषण नहीं। वे
स्वयं विद्रोही हैं, अतः जानते हैं
विद्रोह भीतर की अंतःप्रेरणा से सार्थक होता है,
तश्तरी में परोस कर उसे ज्यादा देर तक टिकाए नहीं रखा जा सकता। इसलिए
संभावनाशील नायक को रच कर वे उसे अपनी कमजोरियों का संज्ञान कर लेने की डगर पर खुद
निकल पड़ने को कहते हैं। बेशक यह कमजोरी अशिक्षा है जो अंधविश्वास के साथ-साथ
हठधर्मिता, भाग्यवाद,
जड़ता और आत्मतुष्टता को भी ले आती है। शिक्षा अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का
संग्रह भर नहीं है, अपने और
व्यवस्थाओं के अंतःसम्बन्ध को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने की तमीज
है। यह ऐसा बिंदु है जहां प्रेमचंद को पीछे छोड़ फुले,
निराला और कैलाश वानखेड़े एकमेक हो जाते हैं। प्रेमचंद इन्वाॅल्व हुए बिना
समाज-सत्य का जो शब्द-चित्र अपनी कहानियों में उकेरते हैं,
निराला उससे सहमत भी हैं, और असंतुष्ट
भी। लेकिन जहां ’’चमार दबेंगे,
ब्राह्मण दबाएंगे। दवा है, दोनों की जड़ें
मार दी जाएं, पर यह सहज साध्य नहीं।’’
(निराला रचनावली, भाग 4 पृ0
366) कह कर निराला सवर्ण वर्ग
का प्रतिनिधित्व करते हुए वस्तुस्थिति से असम्पृक्त हो जाते हैं,
वहीं कैलाश वानखेड़े दलित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में अपनी असहमतियों को
दृढ़तापूर्वक रखते हैं कि ’’हम नहीं कह
सकते हैं वैसा का वैसा जैसा तुम सोचते हो। हम नहीं मान सकते हैं कि जो तुम कहते हो,
वह सच है। तुम्हें लगता है हम भी तुम्हारी तरह सोचें और रहें। अगर न कह पाएं
तो तुम कहते हो, हमारे में
सौन्दर्य-बोध नहीं है।’’ दृष्टि का
फर्क जिस तरह प्रेमचंद को निराला से, निराला को कैलाश
वानखेड़े से अलग करता है, उसी तरह ’सलाम’,
पच्चीस चैका डेढ़ सौ’ आदि कुछ
कहानियों को छोड़ दें तो कैलाश वानखेड़े दलित-लेखन परंपरा से विच्छिन्न हो अपनी जमीन
खुद तैयार करते दीखते हैं। उनकी रचनाओं में आक्रोश दूसरों के दामन पर थूकने की ओछी
हरकत बन कर नहीं आता, आत्म-पड़ताल की
कठिन साधना बनता है जो पहले अपने भीतर पसरे ब्राह्मणवाद और सामंतवाद को उखाड़ डालना
चाहता है। बेशक वे मानते हैं कि’वर्ण-व्यवस्था
खापा (फसल काटने के बाद पौधे का नुकीला हिस्सा जो खेत में रह जाता है) की तरह पैर
में धंस कर शरीर को बुरी तरह जख्मी कर देती है,
और इसलिए ’खापा’
को भूसा बनाने का स्वप्न पालते हैं। लेकिन इसके लिए वे आरोपों-प्रत्यारोपों की
मार के साथ प्रतिपक्षी की अस्मिता को रौंदने का मारक रास्ता नहीं चुनते,
साझी सहभागिता के साथ संवाद का पुल बना लेना चाहते हैं।
तीन विशिष्टताएं जो कैलाश वानखेड़े को दलित-लेखन परंपरा के
मौजूदा स्वरूप से अलगाती हैं, वे हैं -
असहमतियों और विरोध को संगठित मोर्चे का रूप देकर अपनी आकांक्षाओं का ठोस एवं
सकारात्मक ड्राफ्ट तैयार करना; अस्मिता की इस
लड़ाई में संवाद को टूल एवं लक्ष्य की तरह इस्तेमाल करना;
और मुस्कान के जरिए परस्पर विश्वास और सम्मान में गुंथे सम्बन्ध का निरंतर
विकास करना। ’’जिंदगी,
मैं तुझ से बेइंतहा प्यार करती (करता) हूं’’
- रचनाकार की यह आत्मस्वीकृति जीवन के प्रति आसक्ति या लिप्सा बन कर अपने नागपाश
में नहीं कसती, निरंतर मनन और
परिष्कार के साथ जीवन के संग अपने सम्बन्धों को जानने-संवारने-प्रगाढ़तर करने की
प्रेरणा बनती है। ’’पढ़ो कि इतिहास
में क्या दर्ज है? पढ़ो कि समाज
के ढांचे का निर्माण कैसे हुआ? कैसे बना
अर्थतंत्र?’’ इन उद्बोधनात्मक सवालों
में व्यवस्था का पर्दाफाश करने की सनसनी नहीं,
खरे-कड़े शब्दों में अतीत का हिसाब चुकता करने की उतावली भी नहीं,
एक गहरे धीरज और अंतर्दृष्टि के साथ व्यवस्था की साजिशों पर उंगली रखते हुए
व्यवस्था को इस प्रकार पलट देना है कि न ऊँच-नीच की गुंजाइश रहे,
न ’अन्य’
होने का दर्द। ’’तुम लोग! तुम
लोग! दुकानदार कहता है तुम लोग! सब्जीवाला कहता है तुम लोग! बोलते वक्त क्या रहता
है इनके दिमाग के भीतर? चेहरा,
कपड़ा, जूते-चप्पल,
जेब, काॅलोनी,
घर क्या रहती है दिमाग में जाति?’’
जाहिर है सवाल का पहला कदम इसी कंटीली फांस से स्वयं को मुक्त करना है और फिर
पाले को कठिन करते प्रतिपक्षी के सामने विचार के लिए एक बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल
प्रस्तुत करना है कि ’’तुम क्यों
नहीं भूल जाते कि तुम बामन हो ?’’
कैलाश वानखेड़े की संवेदना आलाप बन कर वक्त और वातावरण को
दूर तक सम्मोहित कर लेती है। सतही नजर से देखें तो वे आसानी से ’घरघुस्सू’
टाइप के कहानीकार कहे जा सकते हैं। अपने निकट के यथार्थ को ही गुनने-बुनने में
तल्लीन। रत्नप्रभा बन कर बेटे की नर्सरी राइम - मछली जल की रानी है - सुनते हैं तो
उसमें डूब कर अपने बचपन को नहीं जीते, किनारे खड़े
होकर जल की रानी मछली को तड़पते-मरते देखते हैं। सवाल पहले परेशान करते हैं,
फिर लहूलुहान कि जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित कर किसी भी व्यक्ति/वर्ग
को तिल-तिल मरते देख कोई कैसे हंस सकता है?
क्या नर्सरी राइम्स हमारे भीतर अमानुषिकता के (पदेमदेपजप्रंजपवद) के बीज बोती
है जिससे अपनी आदमियत से परे दूसरे के प्राणों का मोल समझना कठिन रह पाता है?
यदि हां, तो सवालों और नृशंसता पर
हंसने वाली शिक्षा का आत्मरतिग्रस्त चरित्र क्या सामाजिकता का प्रसार कर पाएगा?
क्या ऐसी शिक्षा के हाथों नई पीढ़ी को सौंप कर समग्र-संतुलित व्यक्तित्व
सम्पन्न नायकों को पाने की कल्पना संभव है जो देखे-भोगे गए सच और ओढ़ाए गए सच में
फर्क ही न कर पाए?
बेशक हाशियाग्रस्त समुदाय के यथार्थ को नहीं उकेर पाता है
स्कूली शिक्षा का ढांचा। वह सवर्ण सपनों का संवाहक है और अपने अड़ियल चरित्र पर नाज
करता हुआ हर असहमति को प्रतिपक्षी की उद्दंडता या उजड्डता का रूप दे देता है।
इसलिए कैलाश वानखेड़े यथार्थ से जुड़ी शिक्षा और उसकी गुणवत्ता पर बल देते हैं।
सवर्ण और दलित वर्ग के लिए अलग-अलग शिक्षा का विधान करके नहीं,
एक साझा पाठ्यक्रम बना कर जहां एक-दूसरे के विपरीत खड़ी जीवन-स्थितियों का आकलन
करते हुए उनके मनोविज्ञान को समझा जाए और साथ ही आदान-प्रदान की संभावनाओं के जरिए
विषमताओं को खत्म करने का प्रयास किया जाए। लेकिन व्यवस्था तो शिक्षा का दो स्तरों
पर बंटवारा करती है - प्राइवेट स्कूल, सरकारी स्कूल।
तमाम खामियों, अभावों और जड़
अध्यापकों के पैकेज के साथ चलने वाले सरकारी स्कूल प्रायः दलित वर्ग के लिए चलाए
गए शिक्षा-अभियान का प्रतिनिधितव करते हैं। सवर्ण शिक्षा का यह एकांगी पैटर्न
विद्यार्थी को यथार्थ के साथ मुठभेड़ कर नए आलोक में चीन्हना नहीं सिखाता,
जड़ता और यथास्थितिवाद को रट्टू तोते की तरह हृदय में उतार लेने का प्रशिक्षण
देता है। फुले की परंपरा से जुड़ कर कैलाश वानखेड़े जब शिक्षा के बुनियादी ढांचे में
आमूलचूल परिवर्तन की मांग करते हैं तब ’चतुरी चमार’
में निराला की आत्मस्वीकृति मानो शिक्षा को लेकर सवर्ण समाज के मंतव्यों और
लापरवाही को उजागर करने लगती है - ’’मैं अर्जुन
(चतुरी का बेटा) को पढ़ाता था तो स्नेह देकर,
उसे अपनी ही तरह का एक आदमी समझ कर, उसके उच्चारण
की त्रुटियों को पार करता हुआ। उसकी कमजोरियों की दरारें भविष्य में भर जाएंगी,
ऐसा विचार रखता था। इसलिए कहां-कहां उसमें प्रमाद है,
यह मुझे याद भी न था।’’ (निराला
रचनावली, भाग 4 पृ0
366) सहानुभूति परंपरा का संरक्षण करती है,
तटस्थ विश्लेषण नहीं। इसलिए कैलाश ’मन खोलने वाली’
शिक्षा के हिमायती हैं। व्यवस्था की साजिशों से लड़ने का जज्बा उनके हर पात्र
को रचयिता का व्यक्तित्व देता है जो जानता है लड़ाई में विरोधी पाले भी बनते हैं;
जय-पराजय की आकांक्षाएं भी सिर उठाती हैं,
लेकिन आत्यंतिक लक्ष्य के तौर पर मानवीय गरिमा की लड़ाई कभी ’एक’
व्यक्ति, एक वर्ग,
एक समूह या एक जाति की जय/पराजय पर समाप्त नहीं होती। बल्कि वह मनुष्य की
अस्मिता के हित में खड़ी होकर हर तरह के वर्ग/समूह/जाति/विषमता के उन्मूलन की लड़ाई
बन जाती है। जब तक मुस्कान के जवाब में मुस्कान न लौटाए समाज,
तब तक ’चार वर्णों की हजार
रस्सियों के भीतर उलझने वाले धर्मशास्त्र के ठेकेदारों’
से लड़ने का हौसला पाले हुए हैं लेखक।
कैलाश वानखेड़े की भाषा तकरार की भाषा नहीं,
आत्म-पड़ताल की भाषा है। वह चीत्कार के उफनते
परनालों में बह कर कीचड़ होती
बारिश नहीं, दरकी जमीन की भीतरी परतों
तक पहुंच कर उसकी कठोरता और प्यास के साथ मजबूत होती चलती चेतना है - ’’अंधेरे के
भीतर का अंधेरा उतना भयानक होता है, जितना
ज्वालामुखी के भीतर की आग।’’ उनकी भाषा
विचार बन कर जो फसल लहलहाती है, वह अपने ’मैं’
को छुपाने या अतिरेकपूर्ण ढंग से दिखाने की विकृत कोशिश नहीं बनती,
बेधक सच की तस्वीर बन जाती है जहां करुणा और हिंसा,
समर्पण और तिरस्कार सब बेमानी हो जाते हैं। टिका रहता है एक अदद चित्र - अनयाय
और दमन की श्रृंखला को राजनीतिक-सांस्कृतिक विरासत के साथ चेतना पर ठकठकाता हुआ - ’’(मामा का) यह
अंतर्देशीय पत्र अब कौन खोलेगा? जो खोलेगा,
वह उसे कर देगा गीला। ़ ़ ़ पत्र. को खोलते ही बारिश के पानी से भरे घर में
तैरते बर्तनों, खाली डिब्बों,
फटे कपड़ों के साथ ’सूखे’
हुए मामा थे। वे खाली बर्तन थे, फटे कपड़े,
सूखी लकड़ी या फिर मरे हुए चूहे - अंतर्देशीय पत्र बता नहीं पाया।’’
विनोदकुमार शुक्ल
के गद्य की आंतरिक लय बेआहट कैलाश वानखेड़े की कहानियों में चली आई है। तमाम
विडंबनाओं के बीच तिलमिलाती लेखनी के सहारे ज्वालामुखियों की बरसात करना जितना
आसान है, उतना ही कठिन है भीतर की
जहरीली हवाओं से मुक्त हो जीवनदान देती अमृत-फुहारों से अंदर-बाहर की जमीन सींचना।
कैलाश के पात्रों में यह सामथ्र्य है, इसलिए मन और
बाहर दो स्तरों पर एक साथ जीते हैं वे - विध्वंस और सृजन का राग गाते हुए। वे जिस
क्षण निःसंग आत्मविश्लेषण करने में तल्लीन हैं,
उसी क्षण स्पर्श और मुस्कान के साथ आत्मीयता का घेरा भी विस्तृत कर रहे हैं।
यह विशिष्टता संवेदना के सहारे भीतर की तिक्तता और कड़वाहट को धो डालने और समूची
मनुष्यता को हर तरह की कड़वाहट से बचाने की जद्दोजहद भी बन जाती है जहां दैन्य
आत्म-समर्पण नहीं, दिपदिपाता
आत्माभिमान मनुष्य होने की पहली शर्त बन जाता है। ’मनुष्य’
होने के इस वरदान को भरपूर पाया है कैलाश के पात्रों ने। ठीक वैसे ही जैसे
निराला की कविता ’राम की
शक्तिपूजा’ में जांबवान रघुबर को
विचलित न होने की सलाह देकर आवेश को विवेक से जीतने के एकमात्र विकल्प पर गौर करने
की बात कहते हैं। दमन के विरोध में दमन, नकार के विरोध
में नकार स्थिति को बदतर बनाने के लिए हैं। जड़ व्प्यवस्था के आमूल उच्छेदन के लिए
जड़ता को प्रश्रय देने वाली कुटिलताओं और संस्कारग्रस्तता की बारीक पड़ताल करनी ही
होगी। वहीं से उसके रचनात्मक प्रतिरोध की रणनीति निकलेगी और वही सर्जक के तौर पर
मनुष्य का परिचय भी होगा। चूंकि सत्ताएं संवाद नहीं करतीं,
अतः ’स्व’
को सुदृढ़ करने की कोशिश में वे अपने आपको विशिष्ट मानने लगती हैं। कैलाश मानो
इस तथ्य की ओर संकेत करते जान पड़ते हैं कि सवर्ण व्यवस्था के खिलाफ खोला गया
मोर्चा भी एकांगी और संवेदनहीन दृष्टि रखने के कारण उतना ही जड़,
दमनकारी और प्रतिशोधी हो जाता है। इसलिए जब तक अपनी ’शक्ति’
(लड़ाई) को ’आराधन’
(अंतःशक्ति जो विवेकशील संकल्पदृढ़ता का दूसरा नाम भी है) बना कर सत्ता और
वर्चस्व के लोभ से मुक्त न किया जाए, मुक्ति संभव
नहीं। दरअसल प्राथमिक स्तर पर मुक्ति भीतर के मनस्ताप (विकारों) को नष्ट कर जीवन
का अभिषेक करने का मूलमंत्र देती है, और फिर उसे
मनुष्य मात्र के प्रति प्रतिबद्धता में संकेन्द्रित करती है। स्पार्टाकस के सीने
में धधकती आग में इसी दृढ़ता का ताप है। कैलाश इस आंच में रत्नप्रभा के ध्वस्त होते
सपनों की बनावट को देखने-बूझने का जतन करते हैं - ’’न चाहते हुए
भी उन बूंदों को गीली लकड़ियों के ऊपर डालने और सुलगने की उम्मीदों के बीच क्या
स्वाहा होता होगा? तभी जाना
मैंने कि पहली बूंद गिनती के पहले शब्द से होकर गुजरती होगी तो वह अपने साथ सुखी
घर के सपनों को भी घसीटती होगी। सुख की यह आकांक्षा भी गिरती होगी,
जैसे गिरती है आकाश से बारिश की निर्मल मासूम बूंद और कीचड़ में शामिल हो जाती
है। अगली बूंद का वक्त आने पर भूल जाता है दिमाग सुख,
सुखी जैसे शबदों के मायने और अगली बूंद इसलिए गिरती है कि उसे गिरना ही है,
कि तीसरी बूंद धकेल देती है उसे, कि अगला दिन
कुछ नया होकर आएगा, इसी उम्मीद के
साथ।’’
आरोपों-प्रत्यारोपों का लिजलिजा/उबलता सिलसिला नहीं, व्यवस्था की विघटनशील सड़ांधभरी परतों का क्रमिक उद्घाटन; और उसके ठीक बगल में अपनी दृढ़ कन्विक्शंस का आरेखन। व्यवस्था की बड़ी लकीर के सामने चुनौती और चेतावनी की असमाप्त अग्निलीक! ’’दूसरी काॅलोनी क्या दूसरा देश होता है?’’ - माचिस की डिबिया जितनी घुटन में अंधेरे और अभाव के ऐश्वर्य के साथ फैली अपनी बस्ती से निकल कर लेखक/मिलिंद (अंतर्देशीय पत्र) जब ’सभ्य समाज’ के पक्के-सुव्यवस्थित-विकसित संसार में जाता है तब इस सवाल के जवाब में रचनात्मक हस्तक्षेप की जिम्मेदारी ’दूसरे देश’ के प्राणियों की भी हो जाती है, कहने की जरूरत नहीं।
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