मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ

इस सदी के दूसरे दशक में ख़ासतौर से सोशल मीडिया के विस्तार के साथ स्त्री कवियों की एक पूरी खेप सामने आई है. जैसे वर्षों से दबी हुई अभिव्यक्तियाँ अचानक ज्वालामुखी के लावे सी बाहर आई हैं. कभी धधकती हुई, कभी अधपकी और कभी कला और भाषा की तमाम परिचित छवियों को नष्ट करती नवोन्मेष रचती. ज़ाहिर है इस भीड़ में नक़ली आवाज़ों की भी कमी नहीं, लेकिन उन्हें सामने रखकर खारिज़ करने की हडबडाहट की जगह आवश्यकता बहुत धीरज से इन्हें पढ़ने, समझने और इनकी परख के लिए नए नए औज़ारों की तलाश ज़रूरी है.

मृगतृष्णा इसी भीड़ का हिस्सा भी हैं और इस भीड़ में पहचाना जा सकने वाली आवाज़ भी. उनकी कविताएँ एकदम हमारे समय की कविताएँ हैं जिनके दृश्य जाने पहचाने लगते हैं और एकदम से लगता है कि अब तक यह बात इस तरह से क्यों नहीं कही गई? इन्हें बोल्ड कह देना फिर एक सरलीकरण होगा. जिस भाषा में लिहाफ़ लिखी जा चुकी हो उसमें बोल्डनेस अपने आप में कोई मूल्य नहीं हो सकता. मृगतृष्णा की ये कविताएँ परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व के बीच एक बेकल युवा का हस्तक्षेप हैं. मैं असुविधा पर उनका स्वागत करते हुए ढेरों शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ.



पत्नी की आँखें 


आजकल उजाला होने से ठीक पहले
पत्नी की आँखें देखने लगती हैं
पके सावन और हरे जेठ के सपने
कि उसका राजकुमार भटक रहा है नंगे पाँव
किसी आबनूस के जंगल में
जंगली फूलों की झोली गले में लटकाये
देवदार की कमर को छूता है हथेलियों से
और बांध देता है अपनी उम्र वाली रेखा
बांसुरी की टहनियों से पूछता है कि आख़िर
कितनी पुरानी हो सकती इश्क़ कार्बन डेटिंग

पत्नी देखती है कि उसका राजकुमार
सीने पर उगा रहा है जंगली बेल
और लांघती जाती है पहाड़ दर पहाड़
नदी करवट बदलती है उसकी पीठ पर और
रेत घड़ी से सरकती रहती है पिछली रात
वो मरुन परदे से छानती है चटख धूप
फिर कुछ यूं पीती है उसे एक सांस में जैसे
छुपकर हलक़ से उतारा गया हो टकीला शॉट

पत्नी आजकल हड़बड़ाकर नहीं उठती
भूल जाती है अक्सर कि दो कप चाय में
चुटकी भर चीनी चाहिए या चम्मच भर नमक
वो हिसाब लगाती है कि नमक ज़्यादा जरूरी है
पीनी चाहिए चाय या
घूँट भर उसकी भाप
राशन की दुकान के बजाय
क्यों न चला जाए इलायची के उस बाग़
नदी मिलती है समंदर में या
समंदर होने को चाहिए, नदी का साथ

पत्नी महसूस करने लगी है आजकल
लाल और सफ़ेद से इतर दूसरे रंगों का आत्मविश्वास
आईने ने सामने खड़ी हो
पहनती है नंगी देह पर हर रंग का लिबास
हिसाब लगाती है
कि सिर पर ज़्यादा ज़रूरी है छतरी का होना
या भादों की बरसात
सीधे पल्लू का आँचल या
निर्वस्त्र नितांत अकेले
रातभर किसी धौलाधारी झील का साथ
बैठ जाना सबसे ऊंचे पहाड़ पर
और फैला देना बाँहों का आकाश
आख़िर क्या ज़्यादा ज़रूरी हो सकता है
घर संवारने वाली कोई पत्रिका
या फ़िर आधे दामों में बिकता कोई सेकेण्ड हैण्ड ट्रैवलॉग
घर को महकाए पवित्र धूप और किसी मंत्र से
या रात जुगनुओं की मौत पर छेड़ दे रुदाली राग

पत्नी सकपका जाती है जब
जागती आखों वाले सपने में
बिना चेहरे का कोई कमउम्र पुरुष
उससे करता है रोमांस
और पूछता है प्रेम जताने का कोई नया पाठ
पत्नी सीख रही है आजकल सिर्फ़ प्रेमिका होना
और स्त्री को जूडे में लपेट पीछे
फेंक देती है बेपरवाह


एक अघोरी सुबह 

रात सोने से पहले आँखों में
काजल धौलाधार लगाना
किसी धौलाधारी झील वाले सपने से हडबडाकर
रात की चिता पर उठ बैठना
नज़र बादल होना
मौत की दिशा वाली खिड़की का आसमान होना
सप्तऋषि तारामंडल के पड़ोस में
अपनी चाहनाओं एक जुगनू जला देना

रात के जंगल में काले पेड़ों पर उम्मीद का हरा खोजना
किसी पहाड़ी नाले में
उम्मीद की शकुंतला को बहा देना
(चूँकि वर्तमान को गुज़रे वक़्त की भूख लगती आई है इसलिए)

पलटकर कमरे में फिर लौटना
और महबूब का बासी ख़त चबाना
 गोल्डेन पर्दों के बीच
मिल्की वाईट फिश हो जाना
भुरुकवा को हीरा समझ पूरब से नोंच खा जाना
सांस वाली गर्दन को पहाड़ी नदी से सहलाना
दुनियादारी के जूते पैरों में पहनकर
(हाइवे नंबर चौबीस के ज़माने याद करना)

ग्लॉसी पेपर की उम्रदराज़ मैगजींस में
दिल के दंगों पर बुक मार्क लगाना
फिर हड़बड़ाना और हडबडाकर
खाक़ी झोले की हर क़िताब बदहवास सा सूंघना
प्रीतम की नज़्म से ट्रुथ एंड डेयर खेलना
ज़वाब में तीन की जगह ग्यारह डॉट्स लगा देना

रात की दोपहर में राग पीलू शाम सुनना
बरसता है ये ज़माना बहुत
एक अघोरी सुबह में
अपनी चमड़ी से महबूब के लिए एक लिबास बुनना
                                               


यार पिता

(एक)

पिता को लिखे ख़त में
न चाहते हुए भी मैंने...
पितावश ...सम्बोधित किया था
'प्रिय पिता'

पिता हमेशा से ही जटिल बने रहते हैं
मेरे शब्दों में
जैसे भावनात्मक चक्रव्यूह में होते हैं
जब मेहमान के आधी रात आगमन पर
माँ असमंजस में पड़ जाती है
कि दाल में नमक बढ़ाऊं कि पानी

वे जटिल बने रहते हैं
उतने ही
कि मैं नहीं पूछ पाती उनसे
लम्बे अंतराल पर मिलते ही
...."यार पिता और सुनाओ! कैसे हो?"...


(दो)

जैसे माँ की छातियों से
चिपका रहता है वात्सल्य
पिता संग परछाईं सा लगा रहता है
पितापना

आजकल... पिता तनकर
नहीं खड़े होते
बस स्मृतियों के कोने से
लुढ़कते चले आते हैं
ऊन के गोले की तरह बिना बताये
और उनके पीछे -पीछे घिसटती चली आती है
एक पूरी सर्द उम्र .....

(तीन)

मेरे आकार लेते व्यक्तित्व में
पिता डेरा डाले  रहते हैं
अधिकार सहित
जैसे पुश्तैनी मक़ान की
एकलौती दीवार घड़ी
भाँय भाँय वाले सन्नाटे के साथ
परिधि की सीमा में
करती रहती है दो दो हाथ अकेले

(चार)

पिता को चढ़ गया था एक बार मीठा पान  
उन्हें बेसलीक़ा लगती थीं
ठट्ठाकर हंसने वाली लड़कियां
ये जानते हुए भी
मुझे कई बार पड़ते हैं बेतहाशा हंसी के दौरे
दुनिया को कई दफा  मैंने
अस्सी घाट की सीढ़ियों पर बैठ
उड़ाया है बैक टु बैक क्लासिक रेगुलर में
यार पिता ! ये बताओ
मध्यम वर्गीय लड़कियां क्यों नहीं कर पाती
प्रेयस को टूटकर प्यार

(पाँच)

माँ देखो तुम भौंचक्की मत हो जाना
मेरी इस ढीठ स्वीकारोक्ति से
कि तुलनात्मक रूप से मुझे
पिता की बेटी कहलाना अधिक पसंद है
दोष तुम्हारे उस ताने का भी उतना ही है
' कि बिलकुल अपने बाप पर गयी है'

(छः)

अचानक कुछ भी नहीं होता
जैसे तय होता है
बच्चे का रोना सुनकर
माँ को जागना होता है
पहले
जैसे पहलौठी का बच्चा
बाप पर थोड़ा ज़्यादा पड़ता  है
और  बुढ़ापे में
उम्र कराहती है घुटनों से

संपत्ति के बंटवारे के बाद
जैसे मान लिया जाता है
पिता ऊंचा सुनेंगे
अचानक कुछ भी नहीं होता
तय होता है सब पहले से ....

(सात)

माँ से मिलने होते हैं
सांप कि केंचुल से उतरते
महीने के वो पांच दिन
जो आप नहीं दे सकते
पिता मुआफ़ करना कि
मुझमें बची हुयी है थोड़ी माँ


पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस

(एक)

हंसती है ज़ोर से खुल कर
बालों में उँगलियाँ फिराकर
इतराकर बताती है
पसंद नयी बात
वो चुप रहता है
मुस्कुराकर चोरी से कर लेता है
फिंगरज क्रॉस्ड
                                                               
(पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस रहा होगा)

(दो)

उसने सबसे पहले
कागज़ के जहाज बनाने सीखे
फिर उनके पीछे-पीछे भागना
जब पहली बार किताबों में
पढ़ी उसने बरनाली की प्रमेय
सीख चुका था तब तक
प्रेम की पतंगे उड़ाना

(पति नहीं बना वो ,प्रेयस रह गया)

(तीन)

सफ़ेद रुमाल में तहकर के
रखा होठों का निशान
रखूंगा बायीं जेब में
तुम्हारा दिया दुपट्टा बांधकर आँखों पर
गुज़ारूंगा रात किसी वेश्या के साथ
तुम्हारे सवाल जवाब
स्वीकारता हूँ
फिर वही बात
प्रेम था
प्रेम है

या फिर रही होगी
प्रेम की कोई
गुप्त ऊष्मा
तुम करती रहो इंकार
हर बात में ढूंढ लूँगा
प्रेम के यथासम्भव पर्यायवाची

(पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस रहा होगा)

(चार)

पांचों ने हामी भरी
बाँट लेंगे नितांत एकांत के क्षण भी
तुम अकेली के साथ
चौदह कदम लेकर भले बिताओ
चौदह साल का वनवास
फिर भी मांगूगा अग्नि परीक्षा
पूज्य पात्र भूल बैठे
भविष्य में लिखी जायेगी
गुनाहों का देवता के जवाब में
रेत की मछली

(पति थे सब...कोई प्रेयस नहीं रहा होगा)

(पाँच)

आत्मा की आज़ादी
साझे की बुक शेल्फ
यदि रख दूं
वात्स्यायन की कामसूत्र के जवाब में
अपनी कोई क़िताब

(आधार है...पति नहीं था प्रेयस ही रहा होगा )

 मेरी कविता की अप्रेम नायिका

(एक)

जब सब कुछ कहा जा चुका होगा
जब सब सुना जा चुका होगा
कविताओं में स्त्रियों पर
जब पूरी की जा चुकी होगी सारी लिखत-पढ़त
तब मेरी कविता की अप्रेम नायिका
आसमान के समतल पर बिछायेगी अपनी
शतरंज की गोटियां

(दो)
                                                   
आजकल खबरें कहती हैं कि
स्त्रियों में बढ़ रहा हैं
वर्जिनिटी ट्रांसप्लांट का चलन
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
शनिच्चर ग्रह का एक छल्ला बाईं कलाई में पहन 
सूरज की तीन लपटों का रक्षासूत्र क़मर लपेटती हैं क़मर में
दाईं जेब में दिल ......ख़ंज़र दायें जानिब रखकर
तैयार हैं हर बार
टूटकर प्रेम करने को

(तीन)

मेरी कविता की अप्रेम नायिका
दीवानी हैं मरघट के सन्नाटे की
वो गुनगुनाती हैं नए जन्म के गीत वहां
क्योंकि ....
अपने जन्मे को नियति की चिता पर देखना भी
एक यात्रा के पूरे होने की संतुष्टि हैं

(चार)

धौलाधार की सबसे ऊंची चोटी पर
निर्वस्त्र बैठ
किसी सूर्य को जलाना
कुंती के लोक लाज के किस्से
चारों दिशाओं में बिखरा देना
किसी अनजान टापू की हवाएं
एक सांस में पी जाती हैं
वो चाहती हैं जब समंदर की लहरें
खेल रही हों उसके नितम्बों से
तब उसकी पीठ पीछे कोई जोड़ा कर रहा प्रेम
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
सीख रही हैं प्रकृति होना  








टिप्पणियाँ

Onkar ने कहा…
बहुत सुन्दर रचनाएँ
Unknown ने कहा…
Jaisa nam hai, vaise hi tumhari kavitae, sayad tum bhi vaisi hi hogi.. "mrig trishna"
Unknown ने कहा…
Jaisa aapka naam vaise hi kavitae, par kuchh kuchh touchy bhi...
Unknown ने कहा…
Jaisa nam hai, vaise hi tumhari kavitae, sayad tum bhi vaisi hi hogi.. "mrig trishna"

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )