वे
(दोस्तों ने कहानी का एहतराम तो किया पर साथ ही इसरार भी कि इस ब्लाग को कविता के लिये ही आरक्षित रखा जाय…तो अब कवितायें ही रहेंगी यहां…लीजिये प्रस्तुत है कोई दस साल पहले लिखी यह कविता जो बाद में साखी मे छपी) वे सबसे ऊंची आवाज़ में नारे लगाकर भर देते हैं सबसे ज्यादा खालीपन सबसे दहकते लहू में भर देते हैं बर्फ का ठंढापन वे समझौते के ख़िलाफ़ बोलते हुए कर देते हैं सबकुछ समर्पित मांग लाते हैं हड्डियां दधीचि से और ड्राईंगरूम में सजाकर रख देते हैं वज्र वे ख़तरा टल जाने पर एकान्त टापू से निकल करते हैं सावधान सबसे क्रांतिकारी सिद्धांतों का परचम लिये सबसे महफ़ूज़ जगहों पर लगाते हैं पोस्टर और इस तरह धीरे-धीरे वे बदल देते हैं वह सब जो नहीं बदलना चाहिये