रीतेश मिश्र की कविताएँ
रितेश वैसे तो पत्रकार हैं, घुमक्कड़ हैं, कवितायें लिखते हैं लेकिन अगर उनके लिए कोई विशेषण उपयोग ही करना हो तो कहूँगा ठेठ इलहाबादी हैं. मुहफट, बिंदास और गहरी बातों को बेसलीका कहने का सलीका. बहुत पहले माँ पर लिखी उनकी एक कविता के ज़रिये उनके कवि रूप से परिचय हुआ था. अपने कहन में माँ को लेकर गलदश्रु भावुकता से भरी कविताओं के बीच इस एकदम युवा कवि की वह कविता इसके "भीड़ से अलग" होने की गवाही दे रही थी. हालांकि अपने स्वभाव के अनुरूप कविता लिखने को उन्होंने उस तरह "गंभीरता" से नहीं लिया, जैसे आजकल चलन है लेकिन बीच बीच में उनकी कविताएँ आती रही हैं. उनकी एक कविता हमने कविता कितबिया वाले सेट में भी शामिल की थी. आज यहाँ उनकी दो कविताएँ और कुछ दोहे चहकौरे काली उरद की खड़ी दाल और बिना ' धोया -बिना ' चावल कि माई चली गयी थीं गुप्त रास्तों से अपने विलासता के स्वप्न लोक में रात सोते हुए जब उत्तर से दक्खिन सर बदला माई धीरे से बोलीं " बड़कऊ ?" इतनी करीब थीं माई कि अम्मा बहुत दूर हो गयीं अब , कभी न सुन पाने वाले समय में महसूसत