माँ की डिग्रियाँ

घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा



बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा



कभी क्रोध कभी खीझ
और कभी हताश रूदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीखते रहे थे बाबा
और नाना बस खड़े रह गये थे हाथ जोड़कर


माँ ने पहली बार देखे थे उन आँखों में आँसू
और फिर रोती रही थीं बरसों


अक्सर कहतीं यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...



डिग्रियों के बारे में तो चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
’उस जमाने की एम ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चें रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ



बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी कीमत
अनेक छोटी-बडी लड़ाईयाँ दफ्न थीं उन पुराने कागजों में...


आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के खिलाफ
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गयी थीं चट्टान सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार

अन्न-जल तो खैर कितने दिन त्यागते
पर गाँव की उस पहली ग्रेजूएट का
फिर मुँह तक नहीं देखा दादा



डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टँगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाये
लम्बे से चोगे में
बेटन सी थामे हुए डिग्री
माँ जैसी शक्लोसूरत वाली एक लड़की मुस्कुराती रहती है
माँ के चेहरे पर तो कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान



कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?


क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?


क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)


क्या उसकी किताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई
सपनों का महकता गुलाब?



परिणामों के ठीक पहले वाली रात क्या
हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...


जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?


या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक कि
आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?



पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
कह सकता हूँ पूरे विश्वास से
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साडी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं
उस लड़की की डिग्रियाँ !!!

टिप्पणियाँ

रंजना ने कहा…
शब्दहीन हूँ......कैसे प्रशंशा करूँ......एक पूरा जीवन और उसकी पीडा को शब्दों में जीवंत ढाल दिया आपने.....

कुछ पंक्तियाँ ठीक से प्रिंट न हो पाने के कारण सुगमता से पठनीय नहीं हो पा रही हैं,कृपया पंक्तियों के बीच कुछ स्पेस देकर फिर से पोस्ट कर दें.
अशोक भाई अच्छा लिखा है, इसे जारी रखें
ghughutibasuti ने कहा…
बहुत ही मार्मिक व सच्ची कविता लिखी है आपने। माँ की डिग्रियाँ, सारे प्रशस्ति पत्र बस यूँ ही धरे रह जाते हैं। यदि वह कर सकती है तो केवल इतना ही कि अपनी बेटियों को प्रेरित करे कि उनके साथ ऐसा न हो।
घुघूती बासूती
बेनामी ने कहा…
bahut marmik rachana ,sundar
शोभा ने कहा…
डिग्रियों के बारे में तो चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
’उस जमाने की एम ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चें रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
बहुत अच्छा लिखा है।
Udan Tashtari ने कहा…
अद्भुत अभिव्यक्ति-बेजोड़...वाह!!!मानो एक फिल्म सी चल पड़ी हो पढ़ते पढ़्ते नजरों के सामने..दृष्य दर दृष्य!! बहुत बधाई.
mark rai ने कहा…
बहुत अच्छा लिखा है......
रंजू भाटिया ने कहा…
अदभुत और बेहतरीन भाव दिए हैं आपने इन लफ्जों में .दिल को छू जाने वाली सच्ची रचना है यह
Shikha Deepak ने कहा…
माँ.............. आपकी कविता पढ़ कर इतने सारे विचार आ जा रहे हैं कि कोई सिरा ही नहीं मिल रहा कहाँ से शुरू करुँ। शायद यह एक शब्द ही काफी है कुछ कहने के लिए।
बहुत अच्छा रहा
मानोँ हम सभी स्त्रियोँ के
इस घर और समाज के बीच चलते सँघर्ष को फिर से जी रहे होँ ..
माँ, भी एक कन्या होती है
बाद मेँ वो सिर्फ एक माँ हो जायेगी ..बस !
और कुछ नहीँ !
मार्मिक मगर सत्य !!

- लावण्या
अशोक जी
लिखते नहीं
जीते हैं
शब्‍दों को
सीते हैं
मजाल है
एक भी
झुर्री आए।
बेनामी ने कहा…
मां पर आपकी कविता बहुत अच्‍छी लगी मित्र, यह कविता पढ मुझे भी मां पर अपनी कविता ब्‍लाग पर देने की सुध आयी
Unknown ने कहा…
अशोक जी आपकी यह सजीव कविता पढ़कर मन प्रफुल्लित हो उठा । कल्पनाएं जिसका कोई किनारा नहीं । सच में आपने एकदम से जीवंत प्रस्तुती दी इस इस कविता के माध्यम से। बहुत बहुत बधाई मेरी तरफ से ऐसे ही लिखते रहें । शुभ-वर्तमान
neera ने कहा…
कहानी है या कविता निर्णय नहीं कर पा रही?
निसंदेह! सैकड़ो माँ के बक्से आपने
संवेदना और ममत्व की चाबी से
एक साथ खोले हैं...
Puja Upadhyay ने कहा…
शब्द कम हैं इस जीवंत कविता की तारीफ़ के लिए...शीर्षक से ही खिंची चली आई. सच्चाई को बड़े मार्मिक अंदाज में बयां किया है आपने.
याद बरबस आ गयी माँ, मैंने देखा जब कभी |
मोमबत्ती को पिघलकर रौशनी देते हुए ||
Unknown ने कहा…
it's awesome
no words to say how nice this creation of urs is......
स्वप्नदर्शी ने कहा…
wonderful! kash ki ye hasr na hota un degreeyon kaa!
रजनीश 'साहिल ने कहा…
उस चटख पीली लेकिन उदास साडी के नीचे दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ !!!

bahut sundar Ashok bhai.
vedna aur samjhauta ya samjhaute ki vedna kya kahu samajhna mushqil hai.
badhai.
sandhyagupta ने कहा…
Aapki yah kavita, jisme ek pura itihaas chipa hai,bahut achchi lagi.
Ashok Kumar pandey ने कहा…
यह मेरी बेहद निज़ी कविता थी…अब आप सबकी भी है।
उत्साहवर्द्धन के लिये आभारी हूँ ।
Neeti ने कहा…
apki yah kavita ma ke sangharshon ko mehsus karati hai, apake vichar ummid bandhate hain ki agali pidhi ka bete ya beti apani ma ke liye isprakar ka kshob vyakt na karsakenge,ma ki digriyan rang layengi.sabhi bhut bhavishya evam vartman ki maon ki or se dhanyawad.
प्रदीप कांत ने कहा…
माँ के बारे मे बेह्तर अभिव्यक्ति
हरकीरत ' हीर' ने कहा…
बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा

Ashok ji, Aap kidhar the jo maine nahi dekha tha ab tak...? Maa pr ek ssakat rachna ...wo bhi itani gahri....naman hai aapko....bhot bhot BDHAI...!!
अशोक जी आपकी इस रचना पर क्या कहूँ नि:शब्द सा हो गया हूँ। बहुत गहरे उतर गई दिल में हमारे आपकी यह रचना। अद्भुत है। सच माँ पर बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने।
Pawan Meraj ने कहा…
maa ka roop hamare samaaj me mandir me kaid devi ki tarah harah hai. jiska kaam ek kaid me saje rahna hi hai.... han ma ki digreeyan chatakh udaas sadi ke neeche dab jane ke liye nahi thi ... or na hi ma ko dabna tha chatakh udaas sadi ke neeche.
bahut kam log is ateet ke bakse ko khoolne ki himmat kar paate hain...
badhai
Sushil Kumar ने कहा…
अशोक की कविता ‘माँ की डिग्रियाँ’ समाज की जड़ -परम्परा के विरुद्ध एक आवाज़ है,एक आगा़ज करती हुई। इसमें नारी की उस परतन्त्रता का प्रच्छन्न विद्रोह भी शामिल है। यह कविता हमें बताती है कि स्त्री को यहाँ तक आने का रास्ता कितने संघर्ष,द्वंद्व और बाधाओं से भरा परा है। कविता में माँ की अपेक्षा उसके स्त्रीत्व को पुरुषप्रधान और परंपरा पोषित समाज के विडम्बित नियति से कितना जुझना पड़ता है,उसका सूक्ष्म रेखांकन हुआ है जो कविता को उँचाई प्रदान करता है।- सुशील कुमार।
Bahadur Patel ने कहा…
आपको और आपके परिवार को होली मुबारक

ashok bhai,
bahut hi umda kavita hai.
padhakar maja aagaya
har tarah se achchhi.
बोधिसत्व ने कहा…
बहुत अच्छी कविता। आपने एक मुद्धा छीन लिया तमाम कवियों से। लिखते रहें गुरुदेव।

मैं पिछले साल भर से माँ पर चुनी हुई कविताओं का संकलन निकालने में लगा हूँ। उस संकलन के लिए यह कविता भी ले रहा हूँ। समय आने पर जब भी वह संकलन छपेगा आपको सूचित करूँगा।
उसमें हर भाषा की कविताएँ शामिल होनी हैं।
Sanjay Grover ने कहा…
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
कह सकता हूँ पूरे विश्वास से

कि उस चटख पीली लेकिन उदास साडी के नीचे

दब जाने के लिये नहीं थीं

उस लड़की की डिग्रियाँ !!!

Achchhi kavita hai. bhavuk bhi karti hai aur sharminda bhi.
Neha Dev ने कहा…
बहुत सुन्दर कविता है आपकी और मेरे ब्लॉग पर आ कर टिप्पणी करके हौसला बढ़ाने ले लिए धन्यवाद !
बहुत खूब यह उस मां की तपस्या का ही फल है जॊ आज नारी चांद पर है
Krishna Patel ने कहा…
bahut achchhi kavita hai.
Sathiya ने कहा…
bachpan se dekha hai maine ma ko mujhe palne ke liye mehnat karte,
unke sapno ki gambhirta ko janaa maine ek ma ke tyag ki is kavita ko padhkr aapne mahsoos kiye in bhavo ko iskeliye aap paatr hai shresth kahlane ke
smriti fazal
सुभाष नीरव ने कहा…
भाई अशोक जी, सचमुच एक अच्छी कविता पढ़ने से वंचित रह जाता अगर आप चैट पर आकर इसके बारे में न बताते। अद्भुत अभिव्यक्ति ! बधाई !
alpana mishra ने कहा…
meri taraf se aur meri maa ki taraf se aapki maa ko hamara salam. ye larai mamuli nahi thi , unhone jo neev rakhi thi, usi par aage ki peedhiyan barhi hain.

alpana mishra
dehradun
कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी किताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई
सपनों का महकता गुलाब?
.......
एक बेटे की सोच , माँ का प्राप्य बन गया, वह मुस्कुराई होगी फिर एक बार .. बिल्कुल उस तस्वीर की तरह
aap mere sanchayan sangrah me shamil honge?rasprabha#gmail.com
M VERMA ने कहा…
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साडी के नीचे

दब जाने के लिये नहीं थीं

उस लड़की की डिग्रियाँ !!!

पर शायद दब ही तो गई थी वरना इस रचना का जन्म कैसे होता.
बहुत करीबी है रचना, आत्मीय
Aseem ने कहा…
बहुत ही अच्छा लिखा है अशोक..एकदम दिल से
Dr Shaleen Kumar Singh ने कहा…
superb....Me too Speechless
AjAy Kum@r ने कहा…
Ashok ji, bohat hi mushkil se padh paya iss kavita ko, pata nahin kitni baar Aankein nam hui, kitni baar nazar dhundhla gayi,,, Aisa lagta raha ye kavita kitne barson se seene ke andar dabi padi thi, Aapne jaise uss dard ko shabd de diye,,, Stree sashaktikaran ki baatein to sabhi kartein hain, lekin itni khoobsoorat feelings koi express to kar ke dikhaaye, BADHAI SWEEKAR KAREIN
Saadar~
Suresh sahani ने कहा…
आपकी इस कविता ने कुछ देर के लिए मुझे प्रतिक्रिया विहीन बना दिया । जैसे महाभारत के बाद से लेकर बुद्ध के पूर्व का ढाई हज़ार सालों का इतिहास नहीं मिलता । और वह इतिहास कोई लिख डाले तो कितनी बड़ी बात होगी । ऐसा ही कुछ चमत्कार आपने इस कविता में प्रस्तुत किया है । निस्संदेह मर्मस्पर्शी कविता है ।
Nidhi ने कहा…
sundar...hote hue bhii udaas kar gayii
Unknown ने कहा…
निःशब्द हूँ !!शायद बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ा हूँ
बेनामी ने कहा…
बहुत सशक्त रचना !
डिग्रियों के बारे में तो चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
’उस जमाने की एम ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चें रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ
यही तो होता है। लड़की गुम हो जाती है। अपनी ज़िन्दगी पर कभी वो अपनी ख़ुशी से अधिकार छोड़ देतीं है। आमतौर पर तो छीन लिया जाता है। शायद यही वजह से हर मज़हब में माँ को ऊँचा स्थान दिया जाता है। शाहनाज़ इमरानी

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

रुखसत हुआ तो आँख मिलाकर नहीं गया- शहजाद अहमद को एक श्रद्धांजलि