रुखसत हुआ तो आँख मिलाकर नहीं गया- शहजाद अहमद को एक श्रद्धांजलि
चला गया वो सितारे खैरात करने वाला अदब का अज़ीम खिदमतगार
- कुलदीप अंजुम
रुखसत हुआ तो आँख मिलाकर नहीं गयावो क्यूँ गया है ये भी बताकर नहीं गयायूँ लग रहा है जैसे अभी लौट आयेगाजाते हुए चिराग बुझाकर नहीं गयाबस इक लकीर खेंच गया दरमियान मेंदीवार रास्ते में बनाकर नहीं गयाशायद वो मिल ही जाये मगर जुस्तजू है शर्तवो अपने नक़्शे पा तो मिटाकर नहीं गयाघर में हैं आजतक वही खुशबू बसी हुईलगता है यूँ कि जैसे वो आकर नहीं गयारहने दिया न उसने किसी काम का मुझेऔर खाक में भी मुझको मिलाकर नहीं गया
अगर उर्दू अदब में आपकी जरा सी भी दिलचस्पी है तो आप शहजाद अहमद के नाम
से ज़रूर वाकिफ होंगे. इस महबूब शायर का पिछले दिनों अगस्त १ २०१२ बुधबार
को इंतकाल हो गया . ३१ जुलाई को दफ्तर से लौटते वक़्त उन्हें दिल का
दौरा पड़ा और अगले दिन इस महान फनकार ने हमारा साथ छोड़ दिया. करीब बीस
साल पहले उन्हें पहली दफे दिल का दौरा पड़ा था पर उस समय वक़्त उनके साथ
था . अपने आखिरी दिन तक वो "मजलिसे तरक्की ए अदब" के डारेक्टर के तौर पर
काम कर रहे थे .ये ओहदा उन्हें किब्लह अहमद नदीम कासमी साहब की अचानक
मौत के बाद सौंपा गया था . आप इसी से अंदाज़ा लगा सकते हैं की शहजाद अहमद
का कद क्या था और वो किस विरासत को साथ लेकर चल रहे थे . .तकरीबन तीस
किताबें छपीं. जिनमें कुछ तर्जुमा और कुछ फिलासफी से सम्बंधित थी पर
ताउम्र उनका जोर उर्दू पोएट्री पर ही रहा . पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें
देश के सबसे बड़े सिविल अवार्ड "प्राइड ऑफ परफार्मेंस(तमगा ए हुस्न ए
करकरदगी)" से भी नवाज़ा .शहजाद अहमद की सबसे खास बात ये उन्होंने
बुजुर्ग और नई नस्ल के बीच लिंक की तरह काम किया .उनके कलाम को इक तरफ
जहाँ अदब के जनाब करों ने सराहा वही दूसरी ओर मजमे में भी उन्हें ग़ज़ल की
मकबूलियत हासिल थी .अदब का ये अज़ीम खिदमतगार १६ जुलाई १९३२ के दिन
अमृतसर में पैदा हुआ था .१९५६ में गवर्मेंट कालेज लाहोर से फिलॉसफी और
साइकोलॉजी में डिग्री हासिल की . गोरा रंग , मीठी जुबान और साफ दिल उनकी शख्सियत का हिस्सा थे ...उनका पहला मजमुआँ 'सदफ' १९५८ में शाया हुआ !
इतने
बड़े शायर को कुछ पन्नों में समेटने की कोशिश नादानी होगी .फिर भी कुछ
अशआर जो खासतौर पर मुझे पसंद हैं उनके मार्फत उस महान शायर को याद करने की
कोशिश करते हैं-
गुजरने ही न दी वो रात मैंनेघडी पर रख दिया था हाथ मैंनेफलक की रोक दी थी मैंने गर्दिशबदल डाले थे सब हालात मैंनेफलक कशकोल लेके आ गया थासितारे कर दिए खैरात मैंने
शहजाद साहब की कही मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़ल ..
शऊरे जात ने ये रस्म भी निबाही थीउसी को क़त्ल किया जिसने खैर चाही थीतुम्ही बताओ मैं अपने हक में क्या कहतामेरे खिलाफ भरे शहर की गवाही थीकई चरागनिहाँ थे चराग के पीछेजिसे निगाह समझते हो कमनिगाही थीतेरे ही लश्करियों ने उसे उजाड़ दियावो सरज़मी जहाँ तेरी बादशाही थीइसीलिए तो ज़माने से बेनियाज़ था मैंमेरे बजूद के अन्दर मेरी तबाही थीतेरी जन्नत से निकाला हुआ इन्सान हूँ मैंमेर ऐजाज़ अज़ल ही से खताकारी हैदो बलायें मेरी आँखों का मुकद्दर ‘शहजाद’एक तो नींद है और दूसरे बेदारी है
ग़ज़ल की खूबसूरती के लिहाज़ से इस ग़ज़ल की भला क्या मिसाल दी जा सकती है...
वो मेरे पास है क्या पास बुलाऊँ उसकोदिल में रहता है कहाँ ढूंढने जाऊँ उसकोआज फिर पहली मुलाकात से आगाज़ करूँआज फिर दूर से ही देखकर आऊँ उसकोचलना चाहे तो रखे पाँव मेरे सीने परबैठना चाहे तो आँखों पे बिठाऊँ उसकोवो मुझे इतना सुबुक इतना सुबुक लगता हैकभी गिर जाये तो पलकों से उठाऊँ उसको
पाकिस्तान ने अपना एक फिक्रमंद शायर खो दिया ये बात उनके इन दो अशआरों से ज़ाहिर हो जाती है ...जो मैंने अलग -अलग गजलों से चुने हैं !
मेरा कायद मेरी सोई हुई मिल्लत से कहता हैबस अब तो नीद से जागो खुदारा दिन निकल आया
यहाँ जुलूस है फरियाद करने वालों काजो सबसे आगे हैं वो आदमी यजीद का है
वो मुल्क बेंचते हैं असलाह खरीदते हैंये कारोबार हर इक दायमी यजीद का है
शहजाद
अहमद ने जब दुनिया ऐ अदब में कदम रखा उस दौर में तरक्कीपसंद ग़ज़ल अपने
पूरे शबाब पर थी . गज़ल के अमूमी रंग और घिसे पिटे मौज़ुआत से ग़ज़ल को आजाद
करने वालों में से एक नुमायाँ नाम शहजाद अहमद का भी है . पचास की दहाई में
मंज़रे आम पर आने वली पहली नसल के काफिले में अहमद फ़राज़ , मुनीर नियाजी ,
ज़मीलुद्दीन आली ,महशर बद्युनी, जौन एलिया ,नासिर काज़मी और शहजाद अहमद
जैसे नाम शामिल थे. इक तरफ जहाँ जौन दुसरे शायरों के साथ तरक्की पसंद अदब
के झंडाबरदार थे तो वहीँ शहजाद अहमद ज़फर इकबाल के साथ ज़दीद उर्दू ग़ज़ल का
दामन थामे हुए थे. शहजाद अहमद की रोशन खयाली उन्हें औरो से जुदा करती है .
शहजाद अहमद बुनियादी तौर पर रूमान पसंद शायर थे. शुरूआती दौर में
वो इसी रूप में मकबूलियत हासिल करते रहे बाद में उनके कहे में तमाम और
फिक्र-ओ- फन शामिल हो गए . शहजाद अहमद को आज तक वह मुकाम आज तक नहीं मिला
जिसके वह सही में हक़दार थे. आँखों को सीपियाँ सिर्फ शहजाद अहमद ही कह सकते थे.
शबे गम को सहर करना पड़ेगाबहुत लम्बा सफ़र करना पड़ेगासबा नेज़े पे सूरज आ गया हैये दिन भी अब बसर करना पड़ेगाये आंखें सीपियाँ हैं इसलिए भीहर आंसू को गोहर करना पड़ेगाउसे रुखसत ही क्यूँ होने दिया थाये गम अब उम्र भर करना पड़ेगाकहा तक दरबदर फिरते रहेंगेतुम्हारे दिल में घर करना पड़ेगाअभी तक जिसपे हम पछता रहे हैंवही बारे दिगर करना पड़ेगामुहब्बत में तुम्हे जल्दी बहुत हैये किस्सा मुक्तसर करना पड़ेगाबहुत आते हैं पत्थर हर तरफ सेशज़र को बेसमर करना पड़ेगाअज़ाबे जाँ सही तरके ताल्लुककरेंगे हम अगर करना पड़ेगा
शहजाद
अहमद ज़दीद और तरक्की पसंद दोनों के बीच से इंसानियत की बात करने वालों
में से थे ....इंसानी फितरत ..दुखदर्द और इंसानी मसाइल की बातें उनके कलाम
का अहम् हिस्सा हैं
ज़लाया था मैंने दिया किसलिएबिफरने लगी है हवा किसलिएअगर जानते हो की तुम कौन होउठाते हो फिर आइना किसलिएजो लिखा हुआ है वो होना तो हैउठाते हो दस्ते दुआ किसलिएइसी काफिले का मुसाफिर हूँ मैंमेरा रास्ता है जुदा किसलिएबहुत मुख्तलिफ थी मेरी आरज़ूमुझे ये ज़माना मिला किसलिएभरी अंजुमन में अकेला हूँ मैंमगर ये नहीं जानता किसलिएमैं ‘शहजाद’ हर्फे गलत हूँ तो फिरमुझे उसने रहने दिया किसलिए
शायद ही किसी ने गुलाम अली साहब की आवाज़ में इस मशहूर ग़ज़ल को न सुना हो
अपनी तस्वीर को आँखों से लगाता क्या हैएक नज़र मेरी तरफ देख तेरा जाता क्या हैमेरी रुसवाई में तू भी है बराबर का शरीकमेरे किस्से मेरे यारों को सुनाता क्या हैपास रहकर भी न पहचान सका तू मुझकोदूर से देखकर अब हाथ हिलाता क्या हैसफरे शौक में क्यूँ कांपते हैं पाँव तेरेआंख रखता है तो फिर आँख चुराता क्या हैउम्र भर अपने गरीबां से उलझने वालेतू मुझे मेरे ही साये से डराता क्या हैमर गए प्यास के मारे तो उठा अबरे करमबुझ गयी बज़्म तो अब शम्मा ज़लाता क्या हैमैं तेरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बतादेखकर मुझको तेरे ज़ेहन में आता क्या हैतुझमे कुछ बल है दुनिया को बहाकर लेजाचाय की प्याली में तूफ़ान उठाता क्या हैतेरी आवाज़ का जादू न चलेगा उनपरजागने वालो को शहजाद जगाता क्या है
ईमाँ को एक बार भी जुम्बिश नहीं हुईसौ बार कूफ़ियों के कदम डगमगा गएहम इस ज़मीन को लाये हैं आसमानों सेऔर इन्तिखाब किया है कई ज़हानो सेयही जबाब मिला अब वतन ही सब कुछ हैबहुत सवाल किये हमने नुक्तादानों सेखुदा से उसका करम मांगते हैं हम शहजादचलें तो आगे निकल जाएँ कारवानो से
जो शज़र सूख गया है वो हरा कैसे होमैं पयम्बर तो नहीं मेरा कहा कैसे होजिसको जाना ही नहीं उसको खुदा क्यूँ मानेंऔर जिसे जान चुके हैं वो खुदा कैसे होदूर से देखके मैंने उसे पहचान लियाउसने इतना भी नहीं मुझसे कहा कैसे होवो भी एक दौर जब मैंने उसे चाहा थादिल का दरवाज़ा है हर वक़्त खुला कैसे होउम्र सारी तो अँधेरे में नहीं कट सकतीहम अगर दिल न जलाएं तो ज़िया कैसे होजिससे दो रोज भी खुलकर न मुलाकात हुईमुद्दतों बाद मिले भी तो गिला कैसे हो
शहजाद साहब उर्दू अदब में अपने नए बिम्ब और कहाँ के साथ आये
अब तक उसकी मुहब्बत का नशा तारी हैफूल बाकी नहीं खुशबू का सफ़र जारी हैआज का फूल तेरी कोख से ज़ाहिर होगाशाखे दिल खुश्क न हो अबके तेरी बारी हैध्यान भी उसका है मिलते भी नहीं हैं उससेजिस्म से बैर है साये से वफादारी हैइस तगो ताज में टूटे हाँ सितारे कितनेआसमा जीत सका है न ज़मी हारी हैकोई आया है अभी आंख तो खोलो शहजादअभी जागे थे अभी सोने की तैयारी है
धूप निकली है तो बदल की रिदा मांगते होअपने साये में रहो गैर से क्या मांगते होअरसा ऐ हश्र में बक्शिश की तमन्ना है तुम्हेतुमने जो कुछ न किया उसका सिला मांगते होउसको मालूम है शहजाद वो सब जानता हैकिसलिए हाथ उठाते हो दुआ मांगते होतय हमसे किसी तौर मुसाफत नहीं होतीनाकाम पलटने की भी हिम्मत नहीं होतीचोरी की तरह जुर्म है दौलत की हवस भीवो हाथ कटें जिनसे सखावत नहीं होतीजिंदानिओं क्यूँ अपना गला कट रहे होमरना तो रिहाई की ज़मानत नहीं होतीजो तूने दिया है वही लौटायेंगे तुझकोहमसे तो इमानत में खयानत नहीं होतीकिस बेतलबी से मैं तुझे देख रहा हूँजैसे मेरे दिल में कोई हसरत नहीं होती
ये सोचकर की तेरी ज़वीं पर न बल पड़ेबस दूर ही से देख लिया और चल पड़ेऐ दिल तुझे बदलती हुई रुत से क्या मिलापौधों में फूल और दरख्तों में फल पड़ेसूरज सी उसकी तबा है शोला सा उसका रंगछू जाये उस बदन को तो पानी उबल पड़े
बहुत ख़राब किया ख्वाहिशाते दुनिया नेज़रा ज़रा से ये बुत बन गए खुदा मेरेये दुश्मनों से नहीं जात से लड़ाई हैकिसी भी काम न आयेंगे दस्तो पा मेरेतू दोस्तों की तरह फासला न रख इतनाहरीफ है तो फिर आ पास बैठ जा मेरेये और बात कि मैं बज़्म में अकेला हूँबहुत करीब ही बैठे हैं आशना मेरेवो रौशनी थी कि मैं कुछ न देख पाया थाकल आफ़ताब बहुत ही करीब था मेरेअब न वो शोर है न शोर मचाने वालेखाक से बैठ गए खाक उड़ाने वालेदिल से वहशी कभी काबू में न आया यारोंहार कर बैठ गए जाल बिछाने वाले
आरज़ू की बेहिसी का गर यही आलम रहाबेतलब आएगा दिन और बेखबर जाएगी रातशाम ही से सो गए हैं लोग आँखे मूंदकरकिसका दरवाज़ा खुलेगा किसके घर जाएगी रात
जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुसवाईअब खाक उड़ाने को बैठे हैं तमाशाईअब दिल को किसी करवट आराम नहीं मिलताएक उम्र का रोना है दो दिन की शनासाईइस खौफ से इक उम्र हमें नींद न आईइक चोर छुपा बैठा है सीने की गुफा मेंइक नूर का सैलाब है बंद आँखों के अन्दर !लिपटे हुए चेहरे हैं अँधेरे की रिदा में !!
शहजाद अहमद का जाना उर्दू अदब के लिए कितना बड़ा नुकसान है इसका अंदाज़ा
नहीं लगाया जा सकता .....उनके साथ उर्दू ग़ज़ल का इक मज़बूत स्तम्भ (ज़दीद ग़ज़ल का आखिरी) भी ढह गया.
टिप्पणियाँ
अच्छा लेख है.. कुलदीप भाई को बधाई. असुविधा का आभार..
आभार को विशेष
शुक्रिया वो वाकई बड़े शायर
थे ।