मै अर्जुन नही हूँ

अर्जुन नहीं हूं मैं
भेद ही नहीं सका कभी
चिडिया की दाहिनी आंख

कारणों की मत पूछिये
अव्वल तो यह
कि जान गया था पहले ही
मिट्टी की चिडिया चाहे जितनी भेद लूं
घूमती मछ्ली पर उठे धनुष से
छीन लिया जायेगा तूणीर

फिर यह कि रुचा ही नहीं
चिडिया जैसी निरीह का शिकार
भले मिट्टी का हो
मै मारना चाहूंगा किसी आदमखोर को

और मेरी नज़र हटती ही नहीं थी
बाईं आंख की कातरता से
मुझे कोई रुचि नहीं थी
दोस्तों से आगे निकल जाने में
भाई तो फिर भाई थे

मै तो सजा कर रख देना चाहता था
उस मिट्टी की चिडिया को पिंजरे में
कि आसमान में देख सकूं एक और परिंदा
मै उसकी आंखों में भर देना चाहता था उमंग
स्वरों में लय, परों में उडान

और ख़ुश हूं अब भी
कि कम से कम मेरी वज़ह से
नहीं देना पडा
किसी एकलव्य को अंगूठा।

टिप्पणियाँ

अर्जुन के चरित्र पर व्यवस्था की छाप है। पर वह बदरंग हो गया है। उसे चमकना चाहिए था। उसे गंदगी पर व्यवहार करना चाहिए था। युद्ध के लिए प्रेरित व्यक्तित्व। पर इस अर्जुन के लिए एक नई गीता के सृजन की आवश्यकता है।
Bahadur Patel ने कहा…
achchhi kavita hai. badhai.
neera ने कहा…
आह! कितना गहरा! कितना सटीक!
varsha ने कहा…
मुझे कोई रुचि नहीं थी दोस्तों से आगे निकल जाने में
vakai gahra satwik bhav.
व्यवस्था और परम्परा पर करारा व्यंग्य
शरद कोकास ने कहा…
इस मिथक पर इतना कुछ लिखा जा चुका है फिर भी एक नई बात कवि ढूँढ ही लाता है अच्छी लगी यह कविता , बधाई ।
प्रदीप कांत ने कहा…
और ख़ुश हूं अब भी
कि कम से कम मेरी वज़ह से
नहीं देना पडा
किसी एकलव्य को अंगूठा।

दिनेश जी ने सही कहा है -
इस अर्जुन के लिए एक नई गीता के सृजन की आवश्यकता है।
हरकीरत ' हीर' ने कहा…
मै तो सजा कर रख देना चाहता था
उस मिट्टी की चिडिया को पिंजरे में
कि आसमान में देख सकूं एक और परिंदा
मै उसकी आंखों में भर देना चाहता था उमंग
स्वरों में लय, परों में उडान

और ख़ुश हूं अब भी
कि कम से कम मेरी वज़ह से
नहीं देना पडा
किसी एकलव्य को अंगूठा।


वाह..... आज तो एक से एक शानदार कवितायें पढ़ने को मिल रही हैं अभी शरद जी की कविता ने हतप्रद कर कर दिया और अब आपकी .....!!
परंपरागत सोच पर एक नया दृष्टिकोण देती अनूठी कविता...
Rangnath Singh ने कहा…
sahi samay par aayi hai ye kavita.... adhunik dron prabhas joshi fir se eklavya kaangutha mang rhe hai...
Meenu Khare ने कहा…
और ख़ुश हूं अब भी
कि कम से कम मेरी वज़ह से
नहीं देना पडा
किसी एकलव्य को अंगूठा।

बहुत साहस है इस व्यंग्य में.
अपूर्व ने कहा…
और ख़ुश हूं अब भी
कि कम से कम मेरी वज़ह से
नहीं देना पडा
किसी एकलव्य को अंगूठा।

इतिहास सिर्फ़ कुछ लोगों की जीत और हार की दास्तान ही नही बल्कि उन लोगों की अनुभूतियों और उनके व्यक्तित्व की रचना प्रक्रिया का दस्तावेज भी है..ऐसा ही कुछ बोध कराती है आपकी अद्भुत कृति..बधाई.
अशोक जी,

कविता बहुत ही अच्छी लगी, महाभारतकालीन पात्रों के माध्यम से वर्तमान व्य्वस्था से सीधा संवाद करती हुई।

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