प्रमोद रामावत की ग़ज़लें



प्रमोद रामावत "प्रमोद"
जन्म- 5 मई,1949
शिक्षा- विधि स्नातक
सम्प्रति- कार्यकारी संपादक जय जैनम, उप सम्पादक अमृत मंथन
प्रकाशन- मेरी अधूरी अमरनाथ यात्रा
सम्पादन- अब सुबह नजदीक है [ ग़जल संग्रह ], सधी हुई चुप्पी [ काव्य संकलन ]
संपर्क- नारायण निकुंज जे-100 , वार्ड नंबर-1 , श्रीनाथ नगर नीमच मध्यप्रदेश.
सेल नंबर- 09424097155








1.

सोने का पिंजरा बनवाकर, तुमने दाना डाला दोस्त |
हम तो थे नादान पखेरू, अच्छा रिश्ता पाला दोस्त ||
हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही,
तुमने पर अख़बार बनाकर , हमको खूब उछाला दोस्त |
हमने इस साझेदारी में, अपना सब कुछ झोंक दिया
तुम तो पक्के व्यापारी थे, कैसे पिटा दिवाला दोस्त |
कल थे एक हमारे आँगन, किसने ये इन्साफ किया
तुमको तो दिल्ली की गलियां, हमको देश निकाला दोस्त |
सच्चाई पर चलते चलते, उस मंज़िल तक जा पहुंचे
सब लोगों ने पत्थर मारे, तू भी एक उठा ला दोस्त |
लोग वतन तक खा जाते है, इसका इसे यकीन नहीं
मान जायेगा तू ले जाकर , दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त |
२.
आँख से बाहर निकल कर कोर पर ठहरा रहा |
ज़िन्दगी पर आंसुओं का, इस तरह पहरा रहा ||
तुम तो आईना रहे, जिसमें हज़ारों अक्स थे
मैं रहा तस्वीर जिसमें, बस वही चेहरा रहा |
थी ख़ुशी तो ओस का कतरा हवा में घुल गयी
ज़िन्दगी का दर्द से, रिश्ता बड़ा गहरा रहा |
बस्तियां थी उम्र की, तब थी सफ़र में रौशनी
फिर अँधेरा ही अन्धेरा, जब तलक सहरा रहा |
दर्द की एक बाढ़ यूँ, हमको बहा कर ले गयी
या तो हम चीखे नहीं, या वक़्त ही बहरा रहा |
3 .
आदमी है उठ ज़रा ईमान की बातें उठा |
अब जरुरत है कि, हिन्दुस्तान की बातें उठा ||
प्यार,रिश्ते, दीनो-ईमां, हक़, शराफ़त सब गये,
चल सियासत में लुटे, सामान की बातें उठा |
फ़र्ज से अव्वल, कोई ज़ज्बा नहीं होता, वजीर
ज़िद रियाया की है, अब सुलतान की बातें उठा |
आदमी कमतर नहीं होता, जुबाँ से, रंग से
हक की ख़ातिर लड़, उठा सम्मान की बातें उठा |
सर्दियों में अल-सुबह, अखबार का बण्डल लिए
कांपते मासूम से, वरदान की बातें उठा |
रोटियों का मोल करता है वो अक्सर जिस्म से
क्रूर सौदेबाज के अहसान की बातें उठा |
खुद ठगा जाता है अक्सर, पर कभी ठगता नहीं
जिक्रे इन्सां पर उसी, इंसान की बातें उठा |
4 .
आशियाँ फिर से बुनो बिजली के तेवर के लिये |
जिस तरह मैंने चुना, अपना कफ़न सर के लिये ||
आईना बनकर खड़े हो जाओ उनके सामने
फ़िर नहीं उठ पायेंगे वो हाथ पत्थर के लिये |
मजलिसे तो सिर्फ नक्कालों की होकर रह गई
अब कोई मौक़ा नहीं बेबाक़ शायर के लिये |
बस्तियों में कौन पालेगा, परिंदों को भला
आशियाँ उनके उजाड़े, आपने घर के लिये |
आप के गुलदान में यूं, आपका चेहरा दिखा
इक कबूतर मार डाला, सिर्फ एक पर के लिये |
असल सूरत आपने आकर, अचानक देख ली
वरना मेरा दूसरा चेहरा है , बाहर के लिये |
5 .
आंसू का अनुबन्ध सिरहाने रख कर सोता है |
जब खुशियों का जिक्र छिड़े तू अक्सर रोता है ||
खुशबू के ख़त हवा बांटती, घर घर जाती है
बंद हमेशा तेरा ही दरवाजा होता है |
रिश्ते क्या है, सिर्फ़ हितों कि दावेदारी है
मन बनिया दिन भर सपनों के फ़सलें बोता है |
खरपतवार बढ़ी जाती है, हर पल नफ़रत की
तूने अपना खेत ना जाने, कैसे जोता है |
सपनों की किरचें फ़िर भी रह जाती पलकों पर
तू अपनी आंखे अश्कों से कैसे धोता है |
6 .
चीख़ है मगर कहीं भी कान नहीं है |
जिस्म करोड़ों है मगर जान नहीं है ||
उज्जवल भविष्य भी है, उजला अतीत भी
मेरे वतन का सिर्फ वर्तमान नहीं है |
हर दिन प्रजा से कह रहा है, "जागते रहो"
राजा हमारा खुद ही सावधान नहीं है |
गिर नहीं गये है ये और बात है
वैसे तो किस क़दम पे इम्तहान नहीं है |
फाकाकशी में जी रहे है लोग आजकल
पूरा ही साल तो कोई, रमजान नहीं है |
एक आदमी एक पास, ऐशगाह है कई
दूसरे के पास क्यों मकान नहीं है |

टिप्पणियाँ

राणावत जी की एक साथ ग़ज़लें पढने को मिल गयीं मानो खज़ाना मिल गया...एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें हैं ... ऐसे अनमोल शायर की शायरी हम तक पहुँचाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया...

नीरज
यूँ तो राणावत जी की ग़ज़लों के सभी शेर बेहतरीन हैं लेकिन इन्हें मैं अपने साथ लिए जा रहा हूँ...मेरी दिली दाद उनतक जरूर पहुन्चैयेगा.

हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही,
तुमने पर अख़बार बनाकर , हमको खूब उछाला दोस्त
***
आँख से बाहर निकल कर कोर पर ठहरा रहा
ज़िन्दगी पर आंसुओं का, इस तरह पहरा रहा

थी ख़ुशी तो ओस का कतरा हवा में घुल गयी
ज़िन्दगी का दर्द से, रिश्ता बड़ा गहरा रहा
***
सर्दियों में अल-सुबह, अखबार का बण्डल लिए
कांपते मासूम से, वरदान की बातें उठा
***
आप के गुलदान में यूं, आपका चेहरा दिखा
इक कबूतर मार डाला, सिर्फ एक पर के लिये
***
रिश्ते क्या है, सिर्फ़ हितों कि दावेदारी है
मन बनिया दिन भर सपनों के फ़सलें बोता है
***
फाकाकशी में जी रहे है लोग आजकल
पूरा ही साल तो कोई, रमजान नहीं है

नीरज
समीर यादव ने कहा…
प्रमोद रामावत जी की गजलें आम आदमी की गजल है, वह इस विधा के उस ओर हैं जहाँ से दुनिया के दोनों रंग नजर आते हैं. और इन रंगों में भी बेहतर नजर वह आता है जिसकी सबको जरुरत है. वह कलम से जिंदगी की बानगी लिखने के आदी हैं.
rashmi ravija ने कहा…
सच्चाई पर चलते चलते, उस मंज़िल तक जा पहुंचे
सब लोगों ने पत्थर मारे, तू भी एक उठा ला दोस्त |

राणा वत जी की सारी गज़लें बेहतरीन हैं...सारे शेर भी एक से बढ़ कर एक..शुक्रिया पढवाने का
अपूर्व ने कहा…
राणावत जी से पहला परिचय रहा..विशेषकर गज़ल के शिल्प का जनभाषा के संग परिष्कार उस्ताद शायरों जैसे हुनर का पता देता है..वैसे इतनी और खूबसूरत ग़ज़लें एक संग पढ़ने पर कुछ जरूरी चीजें पीछे रह जाती हैं..मगर इन्हे बार-बार पढ़ने पर चीजें ज्यादा साफ़ होती लगती हैं..खासकर यह शेर..
आईना बनकर खड़े हो जाओ उनके सामने
फ़िर नहीं उठ पायेंगे वो हाथ पत्थर के लिये |

रिश्ते क्या है, सिर्फ़ हितों कि दावेदारी है
मन बनिया दिन भर सपनों के फ़सलें बोता है |
प्रशान्त ने कहा…
सारी गज़लें अच्छी हैं, कुछ तो "बेहतरीन" कहने की हद तक अच्छी हैं. और जैसा की हर अच्छी गज़ल के साथ होता है, दो बार पढ़ चुका और बार-बार पढ़ने की इच्छा बनी हुई है.

-- उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद.
शरद कोकास ने कहा…
अच्छी गज़लें हैं भाई ।
प्रदीप कांत ने कहा…
सामाजिक सरोकारों पर बेहतरीन गज़लें हैं। प्रमोद जी को बधाई
नमस्कार
आप के ब्लॉग पे आने का सौभाग्य नीरज जी के ब्लॉग से प्राप्त हुआ , वहा आप के ग़ज़ल संग्रह कि चर्चा पढ़ी , बधाई '' सोने का पिंजरा के लिए .सुंदर गज़ले . , साधुवाद
सादर !
समीर यादव ने कहा…
आभार का प्रयास..
सम्मानीय मनीषियों,
सादर अभिवादन !

मेरे अशआर आप तक पहुंचें, आपको अच्छे लगे.आपने उनकी सराहना करके मेरी हौसला अफ़जाई की, उसके लिए मैं आप सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करूँ, इस सबसे पूर्व अपने अतिप्रिय अनुजतुल्य समीर यादव जो एस.डी.ओ.[ पुलिस ] मनासा नीमच हैं, का जिक्र अनिवार्य रूप से करना चाहता हूँ. वे मुझे आप तक पहुँचाने की प्रक्रिया के मेरुदंड हैं. उन्होंने अपने पिता श्री बुधराम यादव को समर्पित ब्लॉग "मनोरथ" में मेरी रचनाओं को पोस्ट किया. इससे पहले सार्वजनिक होने का मैंने अपनी ओर से कभी कोई प्रयास नहीं किया. अनेक पत्र पत्रिकायें मुझे सम्मानपूर्वक छापना चाहती किन्तु उन्हें गजलें भेजना भी मेरे स्वभाव में नहीं है. मंच मदारियों और गवैयों के हाथ लग गये हैं इसलिए मैंने उधर से पीठ कर ली. मैं तो बस लिख कर इतिश्री कर लेता हूँ.

1962 में गजल के साथ जीने-मरने का अलिखित अनुबंध हुआ और मैं अपना काम कर रहा हूँ. मेरे कुछ मित्र मानते थे कि मैं अभिशप्त हूँ और मेरा लेखन यूँ ही डायरियों में दफ़न रहेगा. कहीं पहुंचेगा नहीं किन्तु अब यह अभिशाप खंडित हो रहा है. फेसबुक तथा ब्लॉग में मुझे पढ़कर अशोक कुमार पाण्डेय जी ब्लॉग "असुविधा", नीरज गोस्वामी जी ब्लॉग "नीरज" , और गौतम राजर्षि जी सहित जितने भी गजल प्रेमियों ने टिप्पणियाँ की हैं, मैं उनका अनुग्रही हो गया हूँ.

यह कहना चाह रहा हूँ कि गजल या कविता समय गुजारने और मनोरंजन करने का साधन मात्र कतई नहीं है, हर शेर चिंतन का बीज होता है. यदि उसे किसी संवेदनशील तथा उर्वर मन में बोया गया तो समय का खाद-पानी उसे अंकुरित करके ही रहेगा. यदि हमारा लेखन अगली पीढ़ी के लिए कोई सन्देश नहीं छोड़ता, किसी परिवर्तन की प्रस्तावना नहीं रचता तो हम अपना और दूसरों का समय बरबाद कर रहें हैं. तो तय है कि हम साहित्य के शत्रु हैं. कबीर और तुलसी के वंश को कलंकित करने का हमें क्या अधिकार है ? हमें अपना महत्त्व तथा सामाजिक उत्तरदायित्व समझना ही चाहिए. यह दायित्व-बोध ही हमारा मूल्य निर्धारित करता है. साहित्यकार वस्तुतः युगपुरुष होता है और उसका लेखन समाज की दिशा तय करता है.प्रत्येक रचना रचनाकार की प्रतिकृति होती है जिसके भीतर वह स्वयं उपस्थित रहता है. ऐसे में रचना पढ़कर पाठक रचनाकार की मनोदशा का अनुमान लगाता है.

मेरा सदैव प्रयास रहा है कि मैं अपने लेखन में कमोबेश इसी राष्ट्रधर्म का पालन कर सकूं. आपने मेरे इसी प्रयास को अपना उदार आशीर्वाद प्रदान किया है. इसके लिए मैं आत्मीयतापूर्वक आपका आभार व्यक्त करते हुए आपके सदभाव के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ.


स्नेहाकांक्षी ...
प्रमोद रामावत "प्रमोद"
२३-०२-२०११
Unknown ने कहा…
में नमन दिल से करूं वो आपको स्वीकार हो
में भी कोशिश ये करूं हर शब्ज़द में इक सार हो
आपने जो भी लिखा इतिहास है नायाब वो
ऐसी ग़ज़लें रोज पढ़ लूं ख्वाब ये साकार हो
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दादा सादर प्रणाम अनंत बधाई शानदार साधना और लेखनी की धार के लिए

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