क्षितिज तक फैले मानवीय संसार की कहानियाँ


(समीक्षा कालम के तहत इस बार कहानीकार प्रियदर्शन के कहानी संकलन 'उसके हिस्से का जादू' पर डा प्रज्ञा  की समीक्षा ) 

समय की  राजनीतिक,सामाजिक, आर्थिक उठापटक से गुजरती ,वैश्विक स्तर पर नई चुनौतियों से जूझती,  धार्मिक संकीर्णता से लोहा लेती और बेहतर भविष्य की राह तलाशती आज की  कहानियों के बीच जब प्रियदर्शन के पहले कहानी संग्रह ‘ उसके हिस्से का जादू’ की कहानियों को पढ़ते हैं तो लगता है कि जैसे इन तमाम संघर्षों से सृजित हुआ मनुष्य लगातार किसी गंभीर खोज में व्यस्त है। समय के तमाम दबावों के बीच गायब होते जा रहे बचपन की पीड़ा, तेजी से बदलते जा रहे नौजवान सपने, आपाधापी से भरी यांत्रिक जिंदगी में कहीं पीछे छूटता जा रहा बुजुर्गों के स्नेह का सम्बल और विडम्बनामयी यथार्थ के साथ प्रियदर्शन की कहानियां बड़ी बेचैनी से उन संबंधों , स्मृतियों को तलाशने का काम करती हैं जो विपरीत परिस्थितियों में जीवन का आधार बन सकें।
प्रियदर्शन 
संग्रह की ग्यारह कहानियां और एक संस्मरण( जिसे कहानीकार ने वास्तविक चरित्रों और घटनाओं वाली सच्ची कहानी माना है) विभिन्न लघु पत्रिकाओं में 1988 से लेकर 2007 के कालखंड में  प्रकाशित हो चुके हैं। देश और विश्व स्तर पर घटित होते तेज परिवर्तनों पर नजर रखने वाले प्रियदर्शन का इन कहानियों के बारे में मानना है कि ‘‘मेरी चिंता यह है कि काल के इस विराट चक्के तले वे छोटी-छोटी कहानियां दब न जाएं जो इंसान की धुकधुकी से निकलती हैं, जो इतनी भंगुर और अल्पजीवी होती हैं कि भाप की तरह उड़ जाती हैं । निश्चय ही यह कहानियां किसी वैचारिक चिंता या कुछ बचा लेने की कोशिश में नहीं लिखी गयी हैं।’’ कहानीकार ने इन कहानियों को उस इंसानी धड़कन से बना माना है जो मामूली से वजूद का हिस्सा होने के बावजूद अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेती है।
जीवन की आपाधापी के भीतर से ही निकले कुछ क्षणों की ये कहानियां अलग-अलग किरदारों में एक ऐसे घर की खोज में संलग्न दिखाई देती हैं जिस घर में हमारी सहजता बरकरार रहती है। वह सहजता जिसे शहरी जीवन की चकाचैंध धीरे-धीरे खत्म करती जा रही है। ‘ पेइंग गेस्ट ’, ‘लट्टू’, ‘वे उसके पिता नहीं थे’, ‘अजनबीपन’,‘खोटा सिक्का’ और ‘मां ’ ये सभी कहानियां कहीं न कहीं एक ऐसा ही घर तलाशती हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘पेइंग गेस्ट’ की नौजवान लड़की शालिनी रांची से दिल्ली पढ़ने और मृत मां के अभाव से घर में फैली उसकी स्मृतियों  से उपजी पीड़ा को भूलने की कोशिश में आयी है।  यहां आकर मिसेज मैठानी नाम की एक अधेड़, अविवाहित और एकाकी जीवन बिताने वाली महिला के घर शालिनी पेइंग गेस्ट के रूप में रहने लगती है। तीन वर्ष के साथ के बाद घटनाएं कुछ इस तरह घटित होती हैं कि दोनों के जीवन का खालीपन भरने लगता है। प्रेम में धोखा खाने वाली मिसेज मैठानी शालिनी को अपनी अजन्मी बच्ची मानकर उसके दोस्तों, उसके सुख-दुख का हिस्सा होने लगती हैं। इधर शालिनी के भीतर धुंधला पड़ रहा उसकी मां का चेहरा मिसेज मैठानी के रूप में फिर से चमक जाता है। इस रिश्ते में दरार का सबब बनता है राजेश जिसे शालिनी प्रेम करती है और मिसेज मैठानी को इस विषय में बताना चाहकर भी बता नहीं पाती। मिसेज मैठानी अचानक एक दिन उन्हें देख लेती हैं। शालिनी के बात छिपाने के साथ ही अपनी तरह धोखा न खा जाने की पीड़ा में मां की सी अधिकार भावना के तहत वह शालिनी को डांटती हैं और शालिनी गुस्से में ” आप मेरी मां बनने की कोशिश न करें“ जैसा सपाट वाक्य बोल देती है। लेकिन  शालिनी जानती थी कि ”मिसेज मैठानी उसकी मां बन चुकी हैं। मिसेज मैठानी के अनुभव से ही उसने जाना था कि जिन स्त्रिायों की कोख में बेटे-बेटियां नहीं आतीं उनके भीतर भी एक इंतजार करती हुई मां होती है।“(पृ.29) यह बात समझकर शालिनी दोनों के बीच पसरी चुप्पी को अपने प्यार से तोड़ती है। इस तरह दोनों के खोए हुए घर एक-दूसरे की उपस्थिति से रौशन हो जाते हैं।
‘लट्टू’ कहानी का घर ढूंढता संभ्रात आदमी, प्रापर्टी डीलर और तंग गली के एक डिब्बेनुमा घर का मकान मालिक बच्चों के लट्टू की मौजूदगी मात्रा से अपनी अलग-अलग हैसियतों के बावजूद समान रूप से अपने उस घर को जीने लगते हैं जहां उनका बचपन गूंजता था। बचपन की स्मृतियों से किलकारते घर की सुखद तस्वीर के साथ तीनों का यह दुख भी साझा हो जाता है कि अब ऐसे खिलौने गायब हो रहे हैं और हैं भी तो उनका आनंद उठाने की जगह नदारद है। कहानी का लट्टू केवल खिलौना भर नहीं रह जाता वह जीवन चक्र है जो कहानी में वर्तमान से अतीत की ओर घूम जाता है। इस घुमाव से कुछ पलों के लिए ही सही संभ्रातता टूटती है जिसके भीतर से सामान्य मनुष्य निकलता है जो हथेली पर लट्टू नचाना चाहता है। मकान मालिक, किराएदार से होने वाले मासिक लाभ की सोच से परे हथेली पर लट्टू नचाता हुआ बचपन मेें हासिल की गयी कुशलता के आनंद में खो जाता है। इस लट्टू की उपस्थिति से प्रापर्टी डीलर की व्यावसायिक बुद्वि भी कुछ क्षणों के लिए नेपथ्य में चली जाती है और एक आवाज सुनायी पड़ती है ”यह प्रापर्टी डीलर के गले से निकल रही थी। मगर प्रापर्टी डीलर की जानी-पहचानी आवाज नहीं थी। सिर्फ लहजा ही नहीं बदला हुआ था, आवाज भी बदल गई थी। उसमें एक पुराने खोए हुए बच्चे की आवाज मिल गयी थी।“(पृ. 40)

संग्रह की इन दो सशक्त कहानियों के अतिरिक्त अन्य कहानियों में भी घर की तलाश जारी है। इनमें जिस घर को खोजा गया है वह भौतिक चीज न होकर मनुष्य के उन अनुभवों, स्मृतियों, भावों, गंधों , स्पर्शों का मिला-जुला रूप है जिसे वह वर्ष दर वर्ष संचित करता है। अपने वर्तमान में कहीं खो गए अतीत के इस संचित कोष को जीवित करने की कोशिश करता है। ‘अजनबीपन’ कहानी में दिल्ली के टेलिफोन बूथ पर भोपाल, रांची,भरतपुर, बुलंदशहर से आए लड़के-लड़कियों के चेहरों का रूखापन, सख्त भावहीन और यांत्रिक परत घर के लोगों से बातचीत करने के दौरान एकदम हट जाती है और उसके भीतर से भोले, प्यारे, सहज चेहरे निकल आते हैं। घर से मीलों दूर , फोन के जरिए संबंधों को जीने-महसूस करने की कुछ पलों की कोशिश में ये सभी अजनबी समान चिंताओं को लिए एक ही धरातल पर खड़े दिखायी देते हैं। विस्थापन के साथ ही साम्प्रदायिकता की समस्या के चलते ‘खोटा सिक्का’ के जलील साहब अपने ही मुल्क में बेघर और अजनबी बन जाते हैं। अयोध्या और गोधरा जैसी घटनाओं के माध्यम से प्रियदर्शन ने उस संकीर्ण मानसिकता को उभारा है जिसके तहत हर मुसलमान को आतंकवादी घोषित किया जाने लगता है। देश के स्तर पर घर को खोजने वाली जलील साहब की पीड़ा में कई हिंदू परिवारों का सहयोग कहानी का सकारात्मक पक्ष है। घर की खोज में निकली इन कहानियों की खासियत यह है कि ये हमेशा अकेलेपन से लड़ने का कोई औजार ढूंढकर सुखद मोड़ पर ही विराम पाती हैं।  
‘वे उसके पिता नहीं थे’ कहानी दिल्ली की व्यस्त जिंदगी में एक युवक द्वारा अपने  पिता जैसे दिखाई देने वाले व्यक्ति से बात करने  और उस व्यक्ति में पिता से अंतर के बिंदु तलाशने की एक गहरी ललक कश्मीरवासी अपने मृत पिता को किसी रूप में जीवित करना ही है। पिता जैसे दिखने वाला व्यक्ति भी संवाद के क्रम में उस युवक में अपने उस बेटे को ढूंढता है जो दिल्ली की हवा में अपना-सा नहीं लगता। जीवन में सच्चे संबंधों की प्रतीक्षा और खोज से जुड़ी इन कहानियों में बार-बार विस्थापित पात्र दिल्ली की संवेदनशून्यता पर प्रकाश डालते हैं। इन्हीं कहानियों से वह अंतर्विरोध उजागर होता है जहां शक्ति और सम्पन्नता के महानगरीय केंद्र आपको आकर्षित तो करते हैं वहां दूसरी तरफ संवेदना छीनने के भी दोषी वही हो जाते हैं। 
दरअसल इन कहानियों में जो दोष दिल्ली पर लगाया गया है वह पूंजीवादी तंत्र की ऐसी खामी है जो पूंजी के एवज में व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र के स्तर पर एक समझौतों भरी जिंदगी जीने को विवश करती है। जो लोग व्यवस्था के मानकों पर सफल होना चाहते हैं उनसे यह मुआवजा लिया जा रहा है और यह महानगरों तक सीमित नहीं है बल्कि उन सभी जगहों पर लिया जा रहा है जहां भूमंडलीय पूंजी पैर पसार रही है। यह सत्य संग्रह की ‘वजह’ कहानी से सामने आ भी जाता है जिसमें रांची के अभिजात्य परिवार का नौकर मंगलू सोचता है कि वह है ”एक ऐसी मशीन, जिसकी अपनी कोई इच्छा, अपनी कोई तकलीफ हो ही नहीं सकती। ... गांव की भी याद आती है मंगलू को कभी-कभी। बेकार ही वह वहां से चला आया था। मगर उस समय तो सोचा था कि जल्दी लौट जाएगा। उसे क्या पता था कि गांव और शहर के बीच फासला इतना बड़ा है।“(पृ.104) ‘वजह’ और ‘छोटापन’ दोनों ही जानवरों से गए गुजरे अपने जीवन का श्रमिक वर्ग द्वारा किया गया आलोचनात्मक विश्लेषण है। दोनों ही कहानियों के किरदार लालता और भदरू अपने बच्चों के बेहतर भविष्य का सपना देखते हैं और जो सोच इस सपने को ध्वस्त करती जान पड़ती है, उससे नफरत करते हैं। जुल्म से परे एक नयी मानवीय दुनिया तलाशते श्रमिकों के अलावा मीडिया जगत के कड़ी प्रतियोगिता के दौर में अपनी मंजिलों की खोज में अस्तित्व  रचती लड़कियां ‘खबर पढ़ती लड़कियां’ कहानी में दिखाई देती हैं।
इस संग्रह में खोज से जुड़े अन्य आयाम ‘काहे डगर रोकत...नंदलाल’ और ‘उसके हिस्से का जादू’ कहानियों में भी दिखाई देते हैं। इन कहानियों के तबलावादक पंडित जी और दफ्तर में काम करने वाला तेईस वर्षीय युवक विवाहित होने के बावजूद एक खास तरह के अकेलेपन के शिकार हैं। पंडित जी आत्मविश्वास की कमी के चलते मनपसंद साथी को जीवनसाथी नहीं बना पाते और पचपन वर्ष की उम्र में जाकर उनका संगीत प्रेमी मन एक बार फिर किसी गायिका को पसंद करता है। दूसरी तरफ ‘उसके हिस्से का जादू’ का युवक एक फैंटेसी रचता है जिसमें उसकी प्रेमिका, पत्नी से विपरीत गुणों वाली है। ये दोनों व्यक्ति सोचते हैं कि पहचान के तार गहरे जुड़े होने के कारण एक दिन पत्नियां इस रहस्य को अवश्य जान लेंगी। संबंधों की तलाश में एक समानांतर साथी सृजित करते हुए इस रहस्य को छिपाने की चालाकी जहां दोनो में है वहां एक दब्बूपन भी है। ये लोग इतने सहज रूप से सामाजिक हैं कि परिवार के बंधनों को तोड़ नहीं पाते इसीलिए मानसिक मुक्ति तो पाते हैं पर वास्तविक मुक्ति उन्हें मिल नहीं सकती,वे अच्छी तरह जानते हैं।
जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ छोटे-छोटे लम्हों को जीना सिखाती इन कहानियों की विशिष्टता इनकी भाषा भी है। इस संग्रह के बारे में यह कहा जा सकता है कि कहानी की शक्ल में ये कविताएं ही हैं। कहानीकार का कवि मन कई जगह सिर उठाता है और धूप, बारिश के उसके पसंदीदा बिंब कहानियों में दाखिल हो जाते हैं। सुनहरे भविष्य की आशा लिए एक झटके से वर्तमान में खत्म होती प्रेम कहानी ‘चलते-चलते’ इस कथन की साक्षी है। ”बादल आसमान में बने हुए हैं, सड़कें अलग-अलग हो चुकी हैं, जिंदगी के रास्तों पर यह अधूरी, अनकही प्रेम कहानी लिए कौन कहां निकल पड़ा है, यह न रेशमा को मालूम न राहुल को पता है। बादल, बिजलियां, इंद्रधनुष-- सब इंतजार कर रहे हैं कि कभी कोेई मोड़ आएगा। जब दोनों शायद फिर मिलेंगे और साथ-साथ भीगेंगे-आधा नहीं पूरा-पता सबको है कि इंतजार कभी खत्म नहीं होगा।“(पृ.69) या फिर ‘ वे उसके पिता नहीं थे’ कहानी की अंतिम पंक्तियां ” ... वे इंसान नहीं रह गए थे, रोशनियों से नहाए बुतों में बदल गए थे...एक-दूसरे को सहसा पहचान लेने के भाव ने उन बुतों को कुछ इस तरह जिंदा कर दिया कि इनकी गरदन पर पड़ा शहर का हाथ छिटककर कहीं दूर जा गिरा था और वे जिंदा लोगों तरह इस एहसास के साथ मुस्करा रहे थे कि फिर मिलेंगे और किसी चैराहे पर वक्त या रास्ता पूछते हुए सहसा एक-दूसरे को पहचान लेगे।“(पृ. 100 )
कविता की लय के अतिरिक्त कहानियों में चुप्पी की भाषा कई जगह मौजूद है। ‘पेइंग गेस्ट’ कहानी में शालिनी और मिसेज मैठानी के बीच गुस्से, दुख और आंसुओं से रची गयी चुप्पी है तो ‘खोटा सिक्का ’ के भीतर पहले अयोध्या फिर गोधरा-गुजरात के भयावह नरसंहार और साम्प्रदायिकता के खौफ को रचती चुप्पी मौजूद है। ‘ काहे डगर रोकत...नंदलाल’ के तबलावादक पंडित जी हों,‘वे उसके पिता नहीं थे’ के पिता हों या फिर ‘उसके हिस्से का जादू’ का युवक सभी कम बोलने वाले चुप्पी पसंद लोग हैं इसलिए खुद को असामाजिक न माने जाने के अलग - अलग प्रयास वे करते रहते हैं। कहानियों में चुप्पी की भाषा वाले इन अंशों की खूबी यही है कि कई बार पात्रों के संवादों जितनी और कई बार उससे भी अधिक ,बहुत कुछ अनकहा कहकर यह कारगर भूमिका निभाती है।‘उसके हिस्से का जादू’ की कहानियों के किरदारों की आंगिक हरकतों के साथ बेजान चीजें भी अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हैं। ” उसने देखा, दरवाजा अधखुला-सा था। शायद मिसेज मैठानी के आधे आमंत्रण, आधी उपेक्षा की तरह।“(पृ. 30) इस चुप्पी के साथ ही‘खबर पढ़ती लड़कियां’ में मीडिया की तकनीकी शब्दावली का धुंआधार इस्तेमाल जहां प्रियदर्शन के पत्रकार रूप को सामने लाता है वहां कहानियों के स्तर पर भाषायी वैविध्य को भी पेश करता है।

ये कहानियां जिंदगी के मानवीय सरोकारों से बावस्ता हैं। अलग- अलग समय पर लिखी जाने के बावजूद एक ही अनुभव कोष से निकली होने के कारण कुछ कहानियों में दुहराव की दिक्कत सामने आती है। ये दोहराव भाव और विचार के स्तर पर ही नहीं शब्दों के स्तर पर अधिक सघन होकर सामने आता है और संग्रह में एक-साथ होने की वजह से आसानी से पकड़ में आ जाता है। मसलन ‘पेइंग गेस्ट’ और ‘चलते-चलते’ दोनों ही कहानियों में लड़कियों के सुरक्षित भविष्य की तस्वीर उकेरते हुए कहे गये वाक्य हैं--” ...अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद नेट क्लियर कर ले और लेक्चररशिप की सोचे। हर शहर में कालेज होते हैं, कहीं भी ब्याह में मुश्किल नहीं होगी।“( पेइंग गेस्ट-पृ. 18) और ” उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का आकाश बेहद स्पष्ट है और छोटा भी-- कहीं लेक्चरर बन जाए, किसी स्मार्ट से दिखने और अच्छा कमाने वाले लड़के से उसकी शादी हो जाए...“(चलते-चलते-पृ. 63)। इसी तरह ‘वजह’ और ‘छोटापन’ कहानियों में घरेलू नौकर और फैैक्ट्री मजदूर अपने बच्चों को अपने जैसी जुल्म से भरी जिंदगी से अलग रखना चाहते हुए एक समान नफरत के भाव से इस जिंदगी की समता‘जानवर की जिंदगी’ से करते हैं।
विस्थापन के बाद घर की याद, अतीत को बार-बार जी पाने की कोशिश ,संबंधों में अकेलेपन से लड़ने वाली ताकत को ढूंढती इन कहानियों में वास्तविक घटनाओं और वास्तविक चरित्र वाली शैलप्रिया की कहानी ‘मां’ पाठक पर अपना भरपूर प्रभाव छोड़ती है। संग्रह में आने से पहले संस्मरण के रूप में प्रकाशित इस कहानी को कहानी माने जाने की ठोस वजह कहानीकार ने ‘अपनी बात’ में रखी है ” संग्रह में कुल 11 कहानियां हैं--और जिंदगी का एक पन्ना। यानी एक संस्मरण जो मेरे जीवन के सबसे मुश्किल दिनों से जुड़ा है। सिर्फ वास्तविक होने से वह कहानी होने की पात्राता नहीं खो देता। जब कहानी काल्पनिक चरित्रों और घटनाओं से बन सकती है तो असली चरित्रों और घटनाओं से क्यों नहीं?“ मेरा मानना है कि पाठक ‘मां’ को अगर कहानीकार के इस  स्पष्टीकरण के बिना पढ़ेंगे तो उन्हें लगेगा  कि यह कहानी ही है संस्मरण नहीं।
मां के आंतरिक और बाहरी व्यक्तित्व को बेहद बारीकी से सामने लाने वाली यह कहानी जितनी अपनी संभावित मृत्यु को देख रही शैलप्रिया की है उतनी ही इस तकलीफ में उसके साथ खड़े बेटे और पति की भी है। तीनों के नजरिए से सुखद अतीत के साथ पीड़ादायक वर्तमान का अनुभव पाठक को गहरे तौर पर छूता है। इलाज का सामथ्र्य और मां को जिलाए रखने की दृढ़ इच्छा शक्ति के बावजूद विडम्बनामयी यथार्थ का सामना परिवार को करना ही पड़ता है। लेकिन  मृत्यु के बाद भी मां एक कवयित्री,, एक सामाजिक कार्यकत्र्ता और मानवीय करुणा के एहसास के रूप में जिंदा रहती है।  
उम्र के सभी पड़ावों में खोज और प्रतीक्षा का अनवरत सिलसिला ,सिमटे व्यक्तित्व में सतर्क आक्रामकता , यांत्रिकता, अजनबीपन के विरुद्ध मानवीयता, सहजता, मृदुता, सादगी और अपनेपन का मोर्चा कहानियों में खुलता है।  कहानीकार की नजर में यही वे मूल्य हैं जिनसे घर बनता है। जीवन, विचार-प्रवाह और रचना-संस्कार देने वाली कैंसर पीड़ित मां की मृत्यु इस मोर्चे को मंच देती है जहां  खोज और संबंधों की आत्मीयता एक-दूसरे की पूरक होकर सार्थक हो जाती है और अनायास ही तलाश का सूत्र ‘मां’ की कविता से जुड़ जाता है--
”हम सब तलाशते/ क्षितिज-सी मंजिल/ सागर मंथन में/ कोई मूल्यवान मोती खोजने की अमृत प्यास“ (पृ.130) 

प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन , 134 पेज, हार्डबाऊंड, मूल्य - 150/- रुपये .
पुस्तक यहाँ से आनलाइन मंगाई जा सकती है.


डा प्रज्ञा

1971 में दिल्ली में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए., एम. पिफल. तथा पीएच. डी.। हिंदी के नुक्कड़ नाटकों को विश्लेषित करती पुस्तक ‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय;एन.एस.डी.द्ध, दिल्ली से प्रकाशित।वाणी प्रकाशन से प्रकाशित नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’ । एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा अलवर के सामाजिक- सांस्कृतिक महत्त्व को दर्शाती पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा’। कथन, पहल, सामयिक वात्र्ता, अभिव्यक्ति, लोकायत, और अनभै सांचा जैसी पत्रिकाओं में साहित्यिक, सामाजिक, वैचारिक लेख और साक्षात्कार। इनके अतिरिक्त जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा जैसे राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों में नियमित लेखन। संचार माध्यमों से बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन व भागीदारी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.)के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए रंगशिविर-2007 का आयोजन।  पुरस्कार - सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा ’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार। फिलहाल  दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कालेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोपफेसर के रूप में कार्यरत। 

सम्पर्क: ई-112, आस्था कुंज, सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110085.       

दूरभाष     27876159 , 9811585399

ई मेल- rakeshpragya@gmail.com


टिप्पणियाँ

Vandana Sharma ने कहा…
प्रज्ञा जी! प्रियदर्शन जी की कहानियां और आपकी इतनी श्रेष्ठ समीक्षा से प्रभावित होकर इस पुस्तक को माँगा ही लिया है.
Vandana Sharma ने कहा…
http://kishtiyan.blogspot.in/
प्रज्ञा जी! प्रियदर्शन जी की कहानियां और आपकी इतनी श्रेष्ठ समीक्षा से प्रभावित होकर इस पुस्तक को माँगा ही लिया है

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