हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी और चक्रव्यूह : दो फ़िल्में: आंदोलन तब और अब
विजय शर्मा का यह आलेख दो हिंदी फिल्मों 'हज़ारो ख्वाहिशें ऐसी' और 'चक्रव्यूह' के माध्यम से भारतीय समाज में क्रांतिकारी आन्दोलनों की सफलता-असफलता और विडम्बनाओं की एक समाजशास्त्रीय विवेचना का भी प्रयास करता है. सहमति-असहमति के आगे यह बहस के लिए भरपूर गुंजाइश पैदा करता है.
विद्रोह का मतलब एक समय अंग्रेजों, अंग्रेजी प्रशासन से
विद्रोह था, आज इसका मतलब सरकार से, सत्ता-पुलिस शक्ति से विद्रोह है। संगठित
विद्रोह आंदोलन का रूप धारण करता है।
अन्य देशों की तरह हमारे देश में समय-समय पर बहुत सारे
आंदोलन हुए हैं। आंदोलन या क्रांति देश-समाज में हलचल पैदा करते हैं। कोई-कोई
आंदोलन अपनी चरम स्थिति को प्राप्त होता है अर्थात अपना उद्देश्य प्राप्त करता है।
कुछ आंदोलन देश में हिलोर की तरह उठते हैं और झाग की तरह बैठ जाते हैं। कुछ और
आंदोलन प्रारंभ होते हैं, कुछ दूर चलते हैं फ़िर अपना लक्ष्य भूल कर भटक जाते हैं,
दिशा भ्रष्ट हो जाते हैं। आंदोलन देश-समाज की सड़ी-गली व्यवस्था के परिवर्तन के लिए
आवश्यक हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। कुछ आंदोलन थोड़े से लोगों और
सीमित क्षेत्रीय सीमा में रुक जाते हैं। कुछ आंदोलन पूरे देश को प्रभावित करते हैं
लम्बे समय तक चलते हैं, व्यापक प्रभाव डालते हैं। देश-विदेश तक उनकी गूँज सुनाई
देती है, वर्षों, दशकों तक उनकी चर्चा होती है। कुछ इतिहास में दर्ज होते हैं कुछ
धूल की परतों में दबे रह जाते हैं।
उन्हीं आंदोलनों की सफ़लता की गुंजाइश बनती है जो जनता से
जुड़े होते हैं। जनता क्रांति की रक्तवाहिनी होती है। जनांदोलन के समक्ष भ्रष्ट
राजनीति, सत्ता टिक नहीं पाती है, फ़्रांस की क्रांति से बड़ा इसका उदाहरण क्या
होगा। हमारे देश का स्वतंत्रता आंदोलन भी ऐसा ही जनांदोलन था। किसी भी जनांदोलन की
शुरुआत किसी एक व्यक्ति से होती है। इस अगुआ व्यक्ति के पास एक विजन होता है, एक
मिशन होता है। वह लोगों का विश्वास अर्जित करने में सक्षम होता है। उसमें क्षमता
होती है कि वह लोगों को एकजुट कर सके, उन्हें अपनी बात पर सहमत करा सके, आंदोलन का
संचालन कर सके। वह लोगों को अपने विचारों, अपने स्वप्नों से जोड़ता है और क्रांति
का अग्रदूत बनता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर की तरह बहुत से लोग स्वप्न देखते
हैं और उसे पूरा करने के लिए जनता की अगुआई करते हैं।
हमने बहुत दिन संघर्ष किया, बहुत शहादत दी और तब जा कर १९४७
में हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई। जल्द ही यह स्वतंत्रता आमजन के लिए मिथ्या साबित
हुई। लोगों का इस स्वतंत्रता से मोहभंग हुआ। स्वतंत्रता के अग्रदूतों ने जिस
देश-समाज की कल्पना की थी वह कहीं था ही नहीं। नेहरू का विकास का एकांगी विदेशी
मॉडल हमारे देश के लिए उपयुक्त न था। यह बिरवा कहीं और से ला कर बिना मिट्टी-पानी
की जाँच के यहाँ रोप दिया गया था। जनता त्रस्त थी और इसी समय जेपी ने संपूर्ण
क्रांति का बिगुल फ़ूँका। गाँधी की तर्ज पर उन्होंने क्रांति के लिए छात्रों का
आह्वाहन किया। हजारों छात्र स्कूल-कॉलेजों को तिलांजलि दे कर उनके साथ हो लिए।
इस क्रांति के असफ़ल होने में एक कारण भारत जैसे खेतिहर देश
के किसानों की इसमें कोई भागीदारी न होना थी। जल्द ही इसे सत्ता-शक्ति गठबंधन ने
कुचल दिया और देश अपने काले अध्याय इमर्जेंसी की चपेट में आ गया। अस्सी के दशक में
उदारीकरण, भूमंडलीकरण आया और समय और समाज ने फ़िर पलटा खाया। इस समय से अब तक
भ्रष्टाचार, दमन-शोषण-अत्याचार की इंतहाँ हो रही है, सुधार का कोई रास्ता नजर नहीं
आ रहा है। रक्षक पूरी तरह से भक्षक बन बैठा है। ऐसे में आम आदमी, समाज के हाशिए का
आदमी क्या करे? उसे एकमात्र सशस्त्र आंदोलन का रास्ता नजर आता है। अस्सी के बाद
भारत भूमंडलीकरण की दौड़ में शामिल हुआ। सरकार अमेरिका की नीतियों का गुलाम बन गई।
पूँजीवाद-बाजारवाद की चपेट में समाज पूरी तरह से विकास के एकपक्षीय मॉडल की ओर
ढ़केल दिया गया है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों के हक पर
डाका डाला जाने लगा। उनसे उनकी जमीन, उनके अधिकार छीनने का कुचक्र रचा जाने लगा।
आजकल शिक्षा और मीडिया के कारण जनता जागरुक है। अपना हक आसानी से छोड़ने को वह राजी
नहीं है। हाँ, यह बात दीगर है कि कुछ लोग जनता के हक के नाम पर अपनी रोटियाँ
सेंकते हैं।
जाहिर सी बात है कि जब समाज में इतना कुछ चल रहा है तो वह
साहित्य में आएगा, सिनेमा में दीखेगा। हिन्दी सिनेमा में विभिन्न आंदोलनों पर कई
फ़िल्में बनी हैं, कुछ चलीं, कुछ नहीं चलीं। ‘मंथन’, ‘लाल सलाम’, ‘युवा’, ‘पार्टी’, ‘हजार चौरासी की माँ’, ‘द्रोहकाल’, ‘माचिस’, ‘हु तू तू’, ‘राजनीति’, ‘पिपली लाइव’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’, ‘चक्रव्यूह’ कुछ ऐसी ही फ़िल्में हैं
जिनमें समाज में समय-समय पर हुए आंदोलनों की गूँज सुनाई देती है।
हज़ारो ख्वाहिशें ऐसी |
इनमें से दो फ़िल्मों को देखना रोचक होगा, एक है सुधीर
मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और दूसरी है प्रकाश झा की ‘चक्रव्यूह’। दोनों युवा के तेवर को
दिखाती हैं, अपने समय के आंदोलनों से जुड़ी हुई हैं। दोनों फ़िल्में इक्कीसवीं सदी
में बनी हैं मगर एक उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध को प्रदर्शित करती है तो दूसरी
इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध को। सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ बीसवीं सदी
के सातवें दशक की कहानी है और प्रकाश झा की ‘चक्रव्यूह’ इक्कीसवीं सदी के प्रथम
दशक को दिखाती है। सुधीर मिश्रा इससे पहले ‘इस रात की सुबह नहीं’ और ‘चमेली’ बना चुके थे। उनकी असाधारण
फ़िल्म ‘इस रात की सुबह नहीं’ मुझे जॉ पॉल सार्त्र के नाटक ‘नो एक्ज़िट’ की याद सदैव दिलाती है।
यूँ तो सुधीर मिश्रा ने अपनी फ़िल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ २००३ में ही
बना ली थी पर उसका प्रदर्शन २००५ में ही हो सका। आपातकाल के समय हुई क्रूरताओं को
दिखाती यह फ़िल्म तीन युवा किरदारों को लेकर चलती है। कॉलेज से ये तीनों तीन दिशा
में जाते हैं। एक बिहार में नक्सली आंदोलन चलाने जाता है, दूसरी ब्रिटेन में पढ़ने
चली जाती है और तीसरा दिल्ली में अपना ऑफ़िस खोल कर बैठ जाता है। कहानी यहीं समाप्त
नहीं होती है। युवा आक्रोश का कितना कारुणिक-त्रासद अंत होता है, विद्रोह को कैसे
कुचल डाला जाता है इसका जीता जागता उदाहरण है यह फ़िल्म। दूसरी फ़िल्म हाल में घटित
सिंगरूर में उद्योगपति और आदिवासी संघर्ष को दिखाती है।
प्रकाश झा के ‘चक्रव्यूह’ के अंत में वे वायज ओवर
से जो कहलवाते हैं वह आज के समाय की सच्चाई है और बहुत मानीखेज है। जब फ़िल्म
समाप्ति की ओर चलती है तब आवाज उभरती है, “कबीर और जूही की शहादत ने गोविंद और
राजन के संघर्ष को और भी हवा दी। तेजी से बढ़ता नक्सलवाद आज देश के २०० जिलों में
अपनी जड़ें जमा चुका है। हजारों हथियारबंद माओवादी गुरिल्ले अपने ही देश की सेना के
साथ एक भयानक खूनी संघर्ष में लगे हुए हैं। एक भी दिन नहीं गुजरता जब भारत की धरती
अपने ही बच्चों के खून से लाल न होती हो। इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता क्यों
नहीं मिल रहा। आजादी के पैंसठ सालों में हमने तेजी से तरक्की तो की लेकिन उतनी ही
तेजी से देश की एक बड़ी आबादी दूर पीछे छूटती चली गई। चमकते भारत की सच्चाई ये है
कि २५% आमदनी पर बस कुछ १०० परिवारों का कब्जा है जबकि हमारी ७५% आबादी रोजाना २०
रुपए पर बसर कार्ने को मजबूर है। इस अंतर से जन्मा आविश्वास और आक्रोश बढ़ता जा रहा
है और शायद वक्त हमारे हाथ से फ़िसलता जा रहा है।” यह है आज के शाइनिंग इंडिया की
वास्तविकता।
सत्तर के दशक में पढ़े-लिखे नौजवान और किसान देख रहे थे कि
सत्ता अपनी शक्ति के मद उन पर मनमाना अत्याचार कर रही है। नाम के लिए जमींदारी
समाप्त हो चुकी थी, जमीन की चकबंदी हो चुकी थी पर वास्तविकता इसके बिलकुल पलट थी।
चारू मजुमदार और कानू सान्याल जैसे माओ पर आस्था रखने वालों के नेतृत्व में
नक्सलबाड़ी आंदोलन चला। बंगाल, बिहार, आंध्र सब इसकी जद में आए। इन लोगों ने
गाँधी-जेपी का सविनय आंदोलन नहीं वरन सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया। सरकार ने
खुद को संकट में पाया। उसकी सत्ता को खुली चुनौती मिली थी। उसने अपनी शक्ति का प्रयोग
किया। सत्ता के दमनचक्र ने इनका नामोनिशान मिटाने के लिए अत्याचार की सारी हदें
पार कर दीं। राजन जैसे न जाने कितने नौजवान इस आंदोलन की बलि चढ़ गए। नक्सलबाड़ी
आंदोलन समाप्त नहीं हुआ पर उसके पास स्पष्ट विजन नहीं रह गया, वह बिखर गया। कुछ
घटक स्वार्थी हाथों की कठपुतली बन गए, कुछ आज भी निष्ठा के साथ संघर्ष में जुटे
हुए हैं।
सत्तर का समय देश में एक साथ कई बातों का दौर था। इस समय एक
ओर संगीत की महफ़िलें सजतीं थीं, रॉक एंड रोल, ट्विस्ट जैसे नृत्य होते थे, छात्रों
के बीच हिप्पी प्रभाव से चरस-गाँजा आम बात थी, हवेलियों को होटल में तब्दील करना
चल रहा था, नव ढ़्नाड्य वर्ग था, आई ए एस क्लास था, दिल्ली में दलाल और एजेंट पनप
रहे थे। कॉलेज-हॉस्टल छात्र नेताओं से पटे पड़े थे। दूसरी ओर नारे थे, जलूस थे,
बिहार में सवर्ण दलितों पर मनमाना अत्याचार कर रहे थे, उन्हें मार कर पेड़ों पर
लटका रहे थे, निम्न जाति की स्त्रियों के साथ बलात्कार हो रहे थे, उनके घर जलाए जा
रहे थे। दलित तब भी गाँव के सवर्णों को अपना भगवान मान रहे थे। भारतीय समाज एक समय
में इन दोनों को जीता है। भारत की यही वास्तविकता आज भी कायम है, एक ओर अमीरी,
दूसरी ओर गरीबी। गरीब कमजोर पर अत्याचार-अनाचार।
‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ में ब्रिटेन
से आई हुई गीता राव (चित्रांगदा सिंह) पर कई लड़कों का दिल आया मगर उसका दिल जज के
बेलौस बेटे सिद्धार्थ तैयबजी (के के मेनन) पर आया हुआ है। हिन्दु माँ और मुस्लिम
पिता का बेटा सिद्धार्थ अमीरी में रहता है, मँहगी शराब पीता है, गाँजा चरस का सेवन करता है। उसे इस बात का
अफ़सोस है और वह व्यंग्य करता है कि न तो वह हिन्दी जानता है न ही बाँग्ला बोल सकता
है। इंग्लिश में वह खुद को सहज अनुभव करता है। समाज की असमानता को देखते हुए
नक्सलवाद की ओर उसका झुकाव है। एक पत्र से पता चलता है कि वह पार्टी का कार्ड
होल्डर है, मार्क्स और लेनिन की विचारधारा पर विश्वास करता है। वह मानता है कि
समाज परिवर्तन का एकमात्र उपाय मार्क्स-माओ के विचारों को अमली जामा पहनाने में
है।
विद्यार्थी जीवन में बहुत सारे लोग सिद्धार्थ की तरह क्रांति
की बात करते हैं लेकिन बाद में वक्त आने पर अपने कैरियर, अपने परिवार का हवाला दे
कर कन्नी काट लेते हैं। प्रवीर, सिद्धार्थ जैसे एकाध लोग इस जोखिम की राह पर चलते
हैं। सिद्धार्थ को अपने आदर्श अधिक प्रिय है, वह अपने ऊसूलों के लिए अपने प्रेम को
छोड़ देता है। अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए बिहार के भोजपुर के एक
गाँव पहुँचता है। अभी तक हवा में घोड़े दौड़ाने वाले सिद्धार्थ को अचानक सच्चाई का
सामना करना भीतर तक हिला कर रख देता है। वह पुलिस की क्रूरता का शिकार होता है। उसके
साथी उसे अस्पताल से भगा ले जाते हैं।
गीता जो पहले राजनीति में तनिक भी उत्सुक न थी। वह
सिद्धार्थ के इसरार के बावजूद उसके साथ नहीं जाती है और अपने तबके के एक आईएएस
युवक अरुण मेहता (राम कपूर) से शादी करती है। वह अपने प्रेम को भुला नहीं पाती है।
सिद्धार्थ से बराबर मिलती है। कुछ दिन बाद वह पति से अलग होकर गाँव आ जाती है। वह अपने
पति अरुण को दु:ख नहीं पहुँचाना चाहती है पर उससे अलग हो जाती है। सिद्धार्थ से
उसका एक बेटा चेतन पैदा होता है। गीता शिक्षा और स्वास्थ्य के द्वारा समाज में
परिवर्तन लाना चाहती है। पहले सिद्धार्थ उसकी सोच और कार्य की हँसी उड़ाता है, उसे
नहीं लगता है कि समाज का इस तरह कुछ भला हो सकता है। वह अधिक रेडिकल तरीकों पर
विश्वास करता था लेकिन बाद में फ़्रस्ट्रेटेड हो कर वह सब छोड़ कर दूर चला जाता है।
गीता गाँव में रह कर शिक्षा और समाज कल्याण के अन्य कार्य करने लगती है।
फ़िल्म बहुत यथार्थवादी ढ़ंग से उस समय के युवा की मानसिकता
को दिखाती है। गीता स्वयं ग्राम सुधार के काम करती है मगर जब उन्हें नक्सली करार
दे कर दिया जाता है और उन लोगों को छुप कर रहना पड़ता है तो वह अपने बेटे को अपने
माता-पिता के पास इंग्लैंड भेज देती है। सिद्धार्थ का क्रांति पर से विश्वास डिग
जाता है। वह पुलिस अत्याचार का शिकार होता है। गीता और सिद्धार्थ दोनों को पुलिस
गिरफ़्तार करके उन पर जम कर अत्याचार करती है। गीता का पूर्व पति अरुण अपने रसूख से
उसे छुड़ा ले जाता है। सिद्धार्थ सब छोड़-छाड़ कर आगे की पढ़ाई करने ब्रिटेन चला जाता
है। उसे लगता है कि अभी जनता क्रांति के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है। सुरक्षित
जीवन बिता रही गीता गाँव वालों का अपने तरीके से उद्धार करने का निश्चय करती है और
वहीं रह जाती है। गाँव जहाँ कमजोरों पर अत्याचार-अनाचार हो रहा है फ़िर भी वे लोग
मुस्कुराते हैं, गाते-नाचते हैं। हाँ, यही फ़ितरत है वंचितों की वे अपने दु:ख-दर्द,
शोषण-दमन के बीचे भी गा-नाच लेते हैं, मुस्कुरा लेते हैं। ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘चक्रव्यूह’ दोनों में यह देखा जा
सकता है।
दिल्ली के हिन्दु कॉलेज में इनका एक और साथी है विक्रम
मलहोत्रा (शायनी आहूजा)। वह गीता को प्यार करता है, बिना कभी स्पष्ट रूप से
स्वीकार किए हुए। पत्र में वह अपने प्रेम का इजहार करता है। विक्रम अपने गाँधीवादी
पिता का सम्मान करता है और उनकी जीवन शैली से चिढ़ा भी रहता है। उसे नहीं लगता है
कि उनके मूल्य समाज के किसी काम के हैं। अपने दोस्तों को उनकी पार्टी के लिए चंदा
दिया करता है। वह खुद जल्द-से-जल्द बड़ा बनना चाहता है, समाज में अपनी स्थिति मजबूत
करना चाहता है। दलाली, झूठ बोलना, खरीद-फ़रोख्त में हिस्सा लेना, सरकार के लोगों की
सहायता करना, वह कुछ भी करने को तैयार है। महत्वाकांक्षी विक्रम दिल का बुरा नहीं
है। जब उसे पता चलता है कि गीता फ़िर से बिहार चली गई है और वहाँ उसको खतरा है तो
वह उसके लिए बिहार जाता है। वहाँ सिद्धार्थ की जगह वह पुलिस द्वारा इस बेहरहमी से
मार खाता है कि अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। बिहार के हरे-भरे खेतों के बीच
हिंसा और क्रूरता की पराकाष्ठा एक विडम्बना की ओर इंगित करती है। बिहार उस समय सच
में हिंसा-क्रूरता, शोषण-अत्याचार की भूमि बना हुआ था। पुलिस की क्रूरता अब भी बनी
हुई है बल्कि और नए-नए तरीके इजाद हो गए हैं। पुलिस के नाम से आम आदमी सिहर उठता
है।
दर्शक को बहुत सारी बातें पत्र द्वारा पता चलती हैं।
सिद्धार्थ गीता को पत्र लिखता है, विक्रम गीता पर अपने प्रेम का इजहार पत्र द्वारा
करता है, गीता विक्रम को उसकी सहायता, उसके उपकार के फ़लस्वरूप पत्र लिखती है। पाँच
वर्ष की अवधि (१९६९-१९७६) को समेटे हुई यह फ़िल्म इमर्जेंसी काल के काले कारनामों
को कभी संकेत में कभी प्रत्यक्ष दिखाती है। फ़िल्म प्रेम, महत्वाकांक्षा, और राजनीति
का मिला-जुला संस्करण है। फ़िल्म का नाम और उसकी थीम गालिब की पंक्तियों “हजारों
ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फ़िर भी कम
निकले। मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने मरने का, उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफ़िर
पे दम निकले” को सार्थक करती है।
सत्तर के दशक में जो आँधी पूरे देश में उठी थी वह बहुत
जल्दी बैठ गई यह आज सब जानते हैं। सत्तर के दशक के मोहभंग की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति
नक्सल आंदोलन में हुई थी जिस क्रूरता से उसे दबा कर नष्ट कर दिया गया था उसी की
बात यह फ़िल्म करती है। सारा देश बिचौलियों और दलालों के हाथ सौंप दिया गया है।
हवेलियाँ होटलों में तब्दील होने लगी थी। यह आज भी जारी है। पूरा देश पर्यटन के
लिए प्रस्तुत है दुनिया के सामने इसके महल-अट्टारियों के साथ इसकी झुग्गी-झोपड़्याँ
भी। एक ओर करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं, दूसरी ओर करोड़ों लोग पशु से बदतर जीवन
जीने को अभिशप्त हैं। प्रजातंत्र एक मखौल बन कर रह गया है। सिद्धार्थ का सिद्धांत
से पलायन यथार्थ पर आधारित है। उस समय संपूर्ण क्रांति के स्वप्न देखने वालों में
से अधिकाँश का क्रांति से मोह भंग हुआ था और वे सत्ता और शक्ति की ओर चल पड़े।
गीता-सिद्धार्थ का बच्चा विदेश से पढ़ कर लौटेगा इसमें शक है। यदि लौटा भी तो क्या
वह भारत की तस्वीर बदलने का प्रयास करेगा? शायद करेगा एकाध फ़ैक्ट्री लगा कर। शायद
जमीन के असली हकदारों से उनके अधिकार छीनने का काम करेगा। वह शाइनिंग इंडिया की
बात करेगा, उदयीमान भारत से आँख मूँदे रहेगा। आदिवासी, किसान, मजदूर के साथ उसका
वही व्यवहार और नजरिया रहेगा जो ‘चक्रव्यूह’ में मांधाता स्टील मैग्नेट के विदेश में
पले-बढ़े बेटे और खुद उद्योगपति का है।
‘हजारों ख्वाहिशे’ फ़िल्म में
चित्रांगदा सिंह, के के मेनन का अभिनय बेहतरीन है। चित्रांगदा की मासूमियत, उसकी
खिलती मुस्कुराहट, उसकी दृढ़ता और सबसे बढ़ कर उसकी बोलती-जीवंत आँखें, उसकी शालीनता
सब लुभाते हैं। गीता के रूप में चित्रांगदा सिंह को परदे पर देखना एक खुशनुमा
अनुभव है। वह बार-बार स्मिता पाटिल की याद दिलाती है। शाइनी आहूजा की यह पहली
फ़िल्म थी और उन्हें इसके लिए सम्मान मिला। विक्रम कभी मूक प्रेमी बनता है, कभी
राजनीति में हाथ डालता है, कभी फ़िक्सर बनता है, कभी अपनी ऊँची पहचान का फ़ायदा
उठाता है। अंत में गीता के संरक्षण में मानसिक रूप से नष्ट हुए व्यक्ति के रूप में
जीवन बिताता है।
अस्सी के बाद उदारीकरण की बयार ने मूलवासियों की जमीन को
हथियाने के तमाम हथकंड़े अपनाए गए। इस बार आदिवासी एकजुट हैं। वे अपनी जमीन छोड़ने
के लिए राजी नहीं है। अपने अधिकार की कीमत वे जान दे कर चुकाने को कटिबद्ध हैं।
सरकार इन्हें नक्सली-आतंकवादी कह कर इनका सफ़ाया करना चाहती है। एक दुश्मन से लड़ना
कठिन है, इन आदिवासियों को व्यापारी घराने के लोगों, नेता और पुलिस तीन-तीन
दुश्मनों से लड़ना है। इसी लड़ाई को परदे पर उतारा है प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ बना कर। प्रकाश झा
बिहार की सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों से भलीभाँति परिचित हैं। १९८४ में ‘दामुल’ बना कर उन्होंने हिन्दी
सिनेमा की एकरसता को तोड़ा था। उन्होंने ‘मृत्युदंड’, ‘आरक्षण’ और ‘राजनीति जैसी कई फ़िल्में बनाई हैं।
नक्सल विषय पर फ़िल्म बनाना आसान नहीं है। नक्सलवाद एक जटिल विषय है। नक्सल और
सरकार की भूमिका से आज जन-जन परिचित है। रोज अखबार और टीवी में इनकी खबरें आती
हैं। फ़िल्म भी खबरों से उठा कर बनाई गई है जहाँ कभी पुलिस का दाँव लग जाता है तो
नक्सल लीडर पाक्ड़े जाते हैं, दर्जनों नक्सली हलाल हो जाते हैं, कभी नक्सली मौके पर
लड़ते हुए पुलिस के कई जवानों को मार गिराते हैं। पुलिस के एन्काउंटर की सच्चाई से
आज सारा समाज वाकिफ़ है।
‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ की तरह यहाँ
भी कॉलेज के दोस्त हैं। फ़िल्म तीन दोस्तों की बात करती है मगर मेरी दृष्टि से दो
ही दोस्त हैं। आदिल खान (अर्जुन रामपाल) की पत्नी रिया मेनन (ईशा गुप्ता) की फ़िल्म
में कोई आवश्यकता नहीं थी। उसे न तो अभिनय ज्ञात है न ही किसी भी तरह से वह
प्रभावित करती है। उसका ओवर कॉन्फ़ीडेंस उस पर फ़बता नहीं है। शायद निर्देशक ने
नक्सली एरिया कमांडर जूही (अंजली पाटिल) के संतुलन के लिए उसका किरदार रखा है। मगर
वह अंजली पाटिल के पासंग बराबर भी नहीं ठहरती है। जबकि अंजली नक्सली जूही के रूप
में पूरी तरह से समा जाती है। उसका तेवार, उसका जुझारूपन देखते बनता है। ईशा पुलिस
वाली बन नहीं पाई। खासकर अंतिम दृश्य में कबीर (अभय देयोल) की मृत्यु पर वो जो भाव
प्रकट करती है वह बुरी तरह से हास्यास्पद लगता है। शायद यह संयोग है कि दोनों
फ़िल्मों में स्त्री भूमिका में किरदार गीता राव, रिया मेनन को दक्षिण भारतीय
स्त्री दिखाया गया है। इसका कोई खास कारण नजर नहीं आता है कि ऐसा क्यों किया गया। मांधाता
(वेदांता की तर्ज पर) प्रोजेक्ट के मालिक के रूप में कबीर बेदी फ़बते हैं और उनके
बेटे ने भी विदेश पलट हिन्दुस्तानी की अच्छी एक्टिंग की है। खान स्पष्ट रूप से
मुसलमान है उसे नमाज पढ़ते दिखाया गया है, बिहार में हिन्दुओं में भी खान टाइटिल
मिलता है। कबीर नाम हिन्दु-मुस्लिम दोनों में कॉमन है अत: बताना मुस्किल है कि
फ़िल्म का कबीर हिन्दु है अथवा मुसलमान। निर्देशक ने आदिल खान और कबीर नाम रख कर
शायद यह दिखाने की कोशिश की है कि देश का अल्पसंख्यक भी समाज की त्रासदी से त्रस्त
है और अपने तई समाज को बदलना चाहता है चाहे वह कहीं भी हो पुलिस फ़ोर्स में अथवा
नक्सल कैम्प में।
दोनों फ़िल्मों में समय के साथ निर्देशक की सोच को देखा जा
सकता है। आज सामाजिक सरोकार की फ़िल्म बनाने वाले निर्देशक भी फ़िल्म में लटका-झटका
डालने से खुद को रोक नहीं पाते हैं, तिग्मांशू धूलिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं।
प्रकाश झा भी खुद को रोक नहीं पाए। ‘चक्रव्यूह’ फ़िल्म में आइटम साँग
पूरी तरह मिसफ़िट है। समीरा रेड्डी के ‘कुंडा खोल’ से फ़िल्म का नुकसान हुआ
है। यह ठीक है कि इस दृश्य से एरिया कमांडर नागा (मुरली शर्मा) के चरित्र का पता
चलता है और पंचायत उसे इसकी सजा देती है मगर यह काम बिना आइटम साँग के भी हो सकता
था। शायद यह चवन्नी (वैसे अब चवन्नी टिकट नहीं होती है) दर्शकों के लिए आवश्यक था।
बॉक्सऑफ़िस की सफ़लता का सस्ता फ़ार्मूला।
सिद्धार्थ अपने अंतिम पत्र में गीता को लिखता है कि शायद वह
पढ़-लिख कर भारत लौट आए। क्या ‘हजारों ख्वाहिशें’ का सिद्धार्थ ही चक्रव्यूह का लंदन
पलट नक्सल मास्टरमाइंड प्रोफ़ेसर गोविन्द है? वह धनी है पढ़ा-लिखा है, मार्क्स के
विचारों में विश्वास रखता है, उन्हीं विचारों के तहत लोगों को एकत्र करके विद्रोह
के लिए तैयार करता है। अभिनय की बात करें तो नक्सल के सलाहकार के रूप में प्रोफ़ेसर
गोविंद के किरदार में ओम पुरी, नक्सल लीडर राजन के रूप में मनोज बाजपेयी ने
अपने-अपने अभिनय से बहुत प्रभावित किया। अभय देयोल का चारित्रिक परिवर्तन बहुत
स्वाभाविक तरीके से होता है। जन नाट्य मंडली में जनगीत गाता हुआ वह लाल क्रांति का
अंग लगता है। वह अपने दोस्त आदिल खान का इंफ़ार्मर बन कर नक्सली गढ़ में शामिल होता
है। लेकिन जल्द ही उसके सामने सच्चाई आ जाती है। वह देख रहा है कि बिजनेसमैन और
सत्ता दोनों के पास कोई मूल्य नहीं हैं और पुलिस असहाय है, उसे केवल हुक्म पालन
करना आता है। दूसरी ओर नक्सली अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। उनके मूल्य और
चरित्र दृढ़ हैं। एरिया कमांडेंट जो रकम जमा करते हैं वह केवल मूवमेंट के लिए खर्च
होनी चाहिए। अनुशासन भंग करने वाले एरिया कमांडेंट नागा को जन पंचायत सजा देती है।
नागा आंदोलन के साथ है, वह पुलिस के साथ बराबरी से लड़ता है लेकिन उसकी
अनुशासनहीनता बरदाश्त नहीं की जाती है। दूसरी ओर उद्योगपति और राजनेता रोज नियम
भंग करते हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब नीतियाँ अपना सकते हैं।
कबीर प्रारंभ से एक दृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति है, अत्याचार
बरदाश्त नहीं करता है। इसीलिए वह पुलिस प्रशिक्षण बीच में छोड़ कर चला जाता है।
आदिल खान इस बात पर उससे खफ़ा था। कॉलेज री-यूनियन के समय कबीर आदिल को मना लेता
है। बाद में खान की सहायता के लिए वह नक्सलियों के यहाँ जाता है। वह अपने दोस्त
खान को समझाने का प्रयास करता है, नक्सलियों और दूसरी पार्टी की असलियत से वाकिफ़
कराना चाहता है। वह पुलिस का खबरिया बन कर नक्सली समूह में शामिल होता है और उनकी
ईमानदारी और उद्देश्य जान कर उन्हीं का हो जाता है। उसे अपने दोस्त खान को चोट
पहुँचाने का दु:ख है नक्सली बनने का नहीं। वह विकास और प्रगति के नाम पर होने वाले
विस्थापन को पहचानता है। शक्तिशाली और शक्तिहीन लोगों के मूल्यों के अंतर को समझ
जाता है और अपने ज़मीर की आवाज सुनता है।
शुरु से अंत तक फ़िल्म ‘चक्रव्यूह’ एक थ्रिलर की तरह चलती
है। भारत के अधिकाँश आंदोलनों की पृष्ठभूमि में जमीन रही है। यहाँ ‘चक्रव्यूह’ में आंदोलन का
प्रत्यक्ष कारण जमीन है। आदिवासी अपनी भूमि के लिए १८३१ से ही लड़ते आ रहे हैं।
पहले विदेशी सरकार से लड़ रहे थे अब स्वतंत्रता के बाद अपनी ही चुनी हुई सरकार से
लड़ रहे हैं। आदिवासियों की जमीन उद्योग के लिए खाली कराना आज का फ़ैशन बन गया है
जिसमें सरकार भी शामिल है। प्रकाश झा ‘दामुल’ में उग्रवाद की प्रत्यक्ष
बात नहीं करते हैं, आज समय के साथ बहुत सारी बातें साफ़ हो गई हैं। अत: ‘चक्रव्यूह’ खुल कर विद्रोह दिखाता
है और फ़िल्म उद्योगपति और राजनीतिज्ञों की कुटिल चाल का पर्दाफ़ाश करती है। दोनों
अपने स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं। फ़िल्म दिखाती है कि उद्योग लगाने
के लिए आदिवासियों का विस्थापन करने में राज्य सरकार उद्योगपतियों का साथ देती है
जबकि उसे जनता के कल्याण के लिए चुना गया है। नेता हर हाल में अपनी कुर्सी बचाए
रखना चाहते है और उन्हें ज्ञात है कि वह उद्योगपति की कृपा से ही बची रह सकती है।
आर्थिक-राजनैतिक गठबंधन आदिवासियों को समूल उखाड़ फ़ेंकना चाहते हैं।
फ़िल्म दिखाती है कि माओवादियों को कुचलने के लिए राज्य
सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगाती है मगर नक्सली अब भस्मासुर और रक्तबीज में परिवर्तित
हो चुके हैं। उन्हें समाप्त करना आसान काम नहीं है। ‘चक्रव्यूह’ की विशेषता है यह दर्शक
को अंत तक बाँधे रखती है। निर्देशक प्रकाश झा का अपनी विधा पर पूरा नियंत्रण है। झा
की ही फ़िल्म ‘राजनीति’ से तुलना करें तो झा का काम यहाँ बहुत सुंदर है। माओवाद पर एक सार्थक
फ़िल्म है, डॉक्यूमेंट्री की तरह नीरस नहीं है। एक बात जो खटकती है, वह है संवाद।
किस जगह की भाषा का प्रयोग हुआ है? यहाँ तक कि जूही जो खुद को झारखंड का बताती है
उसकी भाषा भी थोड़ी अटपटी है। संवाद अदायगी सबकी बहुत अच्छी रही है, बस एक आदिल खान
की पत्नी को छोड़ कर। वह खुद एक पुलिस अफ़सर है और इस बात को वह जरूरत से ज्यादा
अभिनय के साथ साबित करना चाहती है जो जमता नहीं है।
दोनों फ़िल्मों के भौगोलोक विस्तार को देखें तो एक फ़िल्म
कलकत्ता, दिल्ली और बिहार के साथ ब्रिटेन तक फ़ैली हुई है, दूसरी भौगोलिक रूप से
अधिक केंद्रित है वह बस नंदीघाट और उसके आसपास के गाँवों में हो रहे आंदोलन को
दिखाती है।
यह सही है कि किसी भी फ़िल्म की रीढ़ उसका कथानक होता है मगर
हिन्दी फ़िल्मों का एक अहम हिस्सा और उसकी पहचान हैं उसके गीत, उसका संगीत। ‘हजारों ख्वाहिएँ’ के गीत उसकी जान
हैं, चक्रव्यूह के गीत अच्छे होते हुए भी वो प्रभाव नहीं डालते हैं। ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ शीर्षक
मिर्जा गालिब से लिया गया है, बाली के गीत स्वानंद किरकिरे, अजय झिंगन, भिखारी
ठाकुर और पुष्पा पटेल के हैं। मिर्जा गालिब और उनकी शायरी पर कुछ कहने की जरूरत
नहीं है पर दो शब्द भिखारी ठाकुर पर अवश्य। भिखारी ठाकुर बिहार के एक प्रसिद्ध
गीतकार हैं, जिनके रचे गीत एक समय बच्चे-बच्चे की जबान पर थे। उनके जीवन को केंद्र
में रख कर कई नाटक लिखे गए हैं। दोनों फ़िल्मों का कर्णप्रिय संगीत शांतनु मोइत्रा
ने दिया है। ‘हजारों ख्वाहिएँ’ में मध्यम गति के डाँस और गाने हैं जबकि चक्रव्यूह में तेज
गति के नाच-गाने हैं। लोक गीत का प्रयोग झा की विशेषता है। मँहगाई, और कुंडा खोल
सब गीतों और नृत्य में त्वरा है। ‘कुंडा खोल’ का रिदम गजब का है। ‘मँहगाई’ जन नाट्य गीत सटीक
फ़िल्मांकन के बावजूद बहुत दिन याद नहीं रहता है। शुभा मुद्गल की पावरफ़ुल आवाज में ‘ख्वाहिशें’ का शीर्षक गीत तुलना
करने पर जगजीत सिंह को काफ़ी पीछे छोड़ जाता है। ‘बावरा मन’ फ़िल्म समाप्त होने के
काफ़ी बाद तक मन में गूँजता है। ‘हे सजनी’ और ठुमरी ‘न आए पिया’ की मधुरता भी आकर्षित
करती है। लोक का स्पर्श फ़िल्म को ऊँचाई प्रदान करता है। ‘चक्रव्यूह’ के संगीत में आदेश
श्रीवास्तव, सलीम-सुलेमान तथा विजय वर्मा का भी सहयोग है। गायक के रूप में शान,
सुनिधि चौहान, सुखविंदर, कैलाश खेर आदि कई लोगों ने काम किया है। एक और संयोग है
दोनों फ़िल्मों में ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ गीत का प्रयोग हुआ है। दोनों फ़िल्मों के गीत-संगीत में
समय के साथ आए भारतीय फ़िल्म गीत-संगीत के परिवर्तन को लक्षित किया जा सकता है। ‘छीन के लेंगे’, ‘मँहगाई’ जैसे गीत फ़िल्म के मूड को
और आज के वक्त को अभिव्यक्त करते हैं।
सत्तर के दशक के युवा वर्ग की महत्वाकाक्षाओं और उससे उपजे
दिशाभ्रम और अंतर्विरोध की कहानी है ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’। इस फ़िल्म
की चर्चा और तारीफ़ जम कर हुई। इतना सब होते हुए भी फ़िल्म दर्शकों को रास न आई। हाँ
इसने समीक्षकों की वाहवाही लूटी और पुरस्कार-सम्मान भी बटोरे। शायनी आहूजा को
डेब्यू अभिनेता का पुरस्कार मिला और फ़िल्म को सर्वोत्तम कहानी का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड
मिला था। फ़िल्म विश्व के कई फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शित हुई थी। सचिन कृष्ण ने
सत्तर के दशक के बॉल रूम डांस और उस समय के दूसरे प्रचलित नृत्यों को ‘हजारों ख्वाहिशें’ में साकार किया
है।
‘चक्रव्यूह’ के विद्रोही जानते हैं
कि सत्ता से भिड़ना आसान नहीं है, वे जानते हैं कि उनकी ताकत पुलिस के सामने बराबरी
की नहीं है मगर वे अपनी जमीन आसानी से उद्योगपति को देने को राजी नहीं है। इस बीच
मुझे एक डॉक्यूमेंट्री बराबर याद आ रही है जिसके बनने में झारखंड के लोगों का भी
सहयोग है। यह वृत्तचित्र इतनी सुंदरता और सार्थकता से अपनी बात कहता है कि आश्चर्य
होता है। ‘गाँव छाड़ब नाहीं’ मुझे अपने मित्र सत्य पटेल से प्राप्त हुई। आज तक न जाने
कितनी बार कितने लोगों को दिखा चुकी हूँ। बॉक्साइड खनन को लेकर चले आंदोलन पर बनी
यह डॉक्यूमेंट्री बाँसुरी की धुन पर विद्रोह का बिगुल फ़ूँकती है, सुन कर रोमांच
होता है। आदिवासियों ने तय कर लिया है बिना लड़े वह अपनी इंच भर भी जमीन किसी
अत्याचारी को नहीं देगा। ‘चक्रव्यूह’ के विद्रोही भी मरने-मारने को उतारूँ है, भले ही नतीजा कुछ भी हो।
वे कहते हैं कि यह हमारी जमीन है, हम यहीं पैदा हुए हैं, यहीं जीएँगे, यहीं
मरेंगे।
‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ में बाहर से
आए लोग गाँव वालों के लिए लड़ रहे हैं। स्थानीय लोगों की भागीदारी को यह फ़िल्म
रेखांकित नहीं करती है जबकि ‘चक्रव्यूह’ में संघर्ष करने वाले खुद आदिवासी हैं।
प्रोफ़ेसर गोविंद सूर्यवंशी जैसे एक्का-दुक्का लोग उनके साथ हैं मगर विद्रोह की
पूरी बागडोर खुद उन लोगों के हाथ है जिनका शोषण हो रहा है। अपनी लड़ाई खुद लड़नी
होगी यही संदेश है इस फ़िल्म का। फ़िल्म इसका खुलासा करती है कि आखीर ये सीधे-सादे
आदिवासी विद्रोह पर कैसे उतारू हो गए। जूही के परिवार के साथ जो हुआ वह आज न जाने
कितने परिवारों के साथ हो रहा है तब आदिवासी युवा क्या करे? सवाल यह है कि क्या
शांतिपूर्ण तरीके से शिक्षा और स्वास्थ्य के द्वारा समाज बदला जा सकता है? क्या
अत्याचार और शोषण को बिना सशस्त्र क्रांति के समाप्त किया जा सकता है?
सुधीर मिश्रा मानते हैं कि अब चीजें बहुत जटिल हो गई हैं,
तब विषय वस्तु सहज कैसे हो सकती है। अब न तो कोई प्रत्यक्ष तौर पर नायक है न
खलनायक। वे कहते हैं कि आज के जो बच्चे हैं, जो नौजवान हैं वे एक ऐसे समाज में जी
रहे हैं जहाँ स्टेट ने अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लिया है। आज यहाँ हर किसी को
अपनी लड़ाई खुद लड़नी है। आदिवासी जमीन में शोषण और अत्याचार आजादी के सात दशकों बाद
भी जारी है। जाहिर है प्रतिरोध होगा ही और प्रतिरोध का मतलब आज भी भाषा में माओवाद
या नक्सलवाद है। सरकार और प्रधानमंत्री के लिए देश के लिए यह सबसे बड़ा आंतरिक खतरा
है। प्रकाश झा का ‘चक्रव्यूह’ इसे विस्तार से दिखाता है।
सुधीर मिश्रा यह भी मानते हैं कि निर्देशक का काम लोगों के
अंदर एक राजनैतिक चेतना भरने की कोशिश करना है। राजनैतिक चेतना के भीतर वे सामाजिक
या सांस्कृतिक चेतना भी रखते हैं क्योंकि वे इन्हें अलग-अलग करके नहीं देख पाते
हैं। उनका मानना है कि जब तक हमारे अंदर राजनैतिक चेतना का विकास नहीं होगा हम
सत्ता तंत्र या बाजार के षड्तंत्र का शिकार होते जाएँगे। वे यह भी मानते हैं कि जब
भी लीक से हट कर फ़िल्म बनाई जाएगी तो कई दबावों से गुजरना होगा, लेकिन इस कारण चुप
हो कर नहीं बैठा जा सकता है। इस बात को लेकर वे हताश नहीं हैं क्योंकि वे
पलायनवादी नहीं हैं। वे चुनौती को स्वीकार करते हैं और बहुत रचनात्मकता से काम
करते हैं। प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा दोनों सच्चाई से आँख मिलाते हैं। वे समस्या
को दिखाते हैं साथ ही समस्या की जड़ को भी उजागर करते हैं।
इन फ़िल्मों की गति समय के अंतराल को स्पष्ट दिखाती है।
सत्तर के समय को धीमी गति से दिखाया गया है उस समय तक भारत के लोगों ने भागना नहीं
शुरु किया था। लोगों की जिंदगी खरामा-खरामा चला करती थी मगर अस्सी के बाद की तेज
रफ़्तार को ‘चक्रव्यूह’ फ़िल्म की गति में देखा जा सकता है। समय के साथ आई फ़िल्म विधा के
परिवर्तनों को भी दोनों फ़िल्में रेखांकित करती हैं। दोनों फ़िल्में गवाह बनती हैं
पुलिस की बर्बरता की। इस बर्बरता में अब आधुनिक हथियार भी आ जुड़े हैं। ‘ख्वाहिशें’ में असंवेदनशील, चालाक
पुलिस वाले की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने कमाल किया है। सिद्धार्थ को अस्पताल में
न पाकर इस पुलिसिए की खीज और उस खीज से चिढ़ कर विक्रम को निशाना बनाना क्रूरता का
चरम है। जब पता चलता है कि विक्रम की पहुँच ऊपर तक है तो उनका रुख बदल जाता है। वे
उसे लोहे की सरिया से दम तक पीटते हैं और मरा हुआ जान कर छोड़ कर चल देते हैं। अपनी
जान बचाने के लिए किसी दूसरे की जान ले लेना इनके बाएँ हाथ का खेल है। ‘ख्वाहिशें’ की तरह ही ‘चक्रव्यूह’ फ़िल्म में पुलिस न केवल
जूही को गिरफ़्तार करती है वरन उसके साथ जम कर बलात्कार भी करती है। वास्तविक जीवन
में पुलिस का यह घिनौना चेहरा बराबर अखबार और टीवी पर दिखाई देता है। अब पुलिस के
पास आधुनिक हथियार और हैलीकॉफ़्टर भी उपलब्ध है जिसे वे माओवादियों का सफ़ाया करने
के लिए प्रयोग करते हैं।
दोनों फ़िल्मों का अंत इनके मूड को दिखाता है। ‘ख्वाहिशें’ में गीता और विक्रम एक
झील के किनारे शांत बैठे हैं और दिन ढ़ल रहा है मगर ‘चक्रव्यूह’ में विद्रोही मार्च कर
रहे हैं और निर्देशक देश-समाज की वर्तमान स्थिति पर सटीक टिप्पणी करता है।
‘चक्रव्यूह’ की कहानी अंजुम राजबली,
स्क्रीनप्ले अंजुम राजबली, प्रकाश झा तथा सागर पांड्या का है संवाद खुद प्रकाश झा
ने अंजुम राजबली के साथ मिल कर लिखे हैं। संगीत सलीम-सुलेमान, आदर्श श्रीवास्तव
तथा शान्तनु मौइत्रा का है। सदैव फ़िल्म में पात्र और परिस्थितियाँ काल्पनिक बताई
जाती और वास्तविक जीवन से मिलान को सांयोगिक बताया जाता है ताकि बाद में कोई
कानूनी परेशानी न हो। झा बड़े दमदार तरीके से ‘भैया देख लिया बहुत तेरी सरदारी
रे, अब तो हमरी बारे रे’ (फ़िल्म के एक गीत के बोल) की तर्ज पर फ़िल्म के प्रारंभ
में लिखते हैं, “सभी पात्रों और घटनाओं की रचना वास्तविक जीवन और देश में वर्तमान
वस्तुस्थिति से प्रेरित है। कुछ भी संयोगवश या आकस्मिक नहीं है।” अब आर-पार की
लड़ाई का वक्त आ गया है।
झा की फ़िल्म ‘राजनीति’ से इस फ़िल्म की तुलना
करें तो यह फ़िल्म हर मामले में बेहतर साबित होती है। झा के विकास को यहाँ देखा जा
सकता है। अपनी शुरुआती फ़िल्म ‘दामुल’ में उनका ग्राफ़ बहुत ऊँचा था, ‘राजनीति’ और ‘आरक्षण’ में यह ग्राफ़ थोड़ा नीचे
उतरा पर चक्रव्यूह में यह फ़िर से ऊपर उठता है। करीब ढ़ाई घंटे की फ़िल्म में विषय के
अनुसार रोमांस के लिए खास समय और स्थान नहीं है उसकी केवल झलक मिलती है और पात्र
अपने उत्तरदायित्व में लग जाते हैं।
दोनों फ़िल्में क्रांति पर आधारित हैं, एक की क्रांति अंत
में नरम पड़ जाती है, सुधारवादी रवैया अपनाती है। दूसरी अपने रास्ते से डिगती नहीं
है, अंत कर विद्रोही तेवर बनाए रखती है। ‘चक्रव्यूह’ पर अभी सिंग्रूर में
हुए आंदोलन को पूरी तरह से देखा जा सकता है। सिंग्रूर में उद्योगपति को अपना
प्रोजेक्ट समेट कर भागना पड़ा यह सबको मालूम है। आज देश की हालत देखते हुए सच में
आर-पार की लड़ाई होना जरूरी लग रहा है। आज का युवा विद्रोही सिद्धार्थ की तरह भागने
में नहीं डट कर लड़ने में विश्वास कर रहा है। दोनों फ़िल्में अपने समय और समाज का
यथार्थ दिखाती हैं। सामाजिक सरोकार की फ़िल्म बनाने वाले श्याम बेनेगल का मानना है
कि फ़िल्म का उद्देश्य सामाजिक बदलाव नहीं है, लेकिन वह आइना जरूर दिखाती है। ये
फ़िल्में हमारे समाज का आइना है। समाज में जो घटा और घट रहा है उसे पर्दे पर कुशलता
से उतारती हैं। दोनों फ़िल्मों को देखना दो भिन्न समय में जीने जैसा है। विडम्बना
यह है कि दोनों की काल में समाज एक ओर विकास के पथ पर बढ़ रहा है दूसरी ओर उसकी
मानसिकता ५००० साल पुरानी है। दोनों फ़िल्में अपने-अपने अंत में प्रश्न छोड़ती हैं
कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं? कब रुकेगा यह खून-खराबा? कब सबको अपने अधिकार प्राप्त
होंगे? कब कमजोरों पर अत्याचार-अनाचार रुकेगा? क्या यह कभी रुकेगा? कब समाज में हर
तबके के लोगों को खुशहाली प्राप्त होगी? क्या है इस चक्रव्यूह से निकलने की राह?
क्या कोई राह है?
-----------------------------------------------
l विजय शर्मा,
१५१ न्यू
बाराद्वारी, जमशेदपुर
८३१००१. फ़ोन
नं. ०६५७-२४३६२५१, ०९४३०३८१७१८
टिप्पणियाँ