परमानंद श्रीवास्तव का जाना - पल्लव




आलोचना की एक दिक्कत यह है कि उसकी जरूरत तो सबको है लेकिन अपने विरुद्ध एक वाक्य भी बर्दाश्त कर पाना रचनाकारों के लिए मुश्किल होता है। ऐसे में यह अपेक्षा कितनी विचित्र है कि कोई आलोचक अपने समय की समूची सृजनात्मकता का विश्लेषण-मूल्यांकन करे। परमानंद श्रीवास्तव ने यह काम किया और  बीते तीस -पैंतीस बरसों की व्यापक हिंदी रचनाशीलता का जैसा मूल्यांकन उन्होंने किया है वह सचमुच उन्हें हमारे समय के बड़े आलोचक का दर्जा देने वाला है। राजेन्द्र यादव और के पी सक्सेना के निधन के बाद अब एक और बुरी खबर यह कि आलोचक और कवि परमानंद श्रीवास्तव भी नहीं रहे।  परमानन्द श्रीवास्तव गोरखपुर विश्वविद्यालय में आचार्य रहे थे और वहीं निवास करते थे।  10 फरवरी 1935 को जन्मे श्रीवास्तव  सैद्धांतिक रूप से मार्क्सवादी होने पर भी उदार - लोकतांत्रिक प्रकृति के आलोचक थे और उन्होंने विरोधी विचारधारा के समझे जाने वाले लेखन पर भी सहानुभूति पूर्वक विचार किया। कहानी,उपन्यास और कविता की ऐसी शायद ही कोई मूल्यवान समझी गई किताब होगी जिस पर परमानंद जी ने लिखा न हो।  असल में यह बहुत बड़ी चुनौती है कि कोई आलोचक अपने दौर की तमान रचनाशीलता पर निगाह रखे और अच्छी-बुरी कृतियों का मूल्यांकन भी करे।  यदि कोई आलोचक ऐसा करता है तो मान लिया जाता है कि ये तो सब धान बाइस पसेरी करते हैं या सबको प्रमाण पत्र बांटते हैं। परमानंद श्रीवास्तव ने इस काम को अपने लिए चुनौती की तरह स्वीकारा।  उनकी किताबों की सूची ही सब बताने वाली है - नई कहानी का परिप्रेक्ष्य, कवि कर्म और काव्य भाषा, उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा, जैनेंद्र के उपन्यास, समकालीन कविता का व्याकरण, समकालीन कविता का यथार्थ, शब्‍द और मनुष्‍य, कविता का अर्थात, कविता का उत्‍तर जीवन, अंधेरे कुएं से आवाज़, अंधेरे समय में शब्‍द, उत्‍तर समय में साहित्‍य, सन्‍नाटे में बारिश, उत्‍तर औपनिवेशिक समय में साहित्‍य की संस्‍कृति, प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य। इनके अलावा परमानंद श्रीवास्तव ने साहित्य अकादमी के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों पर मोनोग्राफ भी लिखे।  उनके आधा दर्जन कविता संग्रह और दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए थे।  उनका आलोचना लेखन विद्यार्थियों के लिए भी बहुत उपयोगी रहा जिसे उनके लेखन की उपलब्धि माना जाना चाहिए क्योंकि अगर आपका लिखा हुआ आपके समय के लोगों के काम का न हुआ तो उसका क्या अर्थ? यह ठीक है कि आलोचना के के क्षेत्र में परमानंद श्रीवास्तव ने कोई नया सिद्धांत या स्थापना नहीं दी लेकिन जिस बात के लिए हिंदी समाज को उनका ऋणी होना चाहिए वह यही है कि विपुल रचनात्मक लेखन पर जिस त्वरा और उदारता से उन्होंने लिखा वह सचमुच बड़ी बात है।  उनकी किताब 'हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया' को कहानी आलोचना में क्लासिक का दर्जा तो नहीं है लेकिन यह किताब भी हिंदी में कहानी आलोचना के लिए एक रास्ता बनाने वाली कोशिश के रूप में प्रयाप्त प्रशंसित हुई थी। दूसरी बात यह कि किसी कृति में उदारता के साथ कोई आलोचक किस तरह प्रवेश करता है और उसके तमाम उजाले पक्षों को खोलकर पाठक के समक्ष रख देता है इसके उदाहरण उनकी पुस्तकों में सामान्यत: देखे जा सकते हैं। 'प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य' किताब उनकी आख़िरी महत्त्वपूर्ण किताबों में से है जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई थी इस किताब में परमानंद जी ने निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी ,कमलेश्वर, स्वयं प्रकाश और नीलाक्षी सिंह जैसे समकालीन लेखकों के कृतित्त्व पर विचार करने के साथ साथ विनय पत्रिका और गोदान जैसी कृतियों तथा जैनेन्द्र कुमार, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन जैसे पुरानी पीढ़ी के लेखकों पर भी पुनर्विचार किया है। यह आसान नहीं है कि आप समकालीन परिदृश्य पर विचार करें और आपकी निगाह अतीत तक भी जा सके।  उन्होंने अपने डायरी लेखन को आलोचना के साथ जारी रखा और बाद की डायरियां पढ़ने पर मालूम होता है कि वे कितना पढ़ते थे ,यहाँ नयी से नयी किताबों पर दर्ज छोटी छोटी टिप्पणियाँ आलोचना नहीं हैं लेकिन उनमें भी मार्के की बात देखी खोजी जा सकती है। 

उन्हें अपने लेखन के लिए  साहित्य भूषण सम्मान- 2003, द्विजदेव सम्मान- 2004, के. के. फाउन्डेशन नई दिल्ली द्वारा व्यास सम्मान- 2006   उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा भारतभारती सम्मान- 2006 सहित कई महत्त्वपूर्ण सम्मानों-पुरस्कारों से समादृत किया गया था। वर्ष 2000 में राजकमल प्रकाशन ने नामवर सिंह के प्रधान सम्पादन में 'आलोचना' पत्रिका को फिर से प्रकाशित करना शुरू किया तब परमानंद श्रीवास्तव इसके सम्पादक बनाये गए और साम्प्रदायिकता, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, समकालीन कविता सहित कई विषयों पर इस जोड़ी ने उल्लेखनीय अंक पाठकों को दिए।  इससे पहले भी वे लम्बे समय तक इस पत्रिका में नामवर सिंह के सहयोगी रह चुके थे।  जीवन के आख़िरी तीन-चार वर्षों में उनकी स्मृति साथ नहीं दे पा रही थी तब भी वे लेखन से विरत नहीं हुए और पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहे।  

मेरा उनसे सीधा परिचय नहीं था लेकिन जब मैंने बनास का पहला अंक स्वयं प्रकाश के लेखन पर केंद्रित करने का निश्चय किया और परमानन्द जी को पत्र लिखाकर सहयोग माँगा तो उन्होंने स्वयं प्रकाश के उपन्यास 'बीच में विनय' पर एक सारगर्भित आलेख लिख भेजा। बाद में विश्व पुस्तक मेले में उनसे एकाधिक मुलाकातें हुईं और उन्होंने कोई पत्रिका भी मुझे दी थी। उनसे मेरी आख़िरी मुलाक़ात लखनऊ में कथाक्रम सम्मान में हुई थी जो 2010 में अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया गया था, तब उनके स्वास्थ्य की सीमाएं साफ़ दिखाई देने लगी थीं।  तब भी समकालीन साहित्य के प्रति उनकी रुचि और आकर्षण कम नहीं हुआ था।  हिंदी आलोचना से जिन मित्रों की शिकायतें हैं वे परमानंद श्रीवास्तव जैसे आलोचक के न रहने पर निश्चय ही और बढ़ेंगी। उनके कृतित्त्व का महत्त्व उनके न रहने पर ठीक से समझ आ सकेगा कि क्यों एक साथ युवा रचनाशीलता और विद्यार्थी जगत उनके लेखन की प्रतीक्षा करता था। 


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