कविता में गाँव - लाल्टू
कल रात फेसबुक पर मैंने बहस के लिए एक स्टेट्स लिखा था -
इस स्टेट्स को पढ़कर वरिष्ठ कवि लाल्टू जी ने अपनी तीन कविताएँ उपलब्ध कराईं. हम इसे बहस के लिए असुविधा पर रख रहे हैं. अन्य साथियों से भी इस बहस में काव्यात्मक और वैचारिक बहस आमंत्रित करते हैं.
"गाँव पर लिखी कविताओं में एक जो नास्टेल्जिया होती है वह अच्छी लगती ही है लेकिन मैं इसे अक्सर बहुत सेलिब्रेट नहीं कर पाता कि शहर में जो सुविधाएँ आम और स्वाभाविक मानी जाती हैं उनके गाँव में आ जाने पर दुःख मनाया जाय. यह एक तरह की प्रवृति रही है हिंदी कविता में कि शहर जाने के बाद गाँव की स्मृतियों को वैसे ही चूल्हा, लालटेन, ढिबरी के साथ सुरक्षित रखा जाय और उनके अनुपस्थित मिलने पर दुखी हुआ जाय. लेकिन जिसे छोड़ के हम आगे निकल आये अपनी बेहतरी के लिए वह भी तो अपनी गति से आगे बढ़ेगा न? क्यों वह उसी युग में क़ैद रहे कि हम छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए उन पुराने सुन्दर दिनों को जी सकें एक चेंज की तरह? "
इस स्टेट्स को पढ़कर वरिष्ठ कवि लाल्टू जी ने अपनी तीन कविताएँ उपलब्ध कराईं. हम इसे बहस के लिए असुविधा पर रख रहे हैं. अन्य साथियों से भी इस बहस में काव्यात्मक और वैचारिक बहस आमंत्रित करते हैं.
अहा ग्राम्य जीवन भी ...
शाम होते ही
उनके साथ उनकी शहरी गन्ध उस कमरे में बन्द हो जाती है .
कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना .
साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं .
वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ .
उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ.
जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं .
साल भर इन्तज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी.
फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं .
फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...
(पल-प्रतिपल - 2005; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित)
कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना .
साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं .
वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ .
उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ.
जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं .
साल भर इन्तज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी.
फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं .
फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...
(पल-प्रतिपल - 2005; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित)
ग्रामसभा
सूरज, बादल
और पेड़ की टहनी शामिल थे हमारे षड़यंत्र में
हम बाँध रहे अपनी समझ आँकड़ों के मंत्र में
चार्ट टँगे थे एक ओर
किसानों ने पूछे थे सवाल
बहस छिड़ी थी ज़ोर
दूसरी ओर थे वे
हमारे सुंदर होने का साक्षात् प्रमाण।
सूरज, बादल
और पेड़ की टहनी
हमारे साथ ढलती शाम
हमने उन्हें देखा जैसे देख़ते हैं पानी
नहीं सोचा उनका हमारे साथ होना
जल है प्राण ऐसा कब सोचते हैं हम
वे जान पाएँगे जो छिपे गाड़ियों में
सिपाहियों की बंदूकों के नीचे
उच्चता का दर्प नहीं रोक सकता उनके दिलों में हाहाकार
सूरज, बादल
और टहनी के न होने का
1994 समय चेतना – 1996 'डायरी में तेईस
अक्तूबर से'
टिप्पणियाँ
खाप पंचायतें शहरों की नहीं गाँव की परिघटना हैं।
एक को दूसरे से श्रेष्ठ कहने का तो प्रश्न ही नही उठता । गाँव गाँव है । शहर शहर । खैर...
लाल्टू जी की कविाएं अच्छी लगीं ।