कश्मीरी कविता की तीन पीढ़ियाँ
कश्मीरी कविता की तीन पीढ़ियों की ये कविताएँ वागर्थ के लिए अनुवाद की थीं. अब यहाँ आपके लिए
- अशोक कुमार पाण्डेय
गुलाम मोहम्मद महजूर
3 सितंबर 1885 को श्रीनगर से कोई 37 किलोमीटर
दूर नेत्रगाम, पुलवामा मे जन्मे गुलाम मोहम्मद महजूर को कश्मीर का पहला आधुनिक कवि माना
जाता है। लल द्यद, नुंद ऋषि और हब्बा ख़ातून की ही परंपरा मे
महजूर ने कश्मीरी मे अपने क़लाम लिखे। ब्रिटिश-डोगरा की विसंगतियाँ और उसके खिलाफ़
आम कश्मीरी के गुस्से, बेबसी तथा आज़ादी की तड़प महजूर के यहाँ
अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति पाती है। कश्मीरियत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को उन्होने
बेहद स्थानीय प्रतीकों के सहारे अपनी नज़मों और ग़ज़लों मे ढाला तो वह नए कश्मीर की
आवाज़ बन गए। उनकी कविताओं के दो संकलन उपलब्ध हैं, साहित्य
अकादमी द्वारा 1988 मे प्रकाशित “पोएम्स ऑफ महज़ूर” और जम्मू और कश्मीर अकादमी ऑफ
आर्ट, कल्चर एंड लेंगुएजेज़ द्वारा प्रकाशित त्रिलोकी नाथ
रैना का अनुवाद “बेस्ट ऑफ महज़ूर।”
आज़ादी
आओ शुक्राना अदा करें
कि आ गई है आज़ादी हम तक
कितने युगों के बाद
हम पर नाज़िल हुआ है उसका नूर।
मगरिब मे आती है आज़ादी तो
रौशनी और इनायत की बारिश के साथ
लेकिन हमारी धरती पर आई है जो
तो बस एक सूखे, बांझ बादल की तरह
गुरबत और भूख
दमन और अराजकता -
आई है वो हम तक
तो बस इन्हीं ख़ुशनुमा असीसों के साथ
आसमानी पैदाइश है तो नहीं भटक सकती
इस दरवाज़े से उस दरवाजे तक आज़ादी
बस कुछेक घरों मे दिखती है
आराम फरमाती हुई
हमेशा कहती है वह नहीं करेगी बर्दाश्त
कि दौलत किसी निजी हाथ मे रहे
तो निचोड़ रहे हैं वे दौलत
हर किसी के हाथ से
हर घर मे पसरा है मातम
लेकिन अपने एकांत बागीचों मे
हमारे शासक दूल्हों की तरह
मिलजुलकर भोग रहे हैं आज़ादी को
नबीर शेख़ जानता है आज़ादी के मानी
क्यूंकि उठा ली गई उसकी औरत
तब तक करता रहा वह फरियादें
जब तक उसकी बीबी को नहीं मिल गई आज़ादी एक नए घर मे।
सात बार तलाशी ली उन्होने उसकी काँख की
कि कहीं चावल न चुरा रखा हो
फिर शाल से ढँकी एक टोकरी मे
ले आई किसान की बीबी आज़ादी को घर
हर दिल मे है एक बेचैनी
पर किसी की हिम्मत नहीं कि खोले जुबान
डर यह कि उनकी आज़ाद जुबानों से
कहीं रूठ न जाये आज़ादी।
उठो ए बागबाँ
उठो ए बागबाँ ! और एक नई बहार की चमक की ओर
चलो
बनाओ हालात ऐसे कि चहचहा सके बुलबुल खिले हुए गुलों पर
उजाड़ बागीचों का मातम मनाती है ओस
परेशान गुलाबों ने फाड़ ली हैं अपनी पोशाकें
नई ज़िंदगी भर दो फूलों और बुलबुलों मे
जड़ से
उखाड़ दो बागीचे से ज़हरीली झाड़ियों को ; बर्बाद कर देंगी ये फूलों को
खिलने
वाले हैं गलीचे सुंदर फूलों को उन्हें खिलखिलाने दो
मादर-ए-वतन
की मुहब्बत मे डूबना सरापा फबता है मर्द को
भर
सकोगे यह भरोसा तो ज़रूर मिलेगी तुम्हें मंज़िल
कौन आज़ाद कराएगा तुम्हें मेरी बुलबुल, अगर तुम शोक मनाती रहोगी अपने कफ़स मे
कौन आज़ाद कराएगा तुम्हें मेरी बुलबुल, अगर तुम शोक मनाती रहोगी अपने कफ़स मे
अपने
हाथों से करो कोशिश अपनी आज़ादी की
कौन
आज़ाद कराएगा तुम्हें मेरी बुलबुल
जबकि
ताक़त और दौलत अमीरी और शाही शान सब हैं तुम्हारी पहुँच मे
केवल
पहचानना है तुम्हें उनको
ढेरों चिड़ियाँ चहचहाती हैं चमन मे लेकिन अलग अलग हैं उनके सुर
ऐ खुदा
पिरो दे उन्हें एक पुरअसर तराने मे
अगर तुम सच मे चाहते हो जगाना इस आलसी आशियाने को तो छोड़ो बीन बजाना
अगर तुम सच मे चाहते हो जगाना इस आलसी आशियाने को तो छोड़ो बीन बजाना
उठाओ
जलजले और बादलों की गड़गड़ाहट, तेज़ बवंडर उठाओ।
फिर से फैल जाएगी कश्मीर की शान दुनिया भर मे अगर तुम
ताज़ी
भट्ट, ललिताडित्य
और मुबारक खान जैसे हीरे पैदा कर पाओ।
फिर
चलेंगी दफ्तरी कलमें तुम्हारी मर्ज़ी से अगर तुम
ज़िया
भान जैसे किसी को इस नए ज़माने मे पैदा कर पाओ
झुकेंगे ईरान के अहले क़लम इज्ज़त से तुम्हारे सामने अगर तुम
ग़नी
जैसा जादू अपने क़लमों मे पैदा कर पाओ
मज़हूर
ने शायरी की दुनिया मे खिला दिये हैं गुलाब
अब इस
रंगीन चमन के लिए कोई बुलबुल भी ले आओ
आग़ा शाहिद अली
आग़ा शाहिद अली कश्मीर के सबसे सम्मानित कवियों
मे से हैं। उनका कविता संकलन “अ कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस” बेहद चर्चित रहा है।
4 फरवरी 1949 को कश्मीर के एक प्रतिष्ठित परिवार मे जन्में आगा साहब ने श्रीनगर, दिल्ली और अमेरिका मे पढ़ाई की
और फिर अमेरिका मे ही बस गए, जहां 2001 मे उनकी मृत्यु हुई।
कश्मीर के लापता पतों पर लिखी चिट्ठियों सी उनकी कविताएँ हमें उस अभिशप्त स्वर्ग
को देखने की नई दृष्टि देती हैं।
हिममानव
मेरा पुरखा, हिमालय की
बर्फ़ का बना इंसान
समरकन्द से आया था कश्मीर
व्हेल की हड्डियों का झोला लटकाए :
विरासत नदी की कब्रगाहों की।
उसका अस्थिपिंजर
ग्लेशियरों से बना था, उसकी सांस आर्कटिक की थी
अपने आलिंगन मे जमा देता था वह स्त्रियों को
उसकी पत्नी गल गई पथरीले जल मे
बूढ़ी उम्र मे एक स्पष्ट
वाष्पीकरण।
यह विरासत
मेरी खाल के नीचे उसका अस्थिपिंजर
बेटे से पोतों तक जाता
पीढ़ियाँ हिममानव की मेरी पीठ पर
वे हर साल मेरी खिड़की खटखटाते हैं
उनकी आवाज़ें बर्फ़ मे खामोश हो जाती हैं।
ना, वे मुझे जाड़े
से बाहर नहीं जाने देंगे
और मैंने वादा किया है ख़ुद से
कि अगर आख़िरी हिममानव भी हूँ मैं
तो भी उनके पिघलते कंधों पर चढ़कर
जाऊंगा बसंत तक।
उर्दू सीखते हुए
जम्मू के पास के एक ज़िले से आया था वह
(उसकी उर्दू मे डोगरी लड़खड़ा रही थी)
उन्नीस सौ सैंतालीस मे एक महाद्वीप के
दो हिस्सों मे टूटने का शिकार
उसने बताया टुकड़ों मे बंटी हवा खाने के बारे मे
जबकि लोग लहू के अलफाज मे, मृत्यु के अक्षरों मे
नफ़रत मे डूबे हुए थे।
'मुझे केवल वह आधा लफ़्ज़ याद है
जो मेरा गाँव थाI बाक़ी मैं भूल चुका हूँ।
मेरी स्मृति रक्त रेखा की है
जिसके पार मेरे दोस्त किसी मृत शायर के
तिक्त अश’आर मे डूब गए।”
वह चाहता था मुझे सहानुभूति हो। मैं नहीं कर पाया महसूस।
वह चाहता था मुझे सहानुभूति हो। मैं नहीं कर पाया महसूस।
मेरी केवल उन तिक्त अशआर मे रुचि थी
जिन्हें मैं उसे समझाना चाहता था।
वह कहता गया ,
'और मैं जो जानता था मीर को, दीवान ए ग़ालिब के हर शेर ने
'और मैं जो जानता था मीर को, दीवान ए ग़ालिब के हर शेर ने
शायरी को लहू के अल्फ़ाज़ मे डूबता हुआ देखा।”
उसे अब कुछ भी याद नहीं जबकि मैं पाता हूँ
ग़ालिब को भाषाओं के चौराहे पर किसी भी ओर बढ़ने से
इंकार करते
मेरे दया के थियेटर को देखने के लिए
भिखारी होने का ढोंग करते।
श्रीनगर मे रह रहे नीरज कश्मीर की सबसे युवा पीढ़ी
के प्रतिनिधि हैं। उनकी कविताएँ खासतौर से पिछले एक दशक मे बद से बदतर होते गए
कश्मीर के हालात की गवाही हैं।
बंदी मैं
एक पतंग की तरह
मैं नाच रहा हूँ तूफान मे
हक़ीक़त का सामना करते हुए अब
अपनी तक़दीर से अन्जान
सड़कें भरम से भरी हैं
और ख़्वाब खो गए हैं
ओ क़िस्मत की रेखा
या तो थाम लो मुझे
या जाने दो
कर लेने दो मुझे दोस्ती इस तूफान से
मेरे अपने खयालात का तूफ़ान
आदी अपने फटते हुए किनारों का
तुम्हारी रेखा के धागे
हर घुमाव के साथ
कस रहे हैं मुझे और ज़्यादा
उसने धोखा दिया है मुझे
जिसको समर्पित था मैं
और अब भी नहीं कहता मैं उसे गद्दार
अपनी भावनाओं के दरिंदे को
क़ैद कर लिया है अब मैंने
उम्मीदों को कर दिया है दफन गहरे
और दर्द भरी चीख़ों को
अब दबा दिया है मैंने
एक पागल की हँसी में।
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