फ़िरोज़ खान की कविताएँ



फ़िरोज़ कविताएँ लिख तो लम्बे समय से रहे हैं लेकिन अनियमित. या यों कहें कि अपने कवि होने को लेकर वह लिखते समय तो गंभीर होते हैं लेकिन उसके बाद प्रकाशन वगैरह को लेकर एकदम नहीं. परिणाम यह कि युवा कवियों की लिस्ट में आप उनका नाम नहीं पायेंगे. लेकिन उनकी कविताएँ मुझे हमेशा अपने समय में एक बेहद महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप लगती हैं. साम्प्रदायिकता के चहुँओर विस्तार के इस भयानक दौर में वह न केवल अल्पसंख्यक समाज के भय और उसके भीतर की बहसों को बहुत शाईस्तगी से सामने रखते हैं बल्कि एक गंभीर राजनैतिक समझदारी के साथ इसका प्रतिरोध रचते हैं.

आज उनका जन्मदिन भी है, शुभकामनाओं सहित कुछ ताज़ा कविताएँ 

डर की कविताएँ

(एक)

सपनों में अक्सर पुलिस आती है
महीनों से
नहीं, नहीं... शायद सालों से

घसीट कर ले जा रही होती है पुलिस
धकेल देती है एक संकरी कोठरी में
और जैसे ही फटकारती है डंडा
मैं चीख पड़ता हूँ
जाग कर उठते हुए

कब से जारी है यह सिलसिला
मां के खुरदरे और ठंडे हाथ
हथकड़ी से लगते थे उस वक्त माथे पर
सर्दियों में भी माथे की नमी से जान गया था कि
डर का रंग गीला और गरम होता है
जलता हुआ चिपचिपा रंग

सपना देखा कोई?
माँ पूछती तो अनसुना कर
टेबुल पर रखी घड़ी की ओर लपकता
दादी कहती थीं कि भोर के सपने सच होते हैं

माँ से कहता था कि मेरे उूपर हाथ रखके सोया करो
रथ परेशान करते हैं मुझे
मां कहती थी कि टीवी पर महाभारत मत देखा करो
अब मैं मां को कैसे समझाता कि
रथ में मुझे अर्जुन नहीं दिखते
कृष्ण के हाथ लगाम नहीं होती रथ की 
पुलिस दिखती है
जहाँ-जहाँ से गुजरता है रथ
पुलिस ही पुलिस होती है चारों ओर
मेरी तरफ दौड़ती है
नाम पूछती है और दबोच लेती है मुझे


(दो)

रीना को भ्रम हो गया है कि
बहुत प्यार करता हूँ मैं उन्हें
हमेशा सोता हूँ उन्हें बाहों में समेटकर
अब कैसे बताऊँ कि डरता हूँ मैं
इस डर में कोई कैसे प्यार कर सकता है


(तीन)

अकेला हूँ इन दिनों
नहीं, नहीं
सपनों के डर के साथ हूँ
घर के दरवाजे से नेम प्लेट हटा दी है मैंने
घर में कोई कैलेंडर भी नहीं
सारे निशान मिटा दिए हैं
मेरे नाम को साबित करने वाले
फिर भी आती है पुलिस
सपनों में बार-बार
कई रोज़ हुए, मैं सोया नहीं हूँ

(चार)

डर का रंग सफेद होता हैं
नहीं, नहीं ! भूरा होता है
बड़े-बूढ़ों से यही सुना था मैंने
लेकिन मेरे घर में तो कई रंगों में मौजूद है डर
कल रात की बात है
जब किसी ने जोर-जोर से पीटा था दरवाजा
मैं समझ गया था
डर खाकी रंग में आया है

फासिस्ट

(एक)

जब बच्चे दम तोड़ रहे थे सरकारी अस्पतालों में
या कि मसला जा रहा था उनका बचपन वातानुकूलित स्कूलों में
स्कूल तिजारत की मंडियों में तब्दील हो रहे थे जब
जब माएं रो रही थीं जार-जार
अपने फूल से बच्चों के लिए
तब वो अट्टाहास कर रहा था
जब वो मुस्कुराता था
तो डर जाते थे कितने ही लोग
सहम जाते थे अपने ही घरों में घुसते हुए
सहमे हुए ये लोग इन दिनों
बदल रहे हैं अपना जायका
ये लोग जिनकी रसोइयों में घुस गया है कोई दादरी
जिनके सीनों पर जम गई है मनो बर्फ
और जिनके घरों के ऊपर सदियों नहीं उगता कोई सूरज
ये लोग इन दिनों
आपस में भी कम बोलते हैं

(दो)

वो बोलता है तो कमल खिलते हैं
हाथ हिलाता है तो हिल जाती हैं दिशाओं की कोरें
वो चलता है तो चल पड़ते हैं मुल्क तमाम
उसे गुमान है कि ऐसा हो रहा है
उसे गुमान है कि वो ख़ुदा होने को है

वो अपने भाषणों में अक्सर रोता भी है
जहाँ गिरते हैं उसके आँसू
वहाँ फिर कभी घास नहीं उगती

यूँ होता..

फिल्मों की तरह 
ज़िन्दगी में भी होता कोई इंटरवल
सुस्ताते कुछ देर 
ज़िन्दगी के सिनेमाहॉल से निकलकर बाहर

दालान में बैठते किसी अजनबी की मुस्कुराहट को जज़्ब करते हुए
निकल जाते कुछ देर को समंदर के किनारे
आती हुई लहरों को देखते
डूबते सूरज की तरफ जाते परिंदों को सलाम कहते
या कि उनके साथ परवाज़ करते
पहुँच जाते सरहदों के पार
न पासपोर्ट, न वीजा की होती दरकार
न सियासत रोकती लाहौर की गलियों में घूमने से
लेनिन की शीशे की क़ब्र के सामने बैठे रहते
लाल चौक पर गाते प्रेमगीत
किसी शिकारे में किसी पंडत से सुनते कव्वाली
कोई नमाजी लौटकर आता मस्जिद से और रामलीला में निभाता लक्ष्मण का किरदार

मैं नास्तिक ही रहता
और चूम लेता किसी नमाजी का माथा
किसी पुजारी के हाथ चूमता और खेलता कोई खेल नींद आने तक



लव जेहाद 

(एक)

वे घने ऊँचे लहराते दरख़्तों वाले शहर थे
टोलों और मुहल्लों वाले
मुहल्लों में घर थे
घरों की छतें थीं
छतों पर मुंडेरें
मुंडेरों के दरमियाँ से उठती थीं पतंगें
और आसमान में बना देती थीं कोई इंद्रधनुष
माँजों की बाहें थामे तैरती रहती थीं आसमानों में
देर तलक

पतंगें दोस्त थीं
दुश्मन भी
दुश्मनी ऐसी न थी कि काट दें किसी का मांजा तो धड़ाम से गिरा दें नीचे
हारी हुई पतंगें ऐसे लहराके गिरती थीं
जैसे कोई मीरा अपने किशन की मूरत के सामने तवाफ़ करती आती हो

(दो)

शहर में मुहल्ले थे
मुहल्लों में जातियाँ थीं, धरम थे
मस्जिदें थीं, मंदिर थे मुहल्लों में
घर थे, घरों की छतें थीं
छतों पर मुंडेरें थीं
लेकिन मुंडेरों के कोई मजहब नहीं थे

मुंडेरों पर थे दीवाने
और थीं सपनीली आँखों वाली लड़कियाँ
लड़कियों की मुंडेरों पर गिरती थीं पतंगें
और जब चूम लेती थीं उनके क़दम
तो जीत जाते थे हारे हुए दीवाने पतंगबाज

पतंगें जो बन जाती थीं प्रेमपत्र
प्रेम में इस तरह गिरने को ही शायद कहते होंगे
फॉल इन लव
गिरना हमेशा बुरा नहीं होता

(तीन)

वे अब झुलसे हुए वीरान दरख़्तों वाले शहर हैं
शहरों में मुहल्ले हैं
हिन्दू मुहल्ले हैं 
और मुसलमान मुहल्ले
मुहल्लों में घर हैं
घरों में हिन्दू हैं या मुसलमान
छतों पर मुंडेरें हैं
मुंडेरों पर पतंगों का खून
माँजों से बंधी हैं तलवारें
और आसमानों में चल रहा है क़त्लेआम
माशूक लड़कियों की आंखों में अब चमकीले बेखौफ़ सपने नहीं हैं
दीवाने बदहवास हैं
वे जेहादी हैं या हैं रोमियो
लड़कियों के लिए ये दुनिया अब क़त्लगाह है


(चार)

इससे पहले कि मेरी गर्दन आपकी कुल्हाड़ी के निशाने पर हो
तड़प रही हो धड़ से अलग किसी विडियो में
इससे पहले कि आपकी नफ़रत
मेरे मरे जिस्म की बोटी करदे
नारों के बीच आपकी राष्ट्रभक्ति जला दे मुझको
इससे पहले कि हरी घास लहू में डूबे
मेरी चीख तैर जाए फिज़ा में
तुम्हारा अट्टहास सुने और सहम जाए भेड़िया भी
इससे पहले कि तुम दौड़ो मेरी ओर कुल्हाड़ी लेकर
मैं बता देना चाहता हूँ कि मेरी पार्टनर का नाम रीना है
मैं बता देना चाहता हूँ कि रीना हिंदू नहीं हैं


टिप्पणियाँ

sudha tiwari ने कहा…
बहुत सुंदर कविताएं हैं... पतंगें जो बन जाती थी प्रेमपत्र! क्या खूब कहा है, आपकी कविताएं जैसे मन को छू जाती हैं, समय और उसकी वास्तविकता की पोल खोलती हुई.
कुमार अम्बुज ने कहा…
ध्यातव्य कविताएँ हैं। फिरोज और असुविधा को बधाई।
Unknown ने कहा…
बेहतरीन कविता
http://bulletinofblog.blogspot.in/2018/01/blog-post_7.html
Firoj khan ने कहा…
शुक्रिया सर...
Onkar ने कहा…
आग उगलती रचनाएँ. कविताओं में कमाल का प्रवाह है.
कविता रावत ने कहा…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
vijay kumar ने कहा…
ये कविताएं एक दु:स्वप्न के भीतर से किसी कातर और मर्मस्पर्शी पुकार की तरह लगती हैं । गहरी संवेदना और छटपटाहट से भरी अपने इस खौफनाक वक्त की भीतरी पर्तों में उतरती हुईं । उनके इस कवि रूप का इल्म नहीं था ।

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