विमल चन्द्र पाण्डेय की नई कविता



विमल युवा पीढ़ी के सबसे चर्चित कहानीकारों में से हैं. लेकिन कविताएँ भी उन्होंने लगातार लिखी हैं. असुविधा पर ही आप उनकी एक लम्बी कविता पढ़ चुके हैं.  इन कविताओं का गठन और तनाव दोनों चौंकाता है. लम्बी कविताओं में इसे लगातार निभा पाना कवियों के लिए हमेशा एक मुश्किल चुनौती रही है. जिस तरह का विषय उन्होंने चुना है इस कविता में उसमें शिल्प के स्तर पर बिखराव का खतरा होता है तो भाषा के स्तर पर शोर का. लेकिन विमल ने इसमें वह शिल्प चुना है जो मुझे निजी तौर पर बहुत प्रिय है और पोस्ट ट्रुथ के इस समय को रेशा रेशा पकड़ कर एक पूरी रस्सी बटने में क़ामयाब. यहाँ लम्बी कविता कई छोटी कविताओं का एक समुच्चय बन जाती है, ऐसी कविताएँ जो अलग अलग होते हुए भी एक ही विडम्बना के अलग-अलग पक्षों को साथ में बुनती हुई.



कैंसर और बलात्कार के आम हो चुकने वाले मेरे समय का रोज़नामचा

ये कविता देश के पक्ष में हो सकती है
पर ये निश्चित ही सरकार के ख़िलाफ़ है
ऐसी जोखिम भरी पंक्ति से जो अपनी बात
आज के दौर में शुरू करे
समझिये उसका कलेजा निडर और नीयत साफ़ है

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(स्वर्गीय नरेंद्र झा के लिये)

कैंसर और बलात्कार के आम हो चुकने के बाद के इस दृश्य में
वही मैं हूं, वही मेरे दोस्त हैं, मेरा परिवार है
वही देश है, देशभक्ति भी, वही ईश्वर निराकार है
मगर मेरे देश में कुछ तो बदल रहा है
ऊपर से कहीं ज़्यादा
परतों के भीतर
लगातार एक ताण्डव चल रहा है
भौगोलिक सीमाओं के लिये ख़ून बहा रहे इस समय में
गालियां देना एक सरकारी सलीका है
हृदयाघात से अचानक मरना कष्ट कम करने का तरीका है

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दोपहर में बरसते रक्त के बीच जब गिर रहे थे दुकानों के शटर
दो पैर दो हाथों वाले इंसान पास ही साफ़ कर रहे थे गटर
कहा जाता है वे भी हमारे भाई हैं
जितने भी भाई हों, हम उन्हें जल्दी से जल्दी काटने के इच्छुक हैं
हम पूरी तरह अकेले और निराश मरना चाहते हैं
हम इस कलियुग के भी पार उतरना चाहते हैं

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आनंद बहुत ज़्यादा है लेने को समय बहुत कम
रोटियां उतनी नहीं हैं जितनी बंदूक की बातें हैं या बारूद, बम
एक गाय प्लास्टिक निगलती दूर चली जा रही है
उसकी पूंछ से लटका है हमारे देश का भविष्य
जिसका पांव सड़क से घिसट कर छिल रहा है
आनंदमय प्रधानमंत्री का कहना है
जो जिस लायक है उसे वो मिल रहा है

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सड़क पर चलता कोई भी आदमी कभी भी मर सकता है
इस वक्त से घबराये सभी लोगों का एक समूह बनाकर मैं कुछ काम करना चाहता हूं
इतना डरता हूं कि ढेर सारे अपनों और परिचित चेहरों के बीच मरना चाहता हूं
मृत्यु की बात करना मेरी निराशा नहीं समय की ज़रूरत है
कोई शायर चाहिये जो कहे ज़िंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है

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समय इतना जटिल है, कुटिल है, खल है, कामी है
अब वामी होना एक गाली है
सेक्यूलर होना एक ख़ामी है
प्रजा फुसफुसाती है कि राजा लोकतांत्रिक नहीं
राजा का कहना है जो जनता उसकी विरोधी है
वो असली जनता नहीं हरामी है

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अपने इतिहास में मैं सिर्फ़ इतना लिखना चाहता हूं
मैंने कभी किसी की रोटी नहीं छीनी
फिर भी मेरे मुंह से निवाला छीनते वक़्त न सरकार को शर्म थी
न नुमाइंदों को कोई बदगुमानी थी
पेट भर माँस खाकर चमड़े के निर्यात का विरोध कर रही जनता को
वोट की यही क़ीमत चुकानी थी

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जिस नेता के सभी भक्त हैं
उसके विरोध में जो भी हैं सभी चोर हैं, डाकू हैं
देश एक केक है और सबके पास अपने चाकू हैं
जो देश को देशभक्ति के चाकू से खा रहा है
सबसे बड़ा हिस्सा वही पा रहा है

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भक्तों ने सीखी है भाषा में खंजर छिपाने की मक्कारी
हालांकि उनकी भाषा भी ख़राब है
उनके खंजर में भी ज़ंग लगा है
उनमें इतनी धार नहीं कि बहादुरी से ज़ख्मी करे सामने आकर
वैकल्पिक रोज़गार वाले ये भटके चेहरे
सच का सामना करेंगे आख़िर क्या खाकर
फिर भी
इनसे बेफ़िक्र होना मना है
इनके प्रहारों से टिटनेस की संभावना है

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(वीरा साथीदार के लिये)

हम मज़दूर हैं इसलिये सुविधाओं से दूर हैं
हमारे पास चाकू नहीं छेनी हँसिया हथौड़ी है
हम देश को दुरुस्त करते हैं
छीलते हैं,छाँटते हैं,संवारते हैं
काम में व्यस्त रहे तो बुरादे और गंदगी कुछ समय भले पड़ी रह जाये
हम ही झाड़ू उठा कर उसे बाहर बुहारते हैं

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एक विकल्पहीन समय में हम बात कर रहे हैं
अत्याचारी बनाम भ्रष्टाचारी के बीच चुनाव की     
हम याद कर रहे हैं पुराने बहे रक्त की
नये बने घाव की
हम एक क्रांतिक समय के गवाह हैरान हैं अपने आसपास के बदलावों पर
हम देख रहे हैं वो समय जब यहाँ से लेकर वहाँ तक दुनिया में
हर कोई बोल रहा है
कोई भी कुछ सुनता नहीं है
ये प्यार से ख़ाली शातिर लोग
बंद दिमाग़ों में कोई फितूर डालकर चले आते हैं सत्ता में
इन्हें अपने होशो हवाश में कोई चुनता नहीं है

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ईमान के बंदरगाह बन चुके विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो मित्र हैं
दृष्टि में बवासीर की समस्या लिये शिल्प की बहस में मुब्तिला हैं
ऑक्सीजन  की कमी से प्रदेश में अबोध बच्चे मर रहे हैं
मुख्यमंत्री सभ्यता के खण्डहर की सजावट में दो लाख दीपक खर्च कर रहे हैं
हम रुपयों की भाषा में बात नहीं करेंगे
इससे हमारे अकाउण्ट में पड़े पैसे कट जाने का भय है
जो जनता का भय है वही राजा की विजय है
इस समय में ख़ुद को कुछ इस तरह संतुलित करना है
कि कुछ पीने को भी रखा है कुछ आँख में भी पानी है
कि हमें ज़िन्दा भी रहना है और हमें जान भी बचानी है

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समस्याओं का हल नहीं, ये किसी ने नहीं कहा
कलियुग का वह कल्कि अवतार हर समस्या को चुटकी बजाते सुलझाता था
किसी समस्या का हल उसके भाषण में था
किसी समस्या का हल उसके रोने में था
उत्पादों में देशभक्ति का नमक मिला कर बेचने वाला
इस दौर का सबसे शातिर व्यापारी
कहता था देश की हर समस्या का हल
शीर्षासन करने के बाद
शवासन में सोने में था

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इस सरकार की जो भी कमियां हैं
उनके अनुसार वो एक षड्यंत्र है
जो इतिहास में पहली बार रचा जा रहा है
उनका कहना है अभी तो आपको बहुत क्रूरता दिखायी जा सकती है
देश और आपके हित के लिए इससे बचा जा रहा है
बड़े-बड़े लेखकों का आत्मसम्मान, उनकी पक्षधरता महंगे आयोजनों की चलनी से चाली जा रही है
देश एक गहरा कुआँ है जिसमें रोज़
टनों टन भांग डाली जा रही है

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देश के लोगों में रक्त का प्रवाह हृदय और मष्तिष्क की तरफ कम
लिंग की तरफ़ ज़्यादा था
जो बलात्कारों को आम घटना कहता था
वो सिर्फ़ एक प्यादा था
असली दोषी रूप बदले नारी कल्याण की योजनाएं चला रहे थे
जो ये सब जानते थे, समझते थे, चिल्लाते थे
वे मुट्ठी भर लोग अपना ख़ून जला रहे थे
एक अजब ही नया और अनोखा दौर आया था
जिसे समझने का कोई रिफरेंस प्वाइंट नहीं था
बड़े से बड़ा मामला हो जाये ठीक से उठता नहीं था
दो-चार दिनों से अधिक चलता नहीं था
राजा एक जैसी नरमी से मुस्कराता रहता था
वो अपनी मुस्कराने की स्टाइल तक बदलता नहीं था

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(जीवन की नमी बने दोस्तों के लिये)

गर्मी बढ़ती जा रही थी दुनिया में लगातार
आत्महत्याएं और बलात्कार भी उसी अनुपात में
सबको नहीं पता थी अपनी असली समस्या
जो दरअसल एक सच्चे दोस्त की कमी थी
उनके जीवन में बीते वक़्त की जो कुछ थोड़ी नमी थी
उसे सोखने के बाद वो हताश होकर मर जाते थे
या किसी मादा शरीर में ज़बरदस्ती उतर जाते थे
सच्ची हंसी और मन की ख़ुशी ग़ायब होती जा रही थी दुनिया से
कितने अकेले होते जा रहे थे लोग कि बलात्कार करते थे
उन्हें उकसाने के लिये सरकारी वक्तव्य थे
फिल्मों के गीत थे, कामुक विज्ञापन थे
बलात्कार के मुद्दे पर सबसे बड़ा सरकारी प्रयास सरकार का बयान था
कि इसमें उसका कोई हाथ नहीं था
अपनी आत्मा की हत्या के बाद बलात्कारी चुपचाप खड़ा था सिर झुकाये
वो अनभिज्ञ था कि उसका जीवन इसलिये नदी से नाले में तब्दील हुआ
कि कोई एक सच्चा दोस्त उसके साथ नहीं था

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हिंदी साहित्य के इतिहास में जब चारण काल पढ़ाया जा रहा था
मैं अनुपस्थित था कक्षा से
मेरी किस्मत में इसे साक्षात अपनी आँखों से देखना दर्ज था
मेरे समय की कलम का सबसे बड़ा मर्ज़ था
वो गिरवी रखी थी शराब की बोतलों में,अकादमी की कुर्सियों में
बोर्ड के गलियारों में,दिल्ली की दीवारों में
कुछ शातिर और कांइया लोगों ने गिरवी रखने की जगह
अपनी कलम अधिया और बटाई पर देकर छिपायी थी
प्रधानमंत्री के साथ एक मुस्कराती तस्वीर
उनके जीवन की सबसे बड़ी कमाई थी

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विमल चन्द्र पाण्डेय से यहाँ सम्पर्क किया जा सकता है    Vimalpandey1981@gmail.com

टिप्पणियाँ

Manoj ने कहा…
Yah Kavita jaise is samay ka aaina hai. Is samay ki sari mushkilen yahan jas ki tas darj hain...
Unknown ने कहा…
केंसर और बलात्कार अब आम हो गए है ये केसा शीर्षक है
सबसे पहले तो कविता के लिए विमल को गले लगता हूँ। मूँछें उगाने के बाद कविता में भी ताव आई है। ख़ैर।
सबसे पहले तो कविता के पहले जो टिप्पणी है कि देश के पक्ष और सरकार के विपक्ष वाली यह चाहे लेखक के द्वारा हो या सम्पादक के, एक घटिया टिप्पणी है जो कविता के रेंज को कम करने के लिए है।
हालाँकि कविता में कवि ने शिल्प पर एक उलटबाँसी लिखा है फिर भी मैं कहूँगा कि ये कविता मुझे अपने ज़बरदस्त शिल्प के कारण पसंद है नहीं तो इसका कंटेंट इतना आम है कि इसको सुनते ही कोई पढ़ने से बिदक जाए।
Ravindra Arohi ने कहा…
सबसे पहले तो कविता के लिए विमल को गले लगता हूँ। मूँछें उगाने के बाद कविता में भी ताव आई है। ख़ैर।
सबसे पहले तो कविता के पहले जो टिप्पणी है कि देश के पक्ष और सरकार के विपक्ष वाली यह चाहे लेखक के द्वारा हो या सम्पादक के, एक घटिया टिप्पणी है जो कविता के रेंज को कम करने के लिए है।
हालाँकि कविता में कवि ने शिल्प पर एक उलटबाँसी लिखा है फिर भी मैं कहूँगा कि ये कविता मुझे अपने ज़बरदस्त शिल्प के कारण पसंद है नहीं तो इसका कंटेंट इतना आम है कि इसको सुनते ही कोई पढ़ने से बिदक जाए।
radha tiwari( radhegopal) ने कहा…
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (23-04-2018) को ) "भूखी गइया कचरा चरती" (चर्चा अंक-2949) पर होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
Ashok Kumar pandey ने कहा…
कविता के शीर्षक के बाद किसी सम्पादक को कुछ लिखने का हक़ नहीं। जो है सब कवि का है और कविता का हिस्सा है रविन्द्र आरोही जी
कविता सचमुच जबरदस्त है . शिल्प कमाल है , लेकिन कहीं कहीं दुराग्रह है .

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