सन्तोष कुमार चतुर्वेदी की कुछ नई कविताएँ


संतोष कुमार चतुर्वेदी उस परम्परा के कवि हैं जहाँ लोक और जन दो अलग अलग श्रेणी नहीं अपितु एकमेक होकर सामने आते हैं. उन्हें पढ़ते हुए क़स्बाई संवेदना का ग्लोबल विस्तार लगातार महसूस होता है और इसीलिए भाषा उनके यहाँ अलग से कुछ करने की कोशिश करने की जगह बहुत स्वाभाविक रूप से तमाम उपलब्ध स्रोतों से जीवन रस लेते हुए कथ्य को उसके बहुविमीय विस्तार में रूपायित करती है. असुविधा पर पढ़िए इस बार उनकी कुछ ताज़ा कविताएँ 




पृथिवी एक अनिवार्यता की तरह है

सूर्य ही समूचा सच नहीं
इस सच के सहयात्री और भी हैं

अकेले नहीं बनता कोई मण्डल
सौर मण्डल की बात ही क्या

घूमती है पृथिवी सूर्य के चारो तरफ़ निरन्तर
इस पृथिवी पर खड़ा कवि
सूर्य रश्मियों को एकटक ताकता है
सतरंगी आभा में डूब कर

सौर मण्डल को जानने के लिए
पृथिवी एक अनिवार्यता की तरह है
धधकते सूर्य से ही नहीं
पृथिवी की सौम्यता से भी
इसकी एक अलग तस्वीर बनती है  

प्रेम

जो बात तुम्हारे लिए राज है
उसे दुनिया की तमाम स्त्रियाँ खुलेआम जानती हैं
कि हर तरह के पानी से नहीं गलती दाल

पानी का तनिक भी खारापन
सारे ताप को बेकार कर देता है

वह तो मिठास भरे पानी का प्रेम है
जिसमें डूब कर
गल जाती है दाल

वह घुला देती है खुद को पानी में इस तरह
कि पानी दाल का
और दाल पानी की हो जाती है

सचमुच
ऐसा ही निश्छल होता है यह प्रेम
जब भी जहाँ भी होता है 
जीवन के समूचे व्याकरण को बदल देता है
और यह राज भी स्त्रियाँ अच्छी तरह जानती हैं

कील कबजे

दरवाजे झूल रहे हैं
दरवाजे खुल रहे हैं

दरवाजों से ही एक अलग   
शक्ल बनी है इस घर की
शक्ल है इस शरीर की
शक्ल है इस संसद की

लेकिन जिन सहारों पर
टिके हैं दरवाजे ठढिया से
वही अदृश्य हैं
इस समूचे परिदृश्य से

कबजे  
चुपचाप
दिन-रात
टाँगे रहते हैं
अपने कंधे पर दरवाजों को
खिड़कियों को  
जैसे कोई पिता लिए हो कंधे पर
अपने नवजात बच्चे को
जैसे किसी पौधे पर खिल रहे हों फूल

अक्सर कहते हैं लोग कि
कोई कब तक किसी को सहारा देता है
बड़े भी अक्सर खड़ा करा कर छोड़ देते हैं बच्चे को
अपने पांवों पर चलने के लिए
लेकिन कबजे तोड़ते हैं यह मिथक
आजीवन इन दरवाजों को अपना सहारा दे कर
यह साधना नहीं सबके बस की 
न कभी किसी ने तारीफ़ की इनकी
न ही सुनी कभी किसी ने उफ़ इनकी

दरअसल यह सब कील कबजे की महिमा है
जिनकी बदौलत झूल रहे हैं दरवाजे  
खुशी में झूम रहे हैं दरवाजे

खुल रहे हैं दरवाजे
झूल रहे हैं दरवाजे

गुरुत्व

इस ब्रहमाण्ड में जो भी पिण्ड हैं
सभी का अपना एक गुरुत्व है
इस गुरुत्व के दम पर ही
सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी, मंगल सबका
अपना-अपना ओहदा है

स्वार्थों का गुरुत्व भी
खींचता रहता है लगातार अपनी तरफ हमें
किसिम-किसिम के लुभावनकारी गुरुत्वों में
खो जाते हैं अनायास ही हम
अपना अस्तित्व गँवा कर

कोई भी प्रलोभन छोड़ पाना हमेशा मुश्किल होता है
ओहदा ठुकराना और भी मुश्किल
जिगर वालों में से भी
बिरले ही कर पाते हैं ऐसी हिमाकत 

लेकिन जो भी छोड़ने का साहस दिखाते हैं
जो भी मर-मिटने के खतरे उठाते हैं 
वही गुरुत्व की सरहद तोड़ पाते हैं
वही जा पाते हैं सुदूर अन्तरिक्ष की गहराईयों में


पासंग

पत्थर का यह छोटा सा टुकड़ा
जो तराजू के एक पलड़े पर
मौजूद रहता है हमेशा
बटखरे के बगल में
अपने-आप में कोई बटखरा नहीं

जब तराजू के पलड़े असन्तुलित हो
बेमानी करने लगते हैं
बटखरे भी जब उद्धत हो मनमानी करने लगते हैं
तब यह पासंग ही होता है
जो आगे बढ़ कर रोकता है
इनकी बेमानी-मनमानी

अपने-आप में इनका कोई तय आकार नहीं कोई आकृति नहीं
अपने-आप में इनकी कोई निश्चित तौल नहीं 
खराब पड़ी टार्च-बैटरी या ईंट-पत्थर के टुकडे भी बन सकते हैं पासंग

अपने निहायत छोटे आकार-प्रकार में भी
ये तौल को एक तुक-ताल में ढालते हैं
पस्त पड़ चुके सच में फिर जान डालते हैं
और बेराह हो चले जमाने को ढर्रे पर लाते हैं

बेरंग पड चुकी जिंदगी में
बार-बार भरते हैं उल्लास के रंग
यही बेरूप-बेआकार पासंग

   

बनते हैं रास्ते


जाने वाले धड़ल्ले से जा रहे हैं
लेकिन आने वाला कोई नहीं दिखता

कहीं न कहीं गडबडी जरुर है
क्योंकि जब भी कुछ एकतरफ़ा होता है
वह विकृत होता है

केवल जाने के उत्साह से ही नहीं
आने की उम्मीद से भी
बनते हैं रास्ते

किसी ने बताया
आगे भारी जाम की वजह से ही बने हैं
ऐसे एकतरफ़ा हालात
लेकिन अगर ऐसा है
तो यह और खतरनाक है
हमारे आगे बढ़ने का रास्ता
किसी भी वक्त बन्द हो सकता है




अनाज के दाने का वजन जानते है हम


यादों की नदी
हमेशा अपनी लहरों में पीछे बहा करती है

इन लहरों में बीत गए कुछ उदास से हमारे दिन हुआ करते थे.
इन दिनों को अपने दोस्तों की हँसी से यादगार बनाने की भरपूर कोशिश की हमने
दरअसल यह बिखरे हुए उन तिनकों की सामूहिक हँसी होती 
जो हर सांझ को गुलजार हो जाती 
इस सांझ में हम सबकी तमाम लनतरानियाँ होतीं
और इसकी खासियत यह होती
कि किसी बात पर हमारा गुस्सा इतना परवान नहीं चढ़ता
कि हम अपना आपा ही खो बैठें
कि सब कुछ तहस-नहस कर बैठे 
इसकी एक शर्त यह भी होती
कि लनतरानियों में शामिल गोंईयाँ किसी की बात का भी बुरा नहीं मानेंगे
और जो भी बहस होगी दोस्ताना अंदाज वाली 
उसमें सबको छूट होगी कि जितना चाहें ढील दे अपने पतंग की डोर
आसमान की सैर सब साथ-साथ करेंगे
और सब जमीन पर रहेंगे
हमारी लड़ाईयां भी कुछ अलग किस्म की
हमारे हर झगड़े में बातचीत की नमीं होती
जिसे थोड़ी सी हवा और थोड़ा सा पानी कुछ समय बाद उर्वर बना देता
और दोस्ती के अंकुर फिर निकल आते पृथ्वी के धरातल को भेद कर   
तो यह हमारा अपना संविधान था मिलजुल कर वाकई सर्वसम्मति से बनाया हुआ
जिसमें तमाम प्रावधान तमाम धाराएं और तमाम उपधाराएं थीं परिवर्तनीय 
जिसमें हर रात की एक सुबह सुनिश्चित थी 
जिसमें सबके लिए पूरी-पूरी धूप तय थी
और बादलों की बारिस पर किसी का पट्टा नहीं होना था
तो जो था उसमें सबके बिलकुल अपने-अपने शब्द थे
हमारी सहमतियों में प्रायः सबकी सहमतियाँ थीं, लेकिन साथ ही
असहमतियों के लिए भी पूरम्पूर जगह थी यहाँ पर
और जिसकी अवमानना करना ऐसा गुनाह नहीं
कि एक आदमी सांस तक न ले सके
डर के मारे अपनी बात तक न कह सके
और उस पर अवमानना का इल्जाम लगाकर
न्याय के नाम पर अमानवीय तरीके से मार डाला जाय 
लगातार बदलता समय ही जीवन है
जैसे कि शब्दों की जिन्दगी जमाने के साथ
उनके बदलते अर्थों और कदमताल करते मतलबों में महफूज रहती है   

तो जब नींद में माते होते हम
तभी कहीं मुर्गा सुबह की मुनादी करता
और यह हमारे लिए रोज की तरह रोशनी का शगुन होता
उन्मुक्त पंखों से उड़ान भरने के अभ्यास में जोर-शोर से जब जुटी होती सुबह
तब एक-एक कर सारी पक्षियाँ निकल जातीं उड़ान पर
घोंसला उत्साहित हो हाथ हिला विदा करता हमें 
रोजमर्रा मारे जाने के तमाम संभावित खतरों के बावजूद
हमारी आँखें आश्वस्त करतीं घोंसले को  
अच्छा तो शाम ढले मिलेंगे हम एक बार फिर
और इसमें कोई फरेब, कोई ढोंग नहीं
क्योंकि बातों पर मर-मिटना हमारी वल्दियत थी
फिर-फिर जी उठना हमारी आदतों में शुमार  
और घोर निराशाओं में भी हताश न होने के सबक हमें
रट्टा मार कर बचपन में ही याद कराये गए थे
हाथ पकड़ कर बिला नागा लिखाए गए थे इमले ऐसे
जो आज भी विचार के एक एक रेशे में गुँथ गया है ऐसे
जैसे देह से प्राण और आग से ताप
 
यह आपके लिए एक यूटोपिया हो सकता है
लेकिन यह भी एक समय हुआ करता था
जिसमें शेयर बाजार के बिना भी जीने के उपागम थे
जिसमें एक मडई में पूरी जिन्दगी गुजार देने का जज्बा होता था 
और जिसमें हमारी यह राम मडईया हमेशा गह-गह करती रहती थी
जिसमें एक गुल्लक रोज-ब-रोज अपने खाली हो कर
बार-बार हमारी अपेक्षाएं पूरी करता
जिसमें अपने बुझे चूल्हे के लिए अंगार माँगने वाली औरत
खाली हाथ वापस नहीं लौटी कभी हमारे दर से
अब फ़साना लगने वाली इस वास्तविक कहानी में
तब गाडीवान ही बैल बन कर खींचता
बेतकल्लुफ़ी से पूरी की पूरी गाडी
और यह जहां से भी जाती अपने पीछे एक लीक छोड़ जाती
शायद किसी और को इस रास्ते की जरूरत पड़े   

हमारे पास बेहिसाब कामों की फेहरिस्त थी 
इन कामों में पास-पड़ोस का काम अपने काम की तरह शामिल हुआ करता
और प्राथमिकता में रहे हमारे अपने व्यक्तिगत काम
कई बार लगातार पीछे खिसकते जाते
पड़ोसियों के काम दौड़े दौड़े पहले चले आते
जिसे जुट कर फ़ौरन खुशी-खुशी हम करते  
तब भी झल्लाना बिलकुल मना था
और अगर ऐसी जरूरत आन ही पडी तो
एकांत में जा कर अपने पर ही निःसंकोच झल्लाने की छूट थी
इस बात का ध्यान रखते हुए कि किसी को कुछ भी पता न चलने पाए
आंसू की एक बूँद भी कहीं न दिखने पाए
क्योंकि यह एक ऐसा अविभाजित परिवार था जिसमें तमाम झोल थे
फिर भी जो देश की तरह ही चल रहा था
जिसमें सबके कोई न कोई अपनी मर्जी से लिए गए दायित्व थे
सबकी बराबर की जिम्मेदारियों से चलता था यह कुनबा
जिसमें न तो कोई इतना उंचा था कि उसे छू पाना मुश्किल
न ही इतना नीचा कि उससे मिलने की सोच पर ही उबकाई आये
यानी कि तब गाँछ की एक गझिन छाँव जरूर हुआ करती
जिसमें हम छहां सके वक्त जरूरत पर    

एक अदृश्य से बंधन से हम सब बंधे थे  
हमारे लिए भी दिन-रात के कुल चौबीस घंटे ही मुक़र्रर थे
हालांकि इसमें एक भी पल कहीं आराम का नहीं था
और तो और हमारे हिस्से में कोई इतवार तक नहीं था 
क्योंकि हमारी ही प्रजाति का एक मुखिया खासतौर पर हमें सूक्ति की तरह
यह नारा दे चुका था कि आराम हराम है
काम की मारक थकान के बावजूद हम सोचते
काश हमारा यह दिन कुछ और बड़ा हो जाता
और रातें कुछ और छोटी हो जातीं
सुकून के कुछ पल हमारे पास भी होते
जिसमें थोड़ी मटरगस्ती हम भी करते 
और जैसे ही हम यह सब सोचते
यह सब उन्हें पता चल जाता जो हमारे लिए अदृश्य थे
पता नहीं वे देवता थे या दानव या मानव
हम पर विलासिता का इल्जाम लगाया जाता और गिरफ़्तार कर लिया जाता
हमें अदालतों में अपराधी की तरह पेश किया जाता
लोग आँखें फाड़कर देखते और चटखारे ले कर कहते अच्छा तो यही है वह देशद्रोही
जिसके बारे में आजकल बहुत चर्चा है
वे न तो हमें जानते, न हमारे ऊपर मढ़े गए इल्जामों से तनिक भी वाकिफ होते
फिर भी आगे जोड़ते हुए वे अपनी बात के क्रम में कहते   
यह तो बहुत शातिर है, इसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए  
फिर कभी ख़त्म न होने वाली तारीखों पर तारीख़ें पड़ती
सच की तरह दिखते झूठमूठ की कर्मकांडीय बहसें होतीं 
अंततः हजार पेजी तर्कसंगत से लगते फैसले में
हमें तुरत-फुरत फांसी की सजा सुनायी जाती
जिसके खिलाफ बोलना न्याय के खिलाफ बोलना होता
और फांसी पर चुपचाप लटक जाना क़ानून का सम्मान
हमारी रहम की याचिका हर जगह से खारिज हो जाती
और कहीं पर कोई उम्मीद नहीं दिखती 
अब आप ही बताईये 
हम कैसे करें उसका आदर जिसे हमारे जीवन से ही बैर हो
हम तो उस नियति से ही हमेशा मुठभेड़ करते आये
जिसे अक्सर अमिट और अपरिवर्तनीय बताया जाता
हमने हर अन्याय के विरोध में आवाज उठाने की हिमाकत की
भले ही हम मुठ्ठी भर थे
और वे इस पूरे दुनिया-जहान में फैले हुए      

हमारे जीवन की इबारतें तो
उस पसीने की सियाही से लिखी गयी थी
जिसे बिना किसी दिक्कत के दूर से ही साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता था
और जिसमें अटकने-भटकने की कहीं कोई गुंजाईश ही नहीं थी
पसीना ही वह दस्तावेज था हमारे पास जो सबसे अधिक सुरक्षित था
जिसके पुराने पड़ने, सड़ने-गलने की तनिक भी गुंजाईश नहीं थी
लेकिन सरकार को कागज़ी दस्तावेजों पर अधिक यकीन होता था
पसीने की भाषा उसके लिए अपठनीय लिपि थी
और इस बिना पर हम पूरी तरह ऐसे नामजद अवांछित
जिस पर भरोसा करना सरकार-ए-हुजूर का अपने साथ विश्वासघात करना होता   

हमारे प्रधानमंत्री के बार-बार आश्वासनों के बावजूद
कि दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा
हमारे शहर में किसी वक्त कहीं भी कोई दंगा हो सकता था
किसी वक्त कहीं भी कोई धमाका हो सकता था
किसी वक्त राह चलते या रेल या बस में यात्रा करते हमारे चिथड़े उड़ सकते थे
और आंसू पोछने के नाम पर हमारे परिजनों को
मुआवजे का एक ऐसा लोला थमाया जा सकता था
जिसमें उलझ कर रह जाते परिवार वाले
और फिर हमें भूल जाते अतीत की तरह हमारे परिजन ही  
फिर भी कोई विकल्प नहीं हमारे पास
हमें रोज कुंआ खोदने और रोज पानी पीने वाला सारा सरंजाम करना था
हमारा शहर आज की सरकारी रिकार्डों में एक संवेदनशील शहर था  
क्योंकि मिथकों में हमारे शहर का सम्बन्ध हमारे धर्म के एक अवतार के जन्मस्थल से था
और यह हमारा यह तथाकथित सहिष्णु धर्म
काफ़िरों को एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर पाता था
जबकि ईश्वर की पोल खुल चुकी थी पूरी तरह
कि अब वह बहुत-बहुत दयनीय और कमजोर हो गया था
इतना कमजोर कि अगर उसकी मूर्ति के पास कोई आतंकी बम रख देता 
जिससे उसका टुकड़े-टुकड़े होना सुनिश्चित
तो भी वह उसे हटा पाने में अक्षम था
हरदम अपनी अकड़ में जकड़ा रहने वाला 
हमारी रक्षा भला कैसे कर पाता 
ताज्जुब की बात तो यह कि सारे किन्तु-परन्तु के बावजूद
वह बचा लेता अपना समूचा ईश्वरत्व
और हम मर कर भी नहीं बचा पाते थोड़ी सी मनुष्यता
क्योंकि आदमजात खून तभी शांत पड़ता था
जब बदले में उतना ही खून बह जाए प्रतिद्वन्दी का  
आस्था को तर्क से ताकतवर बताने वाले धर्म की
एक समानांतर सत्ता हुआ करती हमारे देश में
जिसे चुनौती दे पाना नामुमकिन
जिसके ठेकेदार वे स्वघोषित शंकराचार्य जो अदालतों में रोज मुकदमें लड़ते
जिनकी सभी अंगुलियाँ बहुमूल्य रत्नों से जड़ित अंगूठियों से मंडित
वे बेहिसाब गोलीबारी करते, महंगी लक्ज़री गाड़ियों पर लाल-बत्ती लगा कर चलने के लिए
सरकारी अधिकारियों से होड़ करते, लड़ते-झगड़ते 
वे हमसे फल की इच्छा किये बिना काम करने को कहते
और अपने बेहिसाब इच्छाओं की भरपाई में मगन रहते    
इस धर्म की खासियत ही यह थी कि तमाम बलात्कारों, तमाम कालाबाजारियों
तमाम लूटपाट, तमाम भ्रष्टाचारों के बावजूद
लोगों की आस्था लगातार इसमें उमड़ती ही जा रही थी
चढ़ावे बेहिसाब बढ़ते जा रहे थे
इधर भूख से पटपटा कर मरने वाले लोगों की संख्याएं बढ़ती जा रही थी
जिसमें कभी हम शामिल होते
कभी हमारे ही परिवार का कोई अपना बिलकुल सगा
कभी हमारा ही वह जानी दुश्मन जो कभी हमारा लंगोटिया यार हुआ करता
जिसे शंकराचार्य हमारी नियति बताते  
इन दिनों धर्म-कर्म टी.वी. चैनलों का अच्छा ख़ासा व्यापार बन चुका था   
और तमाम तरकीबों के बावजूद
हम लोगों को कुछ भी समझा पाने में पूरे के पूरे निकम्मे साबित होते
धर्म पर लोंगों की आस्था इतनी जबरदस्त होती कि
फिजूल बातों पर भी उनका पुख्ता यकीन उमड़ आता
और गाय की पूंछ पकड़ बैतरनी पार करने का भरोसा मरते दम तलक बना रहता  

हम बहुसंख्यकों में वे अल्पसंख्यक हुआ करते थे
जिसका जिक्र न तो किसी अनुसूची में था
न ही आरक्षण की किसी कथा-कहानी में
हमारी लड़ाई में हमारे साथ केवल हमीं होते अकेले 
दरअसल हम ऐसे अल्पसंख्यक थे जो अपनों के बीच भी घोर अविश्वसनीय
और अपनी जाति-बिरादरी के खिलाफ़ ही अक्सर बोलते रहने वाले  
समय-असमय बिगुल बजा देने वाले विद्रोही थे
जिनका उन्मूलन ही सबसे बेहतर इलाज    
हालांकि उनके ही लब्जों में कहें तो
अपनी सोच को बेहतर साबित करने के लिए हम एक से एक ऐसे अकाट्य तर्क देते 
जिसे सुन कर सबको ताज्जुब होता
कि इतना इंटेलीजेंट होने के बावजूद कैसे बहक गया राह से
निकल गया हाथ से
यह तो किसी विधर्मी की गहरी साजिश लगती है
या फिर अपने ही किसी देवी देवता की घोर नाराजगी 
वैसे हम उनका भी विश्वास अर्जित कर पाने में प्रायः असफल रहते
जिनके हक़ की बातें अक्सर खुलेआम किया करते
जिनके साथ सदियों की घृणा को मिटा कर उठने बैठने, जीने-मरने  
साथ खाने और सम्बन्ध बनाने तक की कविताएं रचते रहते    
कुल मिला कर वहाँ हमें भेदिया समझा जाता 
जबकि अपनों के बीच हम गद्दार थे
हम अतीत और भविष्य के बीच डोलते उस वर्तमान की तरह होते
जिसके अस्तित्व के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता
केवल महसूस किया जा सकता है  
हम लगातार दोलन करते उस पेंडुलम जैसे थे
जो समय तो सही बताता 
लेकिन जिसके बारे में सब के ज़ेहन में एक शक लगातार बना रहता
आखिर यह किस ओर झुका हुआ है
और यह पेंडुलम समय बताते हुए भी टिक नहीं पाता एक भी पल
जैसे बेदखल होने के लिए अभिशप्त हर समय हर जगह  

यह वह समय था जब जहाँ कहीं जाओ
शिकारी हर जगह टोह में तैयार बैठे मिल जाते
वे तपस्वी भेष में भभूत लगाए हो सकते थे
नैतिक उपदेश बांचते हुए ईश्वरीय सन्देश देते हुए
वे याचक के रूप में आँखों में आंसू भरे दोनों हाथ फैलाए
आपके सामने बेवश और लाचार दिखने के सारे सरंजाम समेत हो सकते थे
जो अपनी लड़की की शादी में दहेज़ के लिए
या जो अपने बच्चे के गंभीर बीमारी के इलाज के लिए पैसा जुटाने में
न जाने कब से न जाने कब तक के लिए लगे हुए थे
दरअसल हम जैसे अपरिचितों को फांसने का यह उनका नुस्खा था आजमाया हुआ 
वे एक गाडी के ड्राईवर या कंडक्टर हो सकते थे
जो हमें घर पहुँचाने का आश्वासन दे कर अपनी गाड़ी में सम्मान बिठा कर
किसी वक्त भी हमें अपने चंगुल में फंसा सकते थे
और अकेला पा कर हमें लूट सकते थे
हमारी ह्त्या कर लाश को ठिकाने लगा सकते थे ऐसे
कि तीनों लोक चौदहों भुवन में खोजने पर भी पता न चल पाए कोई
वे राजनीतिज्ञ हो सकते थे जो आपको हर चुनाव के वक्त
रिरियाते, मिमियाते और बच्चों जैसे हमें पोल्हाते दिख सकते थे
हम उनकी जीत के लिए खून-पसीना एक करते
जुलूस में जाते, नारे लगाते
लेकिन अपनी आदत से परेशान वे हर जीत के बाद गायब हो जाते बेरहमी से
जैसे जनता कोई संक्रामक बीमारी हो
और अब उनकी चिंताएं देश की चिंता में बदल जाती  
यानी कि हर जगह हम तरबूजे थे
और शिकारी वह चाकू
जो जब और जहां से भी हम पर गिरता
हमें अकथनीय अकल्पनीय तकलीफ़ देता
बस हमें ही उजाड़ने के तरकीब रचता
इस तरह पुष्पित-पल्लवित होता रहता दुनिया का सबसे बड़ा यह लोकतन्त्र
और हारते जाते हमीं लगातार बार-बार 

शिकारियों की एक गोली से हमारी देह
रेलवे क्रोसिंग के पास बने वे वीरान घर हो जाती
जिन पर मोटे-मोटे डरावने हर्फों में लिखा होता- परित्यक्त
और हमारी आत्मा उसी वक्त ख़ानाबदोश बन जाती
जैसे कि सदियों से चला आ रहा हमारा यही मुक़र्रर पता हो 
जिस पर जाने के लिए कई संकरी गलियों
और कई तीखे मोड़ों से गुजरना होता
और भद्र व्यक्ति को बारम्बार अपनी नाक से मुआफी मांगनी पड़ती
और चेहरे को रुमाल से ढंकना पड़ता फ़ौरन 
हमारे पते पर पहुँच पाते हम जैसे जेहादी ही
बाकियों के लिए यह दुर्गम दुरूह ऐसी जगह थी
जिसका होना आमतौर पर शहर के लिए एक दाग एक धब्बा सरीखा होता
और जिसको गिराने के लिए शहर के बुलडोजर अपने सुरक्षाकर्मियों समेत 
अक्सर वहीं गरजा करते बरसा करते 
वहीं के घरों को चुटकी बजाते मलवे में तब्दील किया करते
हम समझने में नाकामयाब रहते हमेशा
कि बार-बार ऐसी घानी हमीं पर क्यों फिरती है आखिर
हमीं को दोषी ठहराया जाता क्यों बार-बार
हमारे ही ऊपर से पनाला क्यों बहाया जाता हर बार
हमीं क्यों ऐसे जिससे कोई मुरव्वत संभव ही नहीं    
कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हम
हमारा पता हमारा हुलिया
पूरा-पूरा दर्ज है उनकी खाता-बही में
उनके टोही उपग्रह हमारे एक-एक कदम का हर वक्त मानचित्र खींचते
और वे हमारी अहेर में जुटे रहते हमारा खात्मा किये जाने तक
हम किसी घराने से नहीं बल्कि उस घर से थे
जहाँ जमीन पर चिचिरी खींचने तक से हमें रोका जाता लड़कपन से ही 
तब हम भला किसी नरसंहार में शामिल कैसे हो सकते थे  
वैसे हमें तो उनके आसमान का चाँद भी उतना ही दागदार दिखता था
जितना वे हमारे आसमान के चाँद के दागदार होने के बारे में दावे करते
अब उन्होंने हमारे बादलों तक को रेहन पर रख लिया था
उनकी संगत में ये अब उदास चेहरे वाले वे बादल थे
जिनसे बरसाती चमक पूरी तरह गायब दिखती
ये बादल चाह कर भी हंस नहीं सकते थे  
जिनके होने पर भी अब किसी को न तो छाव मिलती
न ही कोई फुहार
यह हमारे समय का वह त्रासद दौर था
जिसमें तैयार फसलों के दाने
अगली फसलों के बीजों के तौर पर नहीं रखे जा सकते थे
और जिसमें बात-बात पर बाजार की राह देखनी पड़ती
अन्यथा की स्थिति में तड़प-तड़प कर मरना तो तय ही था हमारे लिए 

लगातार सिकुड़ते जाने के बावजूद
हमारे ग्लेशियरों से बहता रहा हर मौसम में पानी
जिसे जगह-जगह गेंड कर वे बिजली बनाते
तब भी हमारे घरों में जलने को अभिशप्त थी ढिबरी 
जिसकी रोशनी में पढी हमने जीवन की अनगिन किताबें
जिसकी रोशनी से सीखे हमने तमाम सबक
हमारे ग्लेशियरों ने नदियों से होते हुए जीवों जानवरों और पेड़-पौधों तक की
प्यास बुझाई सदियों की,
फसलें उगायीं दुनिया की भूख के बरक्स  
हमारे पानी के लिए हमेशा आतुर रहा समुद्र
जनमानस में यह गलत धारणा फैलाए 
कि इतना बड़ा वह कि
उसे जरूरत नहीं किसी की कोई
यहाँ समुद्र में भी कहाँ रह पाते हम चैन से
समुद्र के खारेपन में तब्दील हो हम नमक में बदलते गए
और दुनिया को स्वाद से सींचते रहे
सहेजते रहे हर जगह
हर पोटली में उम्मीद के बीज 

फिर भी हमारे हाथ खाली के खाली
जिसके बारे में वे आप्त वचन जैसे कहते रहते
खाली हाथ आया तूँ बन्दे, खाली हाथ जाएगा
और सेंकते रहे अपने हाथ हर संभव आंच पर 
अपने घरों तक की राहें रोके जाने के बावजूद हम 
इन खाली हाथों से ही बनाते रहे
दुर्गम से दुर्गमतम जगहों के घरों तक पहुंचाने वाली सड़के
अपने खेतों की नालियाँ रोके जाने के बावजूद
पहुंचाते रहे तमाम खेतों की नालियों में पानी
सींचते रहे तमाम खेतों को
हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में भी  
बेघर होने के बावजूद
अपने इन्हीं हाथों से हम खडी करते रहे दिन-रात तमाम इमारतें
अपने घृणा का पात्र बनने के बावजूद
हम रोपते रहे अपने तमाम गिरस्थों के खेतों में प्यार के बेहन
हम जागते रहे दिन-रात अनवरत
और जुटे रहे लगातार लोगों की नींद के लिए
इधर हम अपनी खाली आँखों में भी जगे सपने लिए हुए
जिनमें हमारे समय का नमक था
और इस नमक में जीवन था  

स्मृतियों को मिटा देने की तमाम कोशिशों के बीच भी
हमारे पास नदी थी उन गहरे यादों की
जिसमें हमारी नाव
कभी धारा के साथ
तो कभी धारा के खिलाफ बहती रहती थी बेखौफ़
इन नावों को डूबने से बचा लेती थीं हमेशा हमारी शामें 
जो अक्सर दादी की कहानियों
और माँ की लोरियों से भरी बड़ी मनोरम होतीं
स्मृतियों को और खुशगंवार बनाने के
दारोमदार को निभाने की समूची जिम्मेदारी
बिना किसी हिचक के हमीं को निभानी थी   

भविष्य चाहें जितना सुन्दर हो
अपने प्रांगण में घूमने टहलने की अनुमति नहीं देता कभी किसी को 
अतीत हमारी दुनिया का वह पुरातन भविष्य 
जिसमें होते हमारे वे दिन
जिसके फूलों के पास के पास मकरंद था
और इस मकरंद पर फ़िदा तितलियाँ थीं
उड़ती-फिरती रंग-विरंगी
हमारे इसी पतझड़ दिन में महुए की भीनी-भीनी गंध थी
खटास को मीठेपन में तब्दील करने की
जद्दोजहद में जुटे आम के टिकोढ़े थे
और कभी भी पोस न मानने वाली
उदास दिनों में भी सुरीले गीत गाने वाली कोयलें थीं

हम उन दिनों की रातें हैं
जिसकी एक सुबह सुनिश्चित
खुशियों के लबरेज खिलखिलाती सुबह
अनाज के दानों से भरी सुबह 

तुम क्या जानोगे एक दाने की अहमियत
एक दाने के खिसक जाने पर
तुम्हारा तराजू भी टस से मस नहीं होगा
लेकिन हम तो वे किसान हैं
जो अनाज के एक-एक दाने को उगाने का मर्म जानते हैं
जो अनाज के एक-एक दाने का वजन जानते है
एक-एक दाने का ठीक-ठीक पता पहचानते है
जो चिड़ियों से बेधड़क
उनकी भाषा में बातें कर सकते है
जो जानवरों तक की भावनाएं बखूबी समझते हैं

दिन-रात खटते, बोझ ढोते
हम वे मजदूर हैं 
जो एक-एक ईंट चुने जाने के साक्षी हैं
जिसके पसीने से सना है वह सीमेंट
जिस पर खडी है ऊँची-ऊँची इमारतें
हम वे कामगार हैं
जिसे एक-एक दिन के काम के लिए जद्दोजहद करनी है
हम वे बुनकर जो बिन थके लगे हुए अपने करघे पर
और खुद नंगे रह कर भी सबके लिए कपड़े बुनते हुए
हम दिन-रात उच्चरित होते वे श्लोक थे
जिसके मतलब वे आचार्य भी नहीं जानते
जिन्हें बड़ा गुमान हुआ करता था अपने इन क्लिष्ट श्लोकों की संपदा पर 
हम वे कथावाचक जो घूम घूम कर बांचते फ़िरते
रोचक अंदाज में अपने ही जख्मों की अध्यायवार गाथाएँ
जिसे सुनते लोग तल्लीन होकर पौराणिक कथाओं की तरह
और बीच-बीच में श्रद्धा के वशीभूत हो बराबर तालियाँ बजाते
जैसे कि यह ताली अब उनका यह तकिया कलाम बन गयी हो
जो हर वाक्य में अनायास ही शामिल हो जाती अपनी बदसूरती में भी
और जिसके बिना रह पाना अब असंभव उनका
दुनिया भर की
सारी विभीषिकाएँ हमारे लिए
सारे भूकम्प, सारे ज्वालामुखी, सारे तूफ़ान हमारे लिए
क्योंकि इसके हम आदी थे
और वे नाजुक इतने कि धूप में पिघल जाते 
ठण्ड में जम कर वर्फ बन जाते थे
इसीलिये मोर्चे पर तैनात किया जाता सिर्फ हमें ही
क्योंकि हमारे बीत जाने पर भी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनकी सेहत पर    

जिसके पास कोई अतीत ही नहीं
उसे बहुत डर लगता है उनके अतीत से
जो तमाम दिक्कतों के बावजूद साक्षी हैं एक समृद्ध अतीत के
सदियों से चलते चले आ रहे हैं अपनी राह पर
और जो तमाम मुसीबतों के बावजूद
तमाम प्रताडनाएं झेलने के बावजूद
देखते रहते हैं लगातार सपने
सच होने वाले
जो बार-बार मरने के बावजूद जी उठते
जो बार-बार गिरने के बावजूद अपने-आप ही उठ खड़े होते 
और बार बार फिर से जुट जाते
हार गयी बाजी जीतने के मंसूबे से

आपसे मुखातिब हम वही हैं
जो इतिहास से एक लम्बे अरसे तक गायब रहे
लेकिन आते रहे बार-बार कवियों की कविताओं में
उमड़ते-घुमड़ते रहे जीवन की कहानियों में
हम वही हैं जो अपना रास्ता बना कर बढते रहे हमेशा आगे
ठीक से पहचान लीजिए हम वही हैं
ठीक से देख लीजिए हम वही हैं
ठीक से लिख लीजिए हम वही हैं
कभी भी ख़त्म न होने वाले
 

बथुआ

बिना बोये ही उग आता है हर साल अपने सीजन में बथुआ
गेहूँ, जौ, सरसों, अरहर, आलू, मटर, उड़द के साथ ही

इसके बीज को सुरक्षित नहीं रखा कभी किसी किसान ने
खाद-पानी और निगरानी के दायरे से दूर रहने के बावजूद 
लुप्त नहीं हुई इनकी प्रजाति
अकाल भी ख़त्म नहीं कर पाए इसे
पइया नहीं पड़ा कभी इसका बीज
और जिद का आलम तो देखिये  
अब भी जब मौसम थोड़ा ठण्डाता है
आत्मीय गर्मी लिए हमेशा हाजिर हो जाता है बथुआ

लहलहाने लगता हैं बराबर अपने सीजन में
बिना नागा किये हरदम अपने खेतों की मिट्टी में लौटता है
पता नहीं कब से बने हुए नाते को निभाने के लिए
बराबर तत्पर रहता है बथुआ

घर-परिवार और समाज में ही जीने की प्रतिज्ञा निभाता रहा हमेशा
इसीलिए कभी अलग खेत नहीं माँगा अपने लिए 
बार-बार उखाड़ कर फेंके जाने के बावजूद
इसकी पैदावार पर कोई फर्क नहीं पड़ा कभी
जमता रहा हमेशा अपने ही अंदाज में   

हमें प्रतीक्षा रहती है हर साल की ठंडी में 
साईबेरियन क्रेन की तरह इस बथुए की भी
हमें प्रतीक्षा रहती है बथुए के उस खटतूरस स्वाद की
जिसकी तासीर सिर्फ उसी के पास है
हमें प्रतीक्षा रहती है अप्रवासी बथुए के उस खिलखिलाहट की
जिसे सुनने के लिए न जाने क्यों हमेशा बेचैन रहा करता हूँ  

बथुआ चला आता है बिन बुलाये ही
हमसे बात करने, हमारी बात सुनने 
खेतों की बयार वाली मस्ती में झूमने
किसी न्यौते की प्रतीक्षा किये बगैर ही  
बथुआ आ धमकता है साग खोटने वाली स्त्रियों के साथ के लिए
बिना नाकुर-नुकुर किये चुपके से चला जाता है उनकी फाड़ में बथुआ घर तक
अब यह प्यार ही कुछ इस किसिम का होता है कि वह
कट जाता है भुजूड़ी-भूजूड़ी पंहसुल से ख़ुशी-ख़ुशी
कड़ाही में चढ़ जाता है सीझने खातिर आग तक पर
कभी साग बन जाता है
कभी दाल में ही एडजस्ट हो जाता है
तो कभी पराठे में मिल कर गुल खिलाता है
इन सारी मलामतों के बावजूद आता है तो आता है  

बथुआ जब भी आता है
हमारे छूंछे पड़ गए भात में एक स्वाद लाता है
हमारी रोटियाँ गुनगुनाने लगती हैं गीत 
जीवन को इस तरह भी जिया जा सकता है
बथुआ हमें यह बेतकल्लुफी से बतलाता है
बिन मांगे ही अपना प्यार जतलाता है
अपनी फकीरी पर ही जी भर इतराता है 
फिर एक रोज न जाने कहाँ चला जाता है चुपके से
इन्तजार करा कर आने के लिए

वह जानता है कि
प्यार में इस इन्तजार का भी अपना एक मतलब हुआ करता है
इसलिए वह हर सीजन में 
घर लौट आता है अपने साथ स्वाद की कमाई ले कर
उसकी आस में बैठा घर झूम उठता है उसे पा कर 

घास-पात वाली प्रजाति माने जाने के बावजूद हताश नहीं हुआ कभी
सागों में भी पालक जैसी अहमियत नहीं मिल पायी इसे कभी   
फिर भी बथुआ की रंगत तो बस बथुआ के पास ही है
इसीलिए हमें तो बस वह अपना बथुआ ही चाहिए 
बिन बोयी सुवास वाला
स्वाद में बिल्कुल ख़ास वाला
प्यार अनायास वाला


ना कहना


जीवन में किसी को हाँकहने  से
कहीं अधिक मुश्किल होता है नाकहना

इतिहास गवाह है कि
नाकहने वालों ने हर जमाने में
तमाम जहमतें उठायीं
दर-दर की ठोकरें खायीं
फिर भी झुके नहीं ऐसे लोग किसी के सामने
कहा वही
जो लगा सही

नादुनिया का साफ़-सुथरा
और साहसिक वक्तव्य है
जिसे बोलना तस्दीक करता है यह
कि जब तक दुनिया में रहेगा यह  ना
प्रतिरोध का माद्दा बचा रहेगा इस धरती पर 

तानाशाह जब भूल जाते हैं सुनने की आदत
नाकी एक अस्फुट सी ध्वनि
उन्हें बेइन्तहा परेशान कर देती है
नाकी एक आवाज
सर्वसम्मति की हजार-हजार आवाजों से
बिल्कुल अलहदा दिखायी पड़ती है

ऐसे में जबकि खत्म होती जा रही है
इस दुनिया से प्रतिरोध की तहजीब ही
आदमी की ताकत है यह ना 
जिसे नष्ट नहीं कर पाए
एक से बढ़ कर एक मारक हथियार भी

अगर बचाए रखनी है इस धरती पर इंसानियत 
तो बचानी होगी हमें अपने पास
सख्ती से नाकहने की तहजीब 


सीढियाँ


ऊपर चढ़ाने का हुनर रखने के साथ-साथ 
सीढ़ियों ने बचा रखी है वह नायाब तरकीब अपने पास  
जिससे जमीन पर उतारा जा सके
औकात भूलने वालों को
फ़ौरन


ज्ञ

हिन्दी वर्णमाला का आख़िरी अक्षर है यह
इसका अर्थ ज्ञान और ज्ञानी दोनों से जुड़ा है
यह बात अक्सर परेशान करती रही है मुझे
कि जिस शब्द को वर्णमाला में सबसे पहले आना चाहिए था
वह सबसे बाद में क्यों आता है 

कहते हैं उमर गुजर जाती है
बचकानापन नहीं छूट पाता
केश धवल होने के बाद भी
आदमी कर सकता है बेइन्तहा मूर्खताएँ लगातार
और अपनी पीठ खुद ही ठोकने के करतब भी दिखा सकता है
साक्ष्य के तौर पर तमाम दस्तावेज भी पेश कर सकता है

चाहने से सब कुछ मिल जाता है
मगर ज्ञान नहीं मिल पाता

इतना आसान भी कहाँ इसका मिलना
तमाम डिग्रियाँ मिल जाती हैं
नाम पर उत्कृष्ट कोटि की कई किताबें छप जाती है
इनामात मिल जाते हैं  
देश-विदेश घूम आते हैं लोग  
सम्पन्नता छा जाती है
हनक आ जाती है
अहंकार छा जाता है
दूसरों को नीचा दिखाना आ जाता है
षडयन्त्रों का बारीक तार बुनना आ जाता है
तुनकमिजाजी आ जाती है
सचमुच, सब कुछ आ जाता है  
मगर ज्ञान नहीं आ पाता

विद्या का मतलब दिखावे नहीं
विद्या का मतलब किताबें नहीं
विद्या का मतलब हमेशा चपर-चपर बोलना नहीं
विद्या का मतलब इन सबसे अलग भी होता है
कहावत भी है हमारे इलाके में
‘जरो विद्या बिना बुद्धि’

किताबों में लिखा हमेशा सच ही नहीं होता
किताबें भी अक्सर झूठ बोलती हैं
किताबें भी अक्सर हमें बहकाती हैं
कुछ किताबें तो हमें इतनी श्रद्धालु बना देती हैं
कि लकीर के फ़कीर बन कर ही ज़िंदगी गुजार देते हैं हम 

कुछ किताबें इस तरह मूर्ख बनाती हैं
कि हमें थोड़ी भी भनक तक नहीं लग पाती
षडयन्त्र रचते हुए किताबें लिखी तो जा सकती हैं
विचार नहीं रचे जा सकते

किताबों को रचा आदमी ने ही
इसीलिए किसी भी लिखे को पकाना पड़ता है
अपने विचारों की आँच पर बारम्बार
इसीलिए किसी भी लिखे में करना पड़ता है लगातार
सुधार...   

कोई दैवी वरदान नहीं
दरअसल अर्जित धन है यह मनुष्य का
मनुष्य की पीढ़ियों का
जिसे कर-कर के
जिसे एक एक कदम चल-चल कर के  
जिसे पल-प्रतिपल मर-मर के
सीखा है आदमी ने
बहुत कम लोग जानते हैं
कि हमारे जीने में
तमाम अनाम शहादतें शामिल हैं

ज्ञान किसी गरीब को हो सकता है
किसी झोपडी में फल-फूल सकता है
किसी किसान की थाती हो सकता है
किसी सुजाता के खीर की प्याली में हो सकता है  
पर किसी का हको हुकूक नहीं इस पर जन्मजात
इसे पाना होता है हमेशा नए सिरे से 

अनुभवों में रचा-पगा होता है यह
इसे पाने के लिए
सीखना होता है
लडखडाना होता है बार-बार
सहज होना पड़ता है माँ-पिता जैसे ही
गिर-गिर कर उठना होता है इसे पाने के लिए
अपमान सहना पड़ता है
असफलता का दंश भी झेलना होता है

इस ज्ञान के भरोसे आगे बढ़ती आयी यह दुनिया
इसी के भरोसे आदमी हो पाया यह आदमी  
 
अपनी टहनी पर मुद्दतों बाद खिला
चलते-चलते आख़िरी मुकाम पर मिला
अब लगता है
ऐसे ही नहीं अन्त में प्रतिष्ठित
हमारी वर्णमाला में आख़िरी अक्षर यह
इसे पाने के लिए तमाम शब्दों से पार पाना होता है 

अक्सर लगता है कि
हमारी वर्णमाला का जो अंतिम अक्षर है 
वह अंत नहीं
दरअसल एक आरम्भ की शुरुआत है

ईलाहाबाद में रहते हुए संतोष जी इतिहास पढ़ाते हैं और एक ज़रूरी पत्रिका "अनहद" तथा ब्लॉग "पहली बार" का सम्पादन करते हैं. 

टिप्पणियाँ

बहुत सुन्दर कविताएं..हमारे घर परिवार के रोजमर्रा के उपयोग होने वाले -दाल,खारापानी,बथुआ,पासंग इत्यादि-प्रतीकों का प्रयोग कर सरल सहज शब्दों में गहरी बात ..कवि को बहुत बहुत बधाई !साथ में सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपको भी जिसके कारण कविता पढ़ने को बाध्य हुआ..

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-10-2018) को "विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विजयादशमी और दशहरा की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बथुआ , ज्ञ और अनाज के दाने का वजन जानते हैं हम उल्लेखनीय कविताएँ !कवि की चेतना में सामान्य जन का लोक संरक्षित है। यह चेतना अतीत के सहारे वर्तमान को समझने , उसे चुनौती देने की प्रेरणा देती है। कुछेक भाषिक प्रयोग खटक रहे हैं । संभव है इस पर ध्यान न गया हो । यथा - अनाज के दाने का वजन जानते हैं हम में - तब एक-एक कर सारी पक्षियाँ निकल जाती उड़ान पर या ज्ञ कविता की अंतिम पंक्ति -- आरम्भ की शुरुआत कहना ।
धैर्य से पढ़ने की मांग करती हुई आगाह करती बेहतरीन कविताओं के लिए भाई संतोष चतुर्वेदी जी को बहुत बहुत बधाई।
अरुण अवध ने कहा…
कविताएँ सभी बहुत शानदार हैं। अपने आस-पास से चुनी हुई अनुभूतियों को एक नए कलेवर में देखने का सुख देती कविताएँ।
कवि और ब्लॉग दोनों को बधाई।

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