मजाज़ की वह अविस्मरणीय नज़्म
ब्युकोवस्की की कविता का अनुवाद करने के बाद उसे यहां-वहां से पढ़ता रहा और इस दौरान मजाज़ बेतरह याद आते रहे…हमारा अपना बोहेमियन शायर…पेश है उनकी बेहद प्रसिद्ध नज़्म 'आवारा' और 'नौजवान ख़ातून से' आवारा शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने