कथन का नया अंक : भारत में शिक्षा की दशा और दिशा पर विशेष



"कथन" लघुपत्रिका आन्दोलन के दौर की उन पत्रिकाओं में से है जिनसे हमारी पीढ़ी और उसके पहले की पीढ़ी के कई लोगों ने एक लेखक के तौर पर अपनी शुरुआत ही नहीं की बल्कि साहित्य, समाज और राजनीति की आरम्भिक ट्रेनिंग भी हासिल की. लम्बे अंतराल के बाद जनवरी में इसका 81 वाँ अंक आया था और हाल ही में इसका नया अंक आया है.





शिक्षा की दुर्दशा और भविष्य की दिशा
अप्रैल, 2019 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं कक्षा की समाजशास्त्र की पुस्तक में से तीन पाठ निकाल दिये। ये पाठ थे जनतंत्र और विविधता’, ‘जनसंघर्ष और आंदोलनतथा जनतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ। इससे पहले नवीं कक्षा की पुस्तक में से जाति संबंधित एक पाठ भी निकाल दिया गया था। तर्क दिया गया कि विद्यार्थियों पर से बोझ कम करने के लिए ये पाठ हटाये गये हैं। प्रश्न यह है कि बोझक्या है, यह तय कौन करता है? फिर यह बोझ हमेशा साहित्य, इतिहास या समाजशास्त्र की पुस्तकों में से ही कम क्यों होता है? अर्थशास्त्र, विज्ञान या गणित की पुस्तकों में से क्यों नहीं?




हमारी शिक्षा व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में विद्यार्थी के पूर्वज्ञान और जीवन अनुभव का कोई स्थान नहीं है। इसी तरह उसमें प्रश्न करने की भी कोई जगह नहीं है। ऊपर बताये गये पाठों को पढ़ते हुए किसी विद्यार्थी के मन-मस्तिष्क में अनेक प्रश्न उठ सकते हैं। मसलन, पुस्तक में लिखा हो कि भारत एक जनतांत्रिक देश है और स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व जनतंत्र के मूल आधार हैं। विद्यार्थी का अपना अनुभव कहता है कि उसकी जाति या संप्रदाय के आधार पर उसके साथ असमानता का अमानवीय व्यवहार होता है, उसकी बहुत-सी स्वतंत्रताएँ बाधित होती हैं और उसे समाज में घृणा का सामना करना पड़ता है। क्या वह कक्षा में अपने इस अनुभव को साझा करते हुए यह प्रश्न पूछ सकता है कि क्या भारत में सच्चा जनतंत्र है? क्या उसका शिक्षक, भले ही वह एक संवेदनशील और तार्किक व्यक्ति हो, कक्षा के निर्धारित समय में उसकी बात धैर्य से सुनकर उस पर कक्षा में चर्चा करा सकता है? तब, जबकि उस पर पाठ्यक्रम को निर्धारित समय पर पूरा करने और बढ़िया परीक्षा परिणाम लाने का दबाव हो? क्या बढ़िया परीक्षा परिणाम लाने का दबाव स्वयं उस विद्यार्थी को परीक्षा में अपने अनुभव के आधार पर जनतंत्र संबंधी प्रश्न का उत्तर लिखकर प्रतिप्रश्न उठाने का साहस और स्थान देता है?

ये और ऐसे तमाम प्रश्न इस मूल प्रश्न से निकलते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है। बाजार और पूँजी से संचालित वर्तमान व्यवस्था में शिक्षा एक पण्य-वस्तु बन गयी है, जिसे उसका मूल्य चुकाकर एक सुख-सुविधासंपन्न शानदार भविष्य बनाने लायक रोजगार पाने के लिए खरीदा जाता है। कितने रोजगार किन क्षेत्रों में होंगे, उनके लिए किस शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होगी, कौन-सा विषय उसके लिए जरूरी होगा और उस विषय का पाठ्यक्रम क्या होगा--यह सब तय करता है वह कॉरपोरेट जगत, जिसे अपनी व्यवस्था की मशीनरी चलाये रखने के लिए पुर्जों की आवश्यकता है। हर स्तर पर तरह-तरह के पुर्जे। योग्य इंजीनियर या प्रबंधक से लेकर कुशल मजदूर तक। ये सब पुर्जे तैयार करने के लिए वह एक खास तरह की शिक्षा व्यवस्था तैयार करता है और राज्य द्वारा उसे लागू कराता है। यानी राज्य, जो एक समय में शिक्षा को स्वयं संचालित करता था, आज कॉरपोरेट के लिए शिक्षा व्यवस्था का प्रबंधन मात्र करने की स्थिति में आ गया है।





इस शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी, जिन्हें अब मानव संसाधन कहा जाने लगा है, अपनी इच्छा, अभिरुचि और क्षमता को भुला उन्हीं विषयों को पढ़ने और उन्हीं क्षेत्रों में अपना भविष्य खोजने को विवश हैं, जिन्हें बाजार ने निर्धारित कर दिया है। वे बिना कोई प्रश्न किये, अनचाही दौड़ में दौड़ रहे घोड़े की तरह अंधौटा लगाये भाग रहे हैं। बिना दायें-बायें देखे। व्यवस्था उन्हें कुछ भी देखने-सुनने-महसूस करने का अवसर नहीं देना चाहती। वे देखेंगे, सुनेंगे, महसूस करेंगे, तो प्रश्न करेंगे। और प्रश्न उठाया जाना व्यवस्था को चुनौती देना है। इसलिए पाठ्यक्रम से ऐसे पाठ निकाल दिये जायें, या ऐसे विषय ही व्यर्थ घोषित कर समाप्त कर दिये जायें, जो सोचने और प्रश्न करने को उकसाते हों।
परीक्षोपयोगीएक बहुत प्रचलित शब्द है। यानी परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी। आरंभ में जिन पाठों की चर्चा की गयी है, उन्हें हटाये जाने पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा गया कि वे पाठ पुस्तक में तो रहेंगे, लेकिन परीक्षा में उनमें से प्रश्न नहीं पूछे जायेंगे। उपयोगितावादी दृष्टिकोण से चल रही शिक्षण प्रणाली में इसका अर्थ है कि इन पाठों को छोड़दिया जायेगा, क्योंकि इन्हें पढ़ाने में समय नष्ट होगा!

चिंतन-मनन करने, तर्क-क्षमता विकसित करने, प्रश्न उठाने और उनके उत्तर खोजने की दिशा में प्रवृत्त करने के बजाय विद्यार्थियों को जैसे भी हो, परीक्षा में अच्छे अंक लाने और उनके बल पर अच्छा रोजगार पाने के प्रयास की दिशा में धकेल दिया गया है। और यह सब कुछ जल्दी-जल्दी किया जाना है, इसलिए जो पढ़ा और पढ़ाया जाता है, उसमें ज्ञान नहीं, सूचनाओं का ही अंबार है। शिक्षक और शिक्षार्थी, दोनों के ही पास समय का अभाव है, इसलिए पढ़ते-पढ़ाते हुए जो आनंद मिलना चाहिए, वह भी नदारद है।

विडंबना यह है कि रोजगार रूपी जिस सुनहरे भविष्य की आस सँजोये शिक्षार्थी शिक्षा को बाजार से खरीदते हैं, वह भी उन्हें प्राप्त नहीं हो रहा। जो काॅरपोरेट उनके लिए शिक्षा का समूचा तंत्र बना रहा है, वही उनके लिए रोजगार के अवसर अपनी जरूरत और मर्जी से बढ़ा-घटा रहा है। एक रोजगार के लिए अनेक कुशल श्रमिकों (बड़ी डिग्रियों वाले शिक्षित युवा भी उसके श्रमिक ही हैं) की भीड़ उसके लिए लाभदायक है। असुरक्षा का भय दिखाकर वह मनमाने ढंग से उनका शोषण कर सकता है।




पहले भी हमारे यहाँ शिक्षा का उद्देश्य व्यवस्था में काम आने वाले नौकरशाह, इंजीनियर, डाॅक्टर, अध्यापक आदि ही पैदा करना था, और वह भी कोई सच्ची जनतांत्रिक व्यवस्था नहीं थी, फिर भी उसकी शिक्षा में यह मूल्य निहित था कि ये तमाम पेशे आजीविका का साधन होते हुए भी देश और समाज के हित में काम करने के लिए हैं। बाकी, पेशों के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप उस समय भी पूर्वनिर्धारित था। सफेदपोश पेशों के लिए अलग शिक्षा और हाथ के श्रम से जुड़े पेशों के लिए अलग शिक्षा। इस अलगाव के कारण हमारे समाज की जातिगत और वर्गीय संरचना में मौजूद थे। उच्च वर्गों और वर्णों ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने और बढ़ाने के लिए इस अलगाव को खत्म नहीं होने दिया।
आज पूरी तरह पूँजी के हितों से संचालित शिक्षा व्यवस्था में देश, समाज और मनुष्य के हित वाली नैतिकता सिरे से गायब है। आत्मकेंद्रित बनाकर केवल अपने स्वार्थ के लिए जीने को प्रेरित करने वाली यह शिक्षा अब यांत्रिक ढंग से सोचने, जीने और मालिक से बिना कोई प्रश्न किये सिर झुकाये काम करने को तैयार संसाधन ही विकसित कर रही है। शिक्षा के नाम पर अधकचरे ज्ञान और बदले में बेरोजगारी ने युवाओं की एक ऐसी अराजक भीड़ पैदा कर दी है, जिसके भीतर अपराधीकरण लगातार बढ़ रहा है। अपने यथार्थ को समझने, उसके बदतर होने के कारणों को जानने और उसे बदलने की क्षमता न होने के कारण ये हताश युवक अपने और दूसरों के प्रति हिंसक हो रहे हैं। इन प्रबुद्ध और पढ़े-लिखे कहे जाने वाले किंतु अति संकीर्ण मानसिकता वाले युवाओं को वर्चस्वशाली शक्तियाँ अपने हित में इस्तेमाल कर रही हैं।


शिक्षा में वैकल्पिक संभावनाएँ खोजने वाले, उसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की जगह बनाने और बचाने के लिए संघर्षरत तमाम लोग वास्तव में समाज में जनतंत्र को बचाने की ही लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके लिए शिक्षा का उद्देश्य भिन्न है। वे शिक्षा को बेहतर मनुष्य बनाने की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। यह संघर्ष दो भिन्न व्यवस्थाओं के बीच का संघर्ष है, जिसका संबंध केवल वर्तमान से न होकर मनुष्य और समाज के बेहतर भविष्य तक से है।

सबको शिक्षा सबको कामएक बहुत महत्त्वपूर्ण माँग है। यह माँग राज्य की जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने की माँग है। जो व्यवस्था लाखों में से एक को चुनकर बाकियों को बहिष्कृत कर देने वाली व्यवस्था हो, जो पढ़ाई के विषयों और रोजगार के क्षेत्रों में चयन के विकल्पों को सीमित या समाप्त करने वाली व्यवस्था हो, जो आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर विभेद पैदा करने और उसे निरंतर बढ़ाने वाली व्यवस्था हो, उसके समक्ष यह माँग रखना इस मौजूदा व्यवस्था को बदलने की माँग रखना ही है।

  • संज्ञा उपाध्याय


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