स्वप्निल श्रीवास्तव की कवितायें
स्वप्निल श्रीवास्तव नब्बे के दशक के उन कवियों में हैं जिनकी कविता का भावबोध एक तरफ़ अस्सी के दशक से सीधे जुड़ता है तो दूसरी तरफ़ अपने लिए एक बिलकुल नया काव्य संसार गढ़ता है. जीवन के बेहद मामूली लगाने वाले अनुभवों को अपनी कविताई से विराट बिम्ब में बदल देने की अपनी अद्भुत क्षमता से स्वप्निल भाई पिछले तीन दशकों से अधिक समय से लगातार सक्रिय हैं और मानीखेज़ कविताई कर रहे हैं.
ये कविताएँ हमारे अनुरोध पर उन्होंने असुविधा को उपलब्ध कराई जिसके लिए हम उनके आभारी हैं.
अक्ल
के अंधे
अंधों
के पास देखने की क्षमता
नहीं
थी
हाथी
को छूकर उन्होने बताया
कि
घोड़े इसी तरह होते हैं
पत्थर
को टटोल कर कहा –
इसे
मंदिर में रख दो
ये
ईश्वर हो जायेगे
गाय
को बिना छुये पहचान
जाते
थे
उसे
वे मनुष्य से ज्यादा पवित्र
मानते
थे
गाय
के नाम पर जो मारे जाते थे
उसके
लिये वे दुखी नहीं होते थे
वे आंख के नहीं अक्ल के
अंधे
थे
अंधेरों
से पैदा हुये थे
उनके
विचार
अपनी
बात को बलात् मनवाने के लिये
हिंसक
हो जाते थे
जो
हुकुम नहीं मानता था
उसे
साम्राज्य से बेदख़ल कर देते थे
धृतराष्ट्र
उनके नायक थे
उन्ही
की तरह मोहांध और
सत्ताप्रेमी
थे
वे
अपने बंश की रक्षा के लिये
अपने
सौ पुत्रों के उत्सर्ग के लिये
तैयार
थे
वे
सच की नहीं झूठ की लड़ाई
लड़
रहे थे
गर्म
कपड़े
गर्म
कपड़ों हैगर उतर कर
संदूक
में चले जाओ
फिनाइल
की गंध में
आराम
करो
जाड़े
के कठिन समय में तुम
हमारे
लिये बने रहो कवच
हमें
ठंड से भरपूर बचाया
हमारे
त्वचा की रक्षा हुई
भेड़ों
– अब गडेरिये तुम्हारी उन के लिये
नहीं
होगे निर्मम
वे
किसी दूसरे ज़रूरी काम में
लग
जायेगे
कैचियाँ
– तुम्हारा ऊन उतारते – उतारते
थक
गयी होगी
वे
सान की दुकान पर अपनी
बारी
के इंतज़ार में होगी
चरागाहों
की हरी घास तुम्हारे लिये
बेचैन
हो रही होगी
तुम
उनका आतिथ्य स्वीकार करो
गडेरिये
चैन की बांसुरी बजा रहे है
उसे
सुनों और बंसवारी के दुख को
महसूस
करो
गर्मियाँ
शुरू हो गयी हैं
इसमें
काम नहीं आयेगे गर्म कपड़े
सूत
के कपड़े ही मुफ़ीद होंगे
जो
पानी हमें ठंड के दिनों में डराता था
वह
अब अच्छा लगने लगा है
यह
नदियों में डूब कर नहाने और
झरनों
के पनाह में जाने के दिन हैं
भेड़ों
,
तुम अपने लिये खोज लो
कोई
शीतल छांह और हम नदियों
प्रपातों
के सानिध्य के लिये अपना
प्रेम
पत्र भेज रहे हैं
मुमकिन
है
मुमकिन
है जिन लोगों ने तुम्हें
इस
मुकाम तक पहुँचाया वे तुम्हे
अपदस्थ
कर दे
मुमकिन
है स्वामीभक्त चूहे डूबने के डर से
दूसरे
जहाज की नागरिकता ग्रहण कर ले
यह
भी सम्भव है कि तुम्हारे बोले गये
वाक्यों
का इतना पतन हो जाय कि लोग
पर
यक़ीन करना छोड़ दे
यह
भी मुमकिन है कि तुम अपनी
विचारधारा
के अंतिम शासक बन कर
न
रह जाओ
तुम
शिखर पर बैठ यह मत सोचना
कि
यह तुम्हारी स्थायी जगह है
लोग
तुम्हारे अहंकार के साथ तुम्हारा मुकुट
भी
उतार सकते हैं
बांसुरी
की आवाज
कहीं
मेरी बांसुरी गायब हो गयी है
मैं
गूंगा हो गया हूं
मैं
बांसवनों में बांसुरी को खोजता रहा
तुम्हारे
घर के ताखे तलाश डाले
उन
जगहों पर गया – जहाँ अक्सर चीजें
रखकर
भूल जाया करता था
लेकिन
नहीं मिली बांसुरी
मैं
बांसुरीवाले के घर गया और पूंछा –
..
क्या तुम जानते हो कि मेरी बांसुरी कहां है
उसने
कहा .. आप हर साल यही सवाल
पूछते
है
आपको
मालूम होना चाहिये कि बांसुरी आदमी
के
कंठ में छिपी रहती है.. बस थोड़ा बेचैन
और
उदास होने की जरूरत है
बांसुरी
ख़ुद बजने लगेगी
धर्म
जब
उनकी मृत्यु होने लगी
बड़े
बेटे ने उनकी उंगुली से
निकाल
ली कीमती अंगूठी
दूसरे
बेटे ने चुरा लिये सोने के दांत
तीसरा
बेटा – जिसे पिता का सर्वाधिक
प्रेम
मिला था – उसकी नजर गले की
चेन
पर थी
वह
उसे हासिल करने का मौका
ढ़ूंढ़
रहा था
इस
तरह इस उत्तर आधुनिक समय में
बेटों
ने अपने ढ़ंग से पिता को श्रद्धांजलि
देने
का धर्म निभाया
राजमार्ग
जनता
बनाती है राजमार्ग लेकिन
वह
उस पर से गुजर नहीं सकती
राजमार्ग
से आते – जाते है राष्ट्राध्यक्ष , आततायी
दलाल
और तस्कर
वे
राजमार्ग को अपने क़ीमती जूतों से
रौदते
रहते हैं
वे
राजमार्ग से होते हुये इतिहास में
दाख़िल
होने की हिमाक़त करते
रहते
हैं
राजमार्ग
पर मजज़दूरों के नहीं
राजनेताओं
और देशद्रोहियों के नाम
दर्ज
होते हैं
उनकी
अमरता के लिये उत्सव मनाये
जाते
हैं
राजमार्ग
पर चलते हुये हत्यारे , हत्यारे नहीं
नायक
बन जाते हैं
राजमार्ग
की खिड़की संसद में
खुलती
है – यहाँ आकर छिप जाते
हैं
अपराधी
ग़ुलाम
कई
बार मैंने सोचा कि मैं तुम्हारा
ग़ुलाम
बन जाऊँ
तुम्हारी
मर्जी से प्रेम करूँ
नाचूं
– गाऊं
लेकिन
लोग इस रिवाज़ को
इज्जत
की नज़र से नहीं देखते
लोग
पक्षी की तरह आज़ाद
रहना
चाहते हैं
उन्हें
पिंजरों की बंदिश पसंद नहीं है
अगर
कोई अच्छा सैय्याद मिल जाय
तो
उसकी क़ैद कुबूल करने में
क्या
हर्ज है
बाहर
की दुनियाँ कौन सी अच्छी है
वहाँ
हमारे क़त्ल के सामान
जमा
हो रहे है
बस
घर से बाहर निकलने की देर है
वे
हमें जिबह करने को तैयार बैठे हैं
..................................
स्वप्निल
श्रीवास्तव
510
– अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद
– 224001
मोबाइल
फोन – 09415332326
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दृश्यों को बिम्ब मे'रूपांतरित कर देने की क्षमता उनमें है।