वे
(दोस्तों ने कहानी का एहतराम तो किया पर साथ ही इसरार भी कि इस ब्लाग को कविता के लिये ही आरक्षित रखा जाय…तो अब कवितायें ही रहेंगी यहां…लीजिये प्रस्तुत है कोई दस साल पहले लिखी यह कविता जो बाद में साखी मे छपी)
वे
सबसे ऊंची आवाज़ में
नारे लगाकर भर देते हैं
सबसे ज्यादा खालीपन
सबसे दहकते लहू में
भर देते हैं बर्फ का ठंढापन
वे
समझौते के ख़िलाफ़
बोलते हुए कर देते हैं
सबकुछ समर्पित
मांग लाते हैं
हड्डियां दधीचि से
और ड्राईंगरूम में
सजाकर रख देते हैं वज्र
वे
ख़तरा टल जाने पर
एकान्त टापू से निकल
करते हैं सावधान
सबसे क्रांतिकारी
सिद्धांतों का परचम लिये
सबसे महफ़ूज़ जगहों पर
लगाते हैं पोस्टर
और इस तरह
धीरे-धीरे
वे बदल देते हैं वह सब
जो नहीं बदलना चाहिये
वे
सबसे ऊंची आवाज़ में
नारे लगाकर भर देते हैं
सबसे ज्यादा खालीपन
सबसे दहकते लहू में
भर देते हैं बर्फ का ठंढापन
वे
समझौते के ख़िलाफ़
बोलते हुए कर देते हैं
सबकुछ समर्पित
मांग लाते हैं
हड्डियां दधीचि से
और ड्राईंगरूम में
सजाकर रख देते हैं वज्र
वे
ख़तरा टल जाने पर
एकान्त टापू से निकल
करते हैं सावधान
सबसे क्रांतिकारी
सिद्धांतों का परचम लिये
सबसे महफ़ूज़ जगहों पर
लगाते हैं पोस्टर
और इस तरह
धीरे-धीरे
वे बदल देते हैं वह सब
जो नहीं बदलना चाहिये
टिप्पणियाँ
दल भी और दलदल भी
नहीं तो धंस नहीं जायेंगे
वे होशियार हैं जानते हैं
रंगे सियार हैं, फिर भी
पहचाने जाते हैं .. वे।
"मांग लाते हैं / हड्डियां दधीचि से
और ड्राईंगरूम में / सजाकर रख देते हैं वज्र" कुछ अजीब ढ़ंग से छुआ है इन पंक्तियों ने...
सबसे ऊंची आवाज़ में
नारे लगाकर भर देते हैं
सबसे ज्यादा खालीपन
सबसे दहकते लहू में
भर देते हैं बर्फ का ठंढापन
और
सबसे क्रांतिकारी
सिद्धांतों का परचम लिये
सबसे महफ़ूज़ जगहों पर
लगाते हैं पोस्टर
... अव्वल दर्जे की उम्दा पोस्ट...
सिद्धांतों का परचम लिये
सबसे महफ़ूज़ जगहों पर
लगाते हैं पोस्टर
और इस तरह
धीरे-धीरे
वे बदल देते हैं वह सब
जो नहीं बदलना चाहिये
सटीक !
"वे"
दरअसल वे होने के लिये ही तो जरूरत पड़ती है नारों, पोस्टरों और वज्र की।
सिद्धांतों का परचम लिये
सबसे महफ़ूज़ जगहों पर
लगाते हैं पोस्टर
और इस तरह
धीरे-धीरे
वे बदल देते हैं वह सब
जो नहीं बदलना चाहिये
१० साल पहले जितना था उतना ही सामयिक आज भी...
यह विचार ठीक है कि इस ब्लॉग को कविता के लिये रखा जाये । मैने भी ब्लॉग शरद कोकास को कविता के लिये सुरक्षित( या आरक्षित) कर दिया है ।
सबसे ऊंची आवाज़ में
नारे लगाकर भर देते हैं
सबसे ज्यादा खालीपन
सबसे दहकते लहू में
भर देते हैं बर्फ का ठंढापन
सुभानाल्लाह.....दस साल पहले लिखी कविता आज भी यूँ ही धधक रही है .....!!
दस साल पहले भी और आज भी एकदम चुस्त दुरुस्त है ये कविता
छोटी-छोटी किंतु बहुत धारदार और असरदार कविताएं हैं.
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन