कोई छुपा हुआ अफ़सोस
प्रशान्त श्रीवास्तव से मेरा परिचय सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही हुआ था। फिर कविता समय के आयोजन में उनका और अर्पिता बिना किसी सूचना के आना और फिर बिना किसी तकल्लुफ़ के और बिना किसी उम्मीद के उस आयोजन में शामिल होना उनके कविता के प्रति प्रेम का स्पष्ट परिचायक था। प्रशान्त ने वहाँ कविता भी नहीँ पढ़ी थी। इधर फेसबुक पर उनकी छिटपुट कवितायें पढ़ी। प्रशांत की कवितायें पढ़ते हुए मुझे एक तरह की सघनता और अंतर्द्वंद्व का एहसास हमेशा हुआ है। वह जैसे बहुत कुछ कहना चाहते हैं और इसके लिये कविता के पारंपरिक फ़ार्मेट से उलझते हैं। यहाँ दी गयी कुछ कविताओं को पढ़ते हुए आपको उन संभावनाओं का सहज पता चलेगा जो प्रशांत का कवि बड़ी शिद्दत से तलाश रहा है।
जगहमकड़ी के जाले
बार-बार बनते हैं वहीं
जहाँ छत मिलती है दिवारों से
और धूल दिखती है कुछ दिनों बाद
फ़िर उसी जगह जहाँ से झाड़ दी गई थी वह.
जमाई हुई अलमारी में है एक खाना
संभालने के लिये कुछ पुराने खत
जैसे बीच बाजार बड़ी दुकानों के पीछे
कब से चल ही रहा है कबाड़ीये का कारोबार
जमीन पर पड़े उस सूखे पीले पत्ते पर
लुढ़कने को तत्पर सी ओस की वो बूंद भी
तब थी अपनी जगह पर ही
और कितना नियत लगता था गुलाब वो
जो सजा था तरो-ताजा गुलदस्ते पर
पूजा की थाल में माचीस की जगह भी तय है
हल्दी-कुमकुम और अगरबत्तीयों के बीच ही
और रोज सूरज के निकलने का कोण भी
मेरे घर से बहुत थोड़ा ही बदलता है
हवा ठहरती है पास के तलाब पर ही थककर
सुखाती है अपना पसीना और चल पड़ती है फ़िर वहीं से
और रात को सीयारों के रोने की आवज़ भी
तो आती है रोज वहीं किनारे झुरमुटों से
जगह सबकी तयशुदा दिखती है
हर चीज तयशुदा जगह पे दिखती है
यहाँ तक की हरबार एक नया घोसला
बनाती है चिड़िया मेरे रोशनदान पर ही
तो फ़िर क्यों नहीं देख पाता खुद को मैं
हमेशा उस जगह जहाँ चाहता हूं होना ?
क्या मेरी कोई जगह सुनिश्चित नहीं?
आक्रोश
वहीं
उलीच कर भर आया पानी
तूफान के बाद
उतार कर पाल
डगमगाती सी नींद
ठहरी है आँखों में
बेतरतीब पड़ी
अवांछनीय प्रार्थनाएं
चूक गये हथियारों का एक ढेर
लपेट कर धर दिये गये
कुछ अव्यक्त संकल्प
लगभग उतनी ही हताशाएं
और
एक धैर्यवान प्रतीक्षा
कि सूख जाएं जख्मों के टांके
जागने से पहले
खटका सिर्फ़ एक -
कुछ उग्र थपेड़ों के निशान
देह पर धरे
एक व्यस्क शिकारी-सा
ख्वाब छुपा बैठा है
आस-पास
कहीं.
’अफ़सोस’
जबकी द्वार सारे बंद करके ही बैठता रहा हूं लिखने
जाने कैसे दाखिल हो जाता है
मेरी कविताओं में
’अफ़सोस’.
और बैठ जाता है छुप कर
किसी मासूम से शब्द के पीछे
नजर आता है तब ही जब की
आगे का शब्द कुछ छोटा होता है, या
कविता पर रौशनी जरा तिरछी पड़ती है.
इसलिये
सुंदर लगती कविताओं को मैं झटपट बंद करता था
और देखता था कई दिन बाद कि शायद बच गई हों
पर किसी एक शब्द में वो ऐसा छुपता है
कि एक अरसे के बाद खोले गये
गेंहू के कनस्तर में
घुन ही घुन की तरह
दिखता है ढेर सारा अफ़सोस.
आजिज़ आ कर
कैसे भी सच की तलाश से बचने लगा हूं
कि कहीं फ़िर न आ जाये वो
मेरी ही गुमशुदगी का अफ़सोस बन कर
मेरी कविताएं मुझको ही रूखी-रूखी सी लगती हैं अब
क्योंकि अनायास नहीं आने देता शब्दों को
मगर क्या करूं
ज़हन में बैठ गया है एक डर
कि दिल की कोमलतम भावनाओं से रची पंक्तियों में भी
कहीं दिखने न लगे किसीको
कोई छुपा हुआ अफ़सोस
गर लिखा हो उसमें कहीं
प्यार...
आवाजों से मत घबराना
आवाजों से मत घबराना
जो आ रही हों
नीचे
रेत के दलदलों से
तुम्हें चाहेंगी खींचना
तुम मत धरना पाँव
वे खुद से आतंकित
एक अनंतकाल की
त्रासदी लिए बैठी हैं
बांटने उनका खौफ
मत मिलाना तुम आवाज़
अपनी साँसों की भी
जाना तुम वहां
जहाँ
कटीली झाड़ियों का चादर ओढ़े
सो रही हो नींद
स्वप्नों तक लहुलुहान
मगर जहाँ
हौसला बाकी है
तारों को गिन जाने का
कोई भी निरर्थक काम कर जाने का
मिलाना अपने पंजे
उन हथेलियों पर
जिन पर नहीं हैं
संशय की रेखाएं
जमाना अपने पाँव
उन पदचिन्हों पर
जो जाते हैं
मरीचिका को बदलने
एक खलिहान में
उबलेंगे सागर
बदलेंगे वाष्प में
और बरसेंगे
बन तेज़ाब
मिला कर रक्त ढेर सारा
नहीं रहने देंगे
बेदाग़ और न
अनाहत...
तूफ़ान घुस आयेंगे उन नदियों में
कि जिस पर तुम्हारा सेतु है
डालेंगे उन पर दरार
और साधुओं की फ़ौज
लादेंगी पहाड़
भूत और भविष्य के
तुम्हारी पीठ पर
याद रखना
कोई था जिसने नापा था
धरा को
तीन ही डग में
तुम्हारे भी
छोटे कदम
निबटा देंगे कई संसार
तुम बस चल पड़ना....
परेशान हरगिज न होना
अपनी आँखों के खारेपन से
और अपने भीतर की
कडूवाहाटों से
अगर वो
नीम-धतूरे का रस बन
टपके तुम्हारी
जुबान से
तुम्हें
नहीं बनना
इश्वर
कि
जिसकी शक्लो-सूरत
का हिसाब नहीं
तुम बस बोल पड़ना....
तुम
मत नापना
अपने पंखों का विस्तार
जान लो
उतना तो उड़ा ही जा सकता है
की जहाँ तक है आकाश
तुम बस उड़ पड़ना...........
टिप्पणियाँ
अशोक ब्लॉग पर बेहतरीन कविताएँ लगाने के लिए आभार ! असुविधा ने कवियों से मिलने की जो सुविधा दी है , उससे सुधि पाठक लाभान्वित होंगे .
प्रशांत और अशोक को पुनः बधाई !
सभी का और अशोक भाई का हृदय से आभार.
प्रशान्त और आपको बधाई