प्रभात की कविताएँ...
कविता समय सम्मान -२०१२ से सम्मानित प्रभात की कविताओं पर चयन समिति ने लिखा है -
'प्रभात की कविता सफल, चमकती दुनिया का अपनी क्रांतिकारी नैतिकता से मखौल उड़ाने की बजाय खुद कवि या कविता की सफलता पर संदेह करने वाली ऐसी कविता है जो आज्ञाकारी, विमर्श-सुलभ और स्पर्शकातर नहीं है। सामाजिकताओं/निजताओं, लोक/नगर, प्रगति/कला, मनुष्य/मनुष्येत्तर के सुलभ विरोध या उनके मासूम एकत्व के बरक़्स उनके गहरे संश्लेषण के इस मजबूत सबआल्टर्न स्वर को कविता समय युवा सम्मान 2012 से सम्मानित करते हुए ‘कविता समय’ सम्मानित महसूस करता है।'
राजस्थान के एक जनजातीय समुदाय से आने वाले प्रभात अपने अगल-बगल की दुनिया के लोकेल से गहरे संबद्ध होते हुए उसके ग्लोबल सन्दर्भों की सटीक पहचान करने वाले कवि हैं. बिना किसी शोरगुल के एक लंबे समय से कवि-कर्म में संलग्न प्रभात की कविताओं को हिन्दी में बड़े गौर से पढ़ा गया है. उनकी कुछ कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं और उनकी ताज़ा लंबी कविता यहाँ पढ़ी जा सकती है.
याद
(एक)
सूखी धरती पर झुकती है जैसे
खामोश काली घटाएं
झुक रही है मेरे जीवन के सूखे विवरणों पर
तुम्हारी याद
(दो)
बीत जाता है सफर
याद रह जाती है सफर की
जीप के पर्दों की तरह
फट-फट फड़-फड़ बजती
इस याद के सहारे कटते हैं
कितने ही सफर
पीछे सिर टिकाए
आंखें बंद किए
जिन्दगी के बचे-कुछे तमाम सफर
कहां वे हरी आंखें
गुलाबी होंठ
मीठी गीली आवाज
बरखा ऋतु की पुरवाईयों सी चाल ढाल
कहां यह रूखा खुरदरा बेजान
कठोर, असुंदर आदमी
वह जो प्राकृतिक रंग था त्वचा का उड़ गया था
एक और ही रंग की हो गई थी षरीर की चमड़ी
बीते पन्द्रह सालों की मृतता से बनी
बीते पन्द्रह सालों की जीवंतता से बनी होती यह चमड़ी
कोई और ही रंग होता इसका
लुभाता हुआ अपनी आब से अपनी प्रियता से
तब एक मलाल की तरह नहीं पुता होता चेहरे पर
कहां पच्चीस कहां चालीस
तब यही छलकता होठों पर
चालीस की उम्र का भी कम्बख्त
एक अपनी ही तरह का असर
एक अपनी ही तरह का आकर्षण होता है
सुनिए तो यह किसकी नींद कराह रही है
कोई जरूरत नहीं थी मुझे इन पन्द्रह सालों की
एक कविता पैदल चलने के लिए
1
आशा न हो तो कौन चले पैदल आशा के लिए
आशा न हो तो कौन नदी पार करे आशा के लिए
आशा न हो तो कौन घुसे जलते घर में आशा के लिए
2
जंगल से निकल कर आ रही परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
पहाड़ से उतरती हुई परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
गठरी सिर पर धरे जा रही परछाई
आषा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
जो आशा को खोजता फिरता है
उसे दुनिया की हर परछाई में आशा दिखती है
3
पेड़ पर फूटा नया पत्ता आशा का है
ठिठुरती नदी पर धूप का टुकड़ा आशा का है
रेत की पगडंडी पर पांव का छापा आशा का है
तुम्हारे चेहरे को आकर थामा है जिन दो हाथों ने आशा के हैं
दुनिया में क्या है जो आशा का नहीं है
सभी कुछ तो आशा का है
छोड़ा हुआ
उसके जन्म के पहले से ही थे घर में
गाय भैंस बैल और बछड़े
दस बीघा पक्के खेत थे हरे भरे
हरे भरे खेतों के बीच से जाती
पगडंडियां थी टहलने के लिए
नीमो- बबूलों की टहनियां थी दातुन के लिए
गाने के लिए थे इतने लोकगीत कि उसे
कई जिन्दगियों तक के लिए पर्याप्त थे
पहले से ही था अन्न धान से भरा खलिहान
पहले से ही था चांद सितारों से भरा आसमान
वह इस पहले से मिले जीवन को अपने हिस्से में
बचा नहीं सका
इसमें कुछ जोड़ नहीं सका बढ़ा नहीं सका
बड़ा अधिकारी बना जब वह आगे जीवन में
जिस कस्बे में उसकी नियुक्ति हुई
उसे अपने कार्य करने की जगह समझने के बजाय
अपने अधीन इलाका मानकर चलना पड़ा
सारी मेहनत सारी ऊर्जा
सारी लगन सारी रचना
उम्रभर की सारी सेवा
पहले एक कस्बे और अब एक नगर को समर्पित की उसने
नगर ने एक मंहगा कोट दिया उसे
लो इसे पहन लो और हम जैसे ही दिखो
ऐसी आभार भरी नींद सोया वह उस रात
कि बरसों उसने अपने गांव का फलसा तक जाकर नहीं देखा
एक दोपहर गांव से वृद्ध पिता के निधन की सूचना आयी
जूतियां और शरीर से गंधाते संदेशवाहक से कहा उसने
कहना जल्दी ही मैं आ रहा हूं
पहुंचा तब मातम का वातावरण था वहां
आंगन में बिछी जाजम पर पंच पटैल बैठे थे
भाईयों के चेहरों पर पिता की मृत्यु के मौके पर
भोज के लिए कर्ज लेने का भाव
और बच्चों तथा पत्नियों की उनसे परवरिश न हो पाने के तनाव
घर के चूल्हे और परिंडे पर निगाह डालने पर उसे लगा
घर जैसे उसके पीछे से नंगा ही नंगा हुआ है हर साल
उसने पाया कि भाईयों ने उससे कुछ नहीं कहा पूरे समय
कुछ नहीं कहकर सहते रहे जैसे वे
उसे लगा वे खुद से भी कुछ नहीं कहते शायद
वह मृत्युभोज का कार्यक्रम बीच में छोड़
शहर आ गया वापस
वह दोस्त के पास गया
उसे दोस्त से उम्मीद थी
दोस्त देख नहीं पाया कि वह आया है
उसे लगा कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं जाऊं तो नहीं जाऊं तो
मुझे देखकर किसी के मन में कुछ नहीं जगता
उसे लगा मैं घर में घरवालों का
बाहर बाहर वालों का छोड़ा हुआ हूं
अच्छा और बुरा लगने का छोड़ा हुआ हूं
सार्थकताओं और निरर्थकताओं का छोड़ा हुआ हूं
उसे लगा जीवन नहीं हूं मैं एक
मृत्यु का छोड़ा हुआ हूं महज
टिप्पणियाँ
ab phir parhti hun aur phir aage barhhoongi...
एक कविता पैदल चलने के लिए विशेष पसंद आई ..
इन कविताओं को साझा करने के लिए अशोक का शुक्रिया और प्रभात जी को बधाई !
प्रभात जी को बधाई!
कृपया पधारें
चर्चा मंच-708:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बहरहाल बधाई के हकदार तो वे हैं ही।
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
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बुधवारीय चर्चा मंच ।
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