धै ससुरी परगति....


अर्थ-अनर्थ

ईश्वर ने अर्थशास्त्रियों को इसलिए बनाया कि मौसम विज्ञानियों की इज्जत बची  रहे. यह इससे बिल्कुल अलग बात है कि ईश्वर को भक्तों की इज्जत बचाए रखने के लिए बनाया गया था.फिर अर्थशास्त्रियों ने इस अनर्थ की इज्जत बचाने के लिए गढे अर्थ.

इस नए शब्दकोष में
सबसे पहले गढा गया एक शब्द
प्रगति...

कैम्ब्रिज से लौटा अर्थशास्त्री प्रसन्न मुद्रा में जब उवाचता है यह शब्द तो अपने ठिये पर रामवृक्ष की दुकान के असेम्बल्ड ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के सामने बैठे बरन बरेठा सुरती की अंतिम ताल के साथ सुर साधते हुए कहते हैं – धै ससुरी परगति!

किसी दूसरे चैनल से
झक सफ़ेद कुर्ते पाजामे से झरता है एक दूसरा शब्द
विकास...

और ठीक उसी वक़्त होठों के कोरों में बजबजाती झाग के बीच उस झोपडी में भर जाता है एक शब्द सल्फास, जहाँ कुछ दिन पहले मेथी के साग के साथ बाजरे की आखिरी रोटी खा चैन की नींद सोये थे युवराज...

शब्द ठहरे रहते हैं और पानी की तरह बदलती रहती है उनकी तासीर. एक उम्र गुजरती जाती है शब्दों के सहारे और शब्द तिनकों की तरह कुचले जाते रहते हैं. शब्दकोशों की कब्रगाह में हज़ार बरस सोये रहने के बाद एक दिन जब आता है क़यामत का दिन तो बदल चुके होते हैं बहिश्त और दोज़ख के मानी और बहिश्त का इंतज़ार करते-करते दोज़ख से दिल लगा बैठते हैं शब्द


और फिर
बतर्ज केदार जी

जहाँ-जहाँ लिखा हो उदार
वहाँ-वहाँ लिख दो हत्यारा
कोई फर्क नहीं पड़ता...

टिप्पणियाँ

Pummy ने कहा…
बहुत ही अच्छा अशोक जी...
अरुण अवध ने कहा…
बहुत अच्छी कविता ! हम जिन शब्दों से आस्था-बद्ध हैं उनके अर्थों की रंग-छाया में अनर्थ की खेती हो रही है ! कविता से कहो- ऐसी अर्थ-छायाओं पर प्रहार करे और नोंच कर फेंक दे उन्हें ! यही आज का कविकर्म है ! यह कविता यही कर रही है !
S.N SHUKLA ने कहा…
सार्थक और सामयिक पोस्ट , बधाई,
कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen " पर भी पधारने का कष्ट करें.
अजेय ने कहा…
बहिश्त तो पता नही होता भी है या नहीं, पर हम दोज़ख को दोज़ख ही कहेंगे, और उसे कोई नया शब्द ओढ़ने नहीं देंगे,
और किसी नए अर्थ को उस के पास फटकने भी नहीं देंगे,
जब तक यह पृथिवी एक आखिरी आदमी के लिए भी जीने लायक नही बन जाती.

हम शब्द के शातिर शिकारियों के सभी जाल खोज खोज कर जला डालेंगे अपनी चीखती हुई आग में
बेनामी ने कहा…
fb se

Basant Jaitly · Associate Professor( Retd.) at Departement of Sanskrit/ Visiting faculty member Departement of Dramatics r
अब एक अरसे से यही तो हो रहा है अशोक. स्वतंत्रता के कई दशक बीत गए और शब्द दोजख से दिल लगा बैठे हैं. कविताओं में इसकी गूँज है लेकिन लोग या तो कविता पढ़ते नहीं , या पढ़ कर उस पर सोचते नहीं. यही नहीं हम अपने माहौल से भी निःसंग , निर्लिप्त हो गए हैं. जगत गति व्यापती ही नहीं. समझ नहीं आता कि क्या किया जाए , ऐसे भला कब तक रहा और जिया जा सकता है?
बेनामी ने कहा…
J.N.Budhvar

is kavita ko padhne ke baad pahli pratikriya yeh hai ki jab bhi prahar karo sanhaar karo ....maarak..yahi tumhari kavya-prakrati hai..is paridhi me jab likhoge aisa hi likhoge...badhai ashok
शब्द जब अपना अर्थ खोने लगते हैं, या चालाकी से उन्हें नए अर्थों से संपन्न बनाया जा रहा होता है, तो प्रतिक्रिया वैसी ही होती है, जैसी कि यहां कविता के अंत में होती है, एक निपट देहाती के मुंह से. अंग्रेज़ी में जिसे rustic wisdom कहते हैं, उसका अप्रतिम उदाहरण है यह प्रतिक्रिया.
Jay dev ने कहा…
बहुत अच्छी कविता आभार सटीक वाक्य और कई सवाल और जवाब भी साथ में |
Umesh ने कहा…
बिल्कुल ताज़गी भरी शब्दावली, विचारों को ठकठकाती हुई। लेकिन फिर यह भी कि कोई फर्क नहीं पड़ता, युवराज के आगे भी सल्फास और युवराज के पीछे भी सल्फास।
Ek ziddi dhun ने कहा…
बहुत अच्छी कविता कहूं तो डर लगता है। ...
`शब्द ठहरे रहते हैं और पानी की तरह बदलती रहती है उनकी तासीर` कई पंक्तियां तो लगातार पीछा करती हैं। शब्दों के सही मानी बचे रहें और उनके असर भी, उनके साथ खड़े होने वाले प्रतिरोध भी...
शब्द जब अपना अर्थ खोने लगते हैं, या चालाकी से उन्हें नए अर्थों से संपन्न बनाया जा रहा होता है, तो प्रतिक्रिया वैसी ही होती है, जैसी कि यहां कविता के अंत में होती है, एक निपट देहाती के मुंह से. अंग्रेज़ी में जिसे rustic wisdom कहते हैं, उसका अप्रतिम उदाहरण है यह प्रतिक्रिया.

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