प्रशांत श्रीवास्तव की नई कविता
अपने कवि होने को लेकर ज़रुरत से ज़्यादा गंभीरता से लेने वाले कवियों के बीच प्रशांत की 'प्रशांत' उपस्थिति आश्चर्यचकित करने वाली है. अंशु मालवीय, चेतनक्रांति और प्रभात जैसे कवियों की तरह यह कवि भी अपने कविकर्म को गंभीरता से और कवि होने को यथासंभव अगम्भीरता से लेने वालों में है. यह कविता उसने कोई दो महीने पहले भेजी थी और मैं अपनी आदत के अनुसार इसे भूल गया था. आज अचानक कुछ याद करते हुए इसकी याद आई और इसे दुबारा पढ़ा.
यह कविता आज बिना कुछ कहे....
सोचने में होना
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सोचने में बहुत छोटा लगता अपना होना खुद की उपस्थिति से भी छोटा जैसे किसी दु:स्वप्न में निगल लिया जाता अपनी बौनी इच्छाओं के अजगर से चमकीले दिनों और उजली रातों में अतीत के झंखाड़ों के बीच कुछ खोजती-सी किसी सदी के चंद दशकों में फ़ैल जाती अपनी रूह समेटने में हाथ आता एक रीता हुआ पात्र अपने सोचने में रह जाता एक भरपूर खालीपन एक रंग होता एक रंग होता जिसमें लगभग छिप जाते सारे रंग वो प्रेम होता या भय का रंग वो इंतजार का रंग होता या आत्मदाह से उपजी राख का उसमें ही ढंका होता किसी परछांई का रंग अपने होने में, सोचने में, सारे रंगों का मेल धूसर होता ताप से फैलता पारे-सा अपना होना ठोस नहीं होता सोचने में तो हरगिज़ नहीं हजारों मुंह से आती अपनी आवाज अपनी आवाज अपनी नहीं रहती हम लाख चाहते पर अनंत से टकरा कर भी हमारी खामोशी की प्रतिध्वनि में लौटती एक चुप्पी हमारी देह में भरा होता दूसरों का खून हमारे माथे से टपकता पसीना किसी और का अपनी याद बचती उतनी ही कुछ सौ-पचास लोगों के जेहन में जितना बचा है अनदेखे पुरखों का नाम एक बूंद में सिमट आती अपनी पूरी नींद एक क्षाणांश में कौंध उठते सारे सपने सोचने में बहुत छोटा लगता अपना होना अपनी लघुता में समाता तुममें निर्द्वंद, निःस्वार्थ, अबोध खंडित प्रतिमा-सा तुम्हारी ओट में सुरक्षित पूरा नहीं होता अपनी सबसे उम्दा कविता की तरह अधूरा अपने सोचने में, अपना होना कभी मुकम्मल नहीं होता.
यह कविता आज बिना कुछ कहे....
ब्रुक्स की यह पेंटिंग इंटरनेट से |
सोचने में बहुत छोटा लगता अपना होना खुद की उपस्थिति से भी छोटा जैसे किसी दु:स्वप्न में निगल लिया जाता अपनी बौनी इच्छाओं के अजगर से चमकीले दिनों और उजली रातों में अतीत के झंखाड़ों के बीच कुछ खोजती-सी किसी सदी के चंद दशकों में फ़ैल जाती अपनी रूह समेटने में हाथ आता एक रीता हुआ पात्र अपने सोचने में रह जाता एक भरपूर खालीपन एक रंग होता एक रंग होता जिसमें लगभग छिप जाते सारे रंग वो प्रेम होता या भय का रंग वो इंतजार का रंग होता या आत्मदाह से उपजी राख का उसमें ही ढंका होता किसी परछांई का रंग अपने होने में, सोचने में, सारे रंगों का मेल धूसर होता ताप से फैलता पारे-सा अपना होना ठोस नहीं होता सोचने में तो हरगिज़ नहीं हजारों मुंह से आती अपनी आवाज अपनी आवाज अपनी नहीं रहती हम लाख चाहते पर अनंत से टकरा कर भी हमारी खामोशी की प्रतिध्वनि में लौटती एक चुप्पी हमारी देह में भरा होता दूसरों का खून हमारे माथे से टपकता पसीना किसी और का अपनी याद बचती उतनी ही कुछ सौ-पचास लोगों के जेहन में जितना बचा है अनदेखे पुरखों का नाम एक बूंद में सिमट आती अपनी पूरी नींद एक क्षाणांश में कौंध उठते सारे सपने सोचने में बहुत छोटा लगता अपना होना अपनी लघुता में समाता तुममें निर्द्वंद, निःस्वार्थ, अबोध खंडित प्रतिमा-सा तुम्हारी ओट में सुरक्षित पूरा नहीं होता अपनी सबसे उम्दा कविता की तरह अधूरा अपने सोचने में, अपना होना कभी मुकम्मल नहीं होता.
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