सुनो कि इस देश में कैसे मरता है किसान! - उमेश चौहान
किसानों की आत्महत्या हमारे समय की ऐसी परिघटना है जिसे लेकर राजनीतिक वर्ग से बौद्धिक वर्ग तक अपने आकस्मिक विलापों से आगे नहीं जा पाते. वरना जिस देश में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इस आंकड़े में रोज़ वृद्धि ज़ारी है, उस देश ने नीतियों को लेकर कोई पुनर्विचार न हो, यह कैसे संभव था? लगता है कि हम विकास और उसके परिणामों को शहरी उच्चवर्गीय अवधारणा मान चुके हैं और हमारी चिंताएं सेंसेक्स के गिरने-उठने से तय होती हैं, इनमें अब किसानों के जीने मरने के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन कविता का तो काम ही उस सच को कहना है जिसे दबाने की हरचंद कोशिश की जाती है. उमेश चौहान ने इस कविता में वही मुश्किल और असुविधाजनक सवाल पुरज़ोर तरीक़े से उठाया है.
सुनो, सुनो, सुनो!
पैदा हुए उन्नीस बोरे धान
मन में सज गए हज़ारों अरमान
लेकिन निर्मम था मण्डी का विधान
ऊपर था खुला आसमान
नीचे फटी कथरी में किसान
रहा वह कई दिनों तक परेशान
फिर भी नहीं बेंच पाया धान
भूखे-प्यासे गयी जान
सुनो यह दु:ख-भरी दास्तान!
सुनो कि इस देश में कैसे मरता है
किसान!
मेरे देश के हुक़्मरानो!
यहाँ के आला अफ़सरानो!
गाँवों और किसानों के नुमाइन्दो!
चावल के स्वाद पर इतराने वाले
छोटे-बड़े शहरों के वाशिन्दो!
सुनो, सुनो, सुनो!
ध्यान लगाकर सुनो!
इस कृषि-प्रधान देश का यह दु:खद आख्यान सुनो!
कि पिछले महीने ओडिशा की मुंडरगुडा मंडी के खुले शेड में
सरकारी खरीदी के इंतज़ार में
भूखे-प्यासे अपने धान के बोरों की रखवाली करने को मजबूर
कालाहांडी के कर्ली गाँव का नबी दुर्गा
कैसे मर गया बेमौत
सुनो, सुनो, सुनो!
लेकिन रुको और गौर से सुनो नेपथ्य की यह आवाज़ भी
कि नबी दुर्गा वास्तव में मरा नहीं मारा गया
सच को स्वीकारने की इच्छा है तो सुनो!
सुनो, कि वह पीने का पानी खोजते-खोजते
मंडी के पड़ोस वाले घर तक पहुँचकर भी
प्यास से तड़पकर मर गया यह केवल आधा सच है
पूरा सच यही है कि उसे बड़ी बेदर्दी से मार डाला
हमारी गैर-संवेदनशील व्यवस्था ने
मेरी और आप सबकी निर्मम निस्संगता ने।
यह देश की किसी मंडी का कोई इकलौता ज़ुर्म नहीं था
यह धान को बारिश के कहर से बचाने की
देश के किसी अकेले किसान की जद्दोज़हद नहीं थी
यह देश में सरकारी गल्ला-खरीदी की नाकामी की
कोई अपवाद घटना नहीं थी
यह महानगरों में हज़ारों करोड़ रुपयों के पुल बनाने वाले इस
देश में
बिना किसी शेड के संचालित कोई इकलौती मंडी नहीं थी
यह पेशाबघर, खान-पान और पेयजल की सुविधा के बिना ही स्थापित
देश का कोई अकेला सरकारी सेवा-केन्द्र नहीं था
यह कोई अकेला वाकया नहीं था भारत का
जिसमें किसी सार्वजनिक जगह पर
अपने माल-असबाब की रखवाली करते-करते
भूख और प्यास से मर गया हो कोई इन्सान
नबी दुर्गा की मौत तो बस उसी तरह की लाचारी के माहौल में हुई
जिसमें इस देश में रोज़ बेमौत मरते हैं हज़ारों बदकिस्मत किसान।
उस दिन भूख-प्यास से न मरा होता तो
शायद सरकारी खरीदारों के निकम्मेपन के चलते
पानी बरसते ही धान के भीगकर सड़ जाने पर मर जाता नबी दुर्गा
या शायद तब,
जब खरीद के बाद उसके हाथ में थमा दिए जाते
उन्नीस के बजाय बस पन्द्रह बोरे धान के दाम
या फिर तब,
जब उसे एक हाथ से उन्नीस बोरे धान की कीमत का चेक देकर
दूसरे हाथ से वापस रखा लिया जाता
बीस फीसदी नकदी वापस निकाल लिए जाने का चेक
यदि नबी दुर्गा न भी मरा होता मंडी में उस दिन
और उसके साथ बिना बिके ही वापस लौट आए होते उसके धान के
बोरे
तो शायद पूरा परिवार ही पीने के लिए मजबूर हो गया होता
खेत में छिड़कने के लिए उधार में लाकर रखी गई कीटनाशिनी।
सुनो, सुनो, सुनो!
यह दु:ख भरी दास्तान सुनो!
ओडिशा की ही नहीं,
झारखंड, आंध्र प्रदेश, बंगाल, असम, बिहार और उत्तर प्रदेश
के
लाखों-लाख नबी दुर्गाओं की यह दु:ख-भरी कहानी सुनो!
पानी से भरे खेतों में खड़ी दोपहरी
कतारों में कमर झुकाए धान की रोपाई करती औरतों के
गायन के पीछे छिपी कंठ की आर्द्रता को सुनो!
हमारा पेट भरने को आतुर दानों से लदी
हवा में सम्मोहक खुशबू घोलती
धान की झुकी हुई बालियों की विनम्र सरसराहट को सुनो!
काट-पीटकर सुखाए गए दानों को बोरों में भर-भरकर
व्याही गई बेटी को विदा किए जाने के वक़्त से भी ज्यादा
दु:खी मन से
मंडी में बेंचने के लिए ले जाते हुए किसानों के मन की व्यथा
को सुनो!
धान के बिकने का इंतज़ार करती
बिस्तर से लगी किसान की बूढ़ी बीमार माँ की
प्रतीक्षा के अस्फुट स्वर को सुनो!
पैरों में चाँदी की नई पायलें पहनने को आतुर
किसान की पत्नी के मन में गूँजती रुन-झुन को सुनो!
महीनों से नया सलवार-सूट पहनने की आस लगाए बैठी
किसान की बेटी के दिल की हुलकार को सुनो!
चलो, अब पूरी संजीदगी से इन नबी दुर्गाओं से
क्षमा माँगते हुए
और इस देश के किसी किसान को नबी दुर्गा न बनना पड़े
इसकी व्यवस्था सुनिश्चित कराने की लड़ाई लड़ने का संकल्प लेते
हुए
इस दु:ख भरी दास्तान को बार-बार सुनो!
उमेश चौहान
कवि और लेखक
चार कविता संकलन, हाल में ज्ञानपीठ से आया संकलन 'जनतंत्र का अभिमन्यु' काफ़ी चर्चित. मलयालम से कई महत्त्वपूर्ण अनुवाद. महाकवि अक्कितम की अनुदित कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित. इन दिनों सामाजिक-आर्थिक विषयों पर एक दैनिक अखबार में कालम भी चर्चित.
संपर्क : umeshkschauhan@gmail.com
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कैसी विडंबना है कि साल भर जाड़ा-गर्मी-बरसात सहकर कड़ी मेहनत करने और भरपूर फसल पैदा होने के बाद भी किसान को अपनी फसल बेचने के लिए परेशान होना पड़ता है। फसल बेचने के इंतजार में ही भूख-प्यास के चलते उसकी मौत हो जाती है। ऐसा अनर्थ तो पहले न कभी सुना और न देखा। इससे बड़ी दुःख की दास्तान क्या हो सकती है? यह कविता इस विडंबना को गहराई से उकेरती है। कवि का ’सुनो,सुनो,सुनो!’कहना इस हृदयविदारक दास्तान के प्रति ध्यान देने को बहरे सभ्य समाज को झकझोरना है जो सुनना ही नहीं चाहता है।कविता में बार-बार ’सुनो!’आना बिन कहे इस बात को कह देता है कि यह व्यवस्था बहरी है जिसे झकझोरना जरूरी है। यह ’सुनो’ कहना पाठक के मन-मस्तिष्क पर हथौड़े की तरह टंकार पैदा करता है जिसकी तरंग पूरे शरीर में दौड़ती हुई प्रतीत होती है।यह कविता शासकों-प्रशासकों और उन तमाम बुद्धिजीवियों ,सिविल सोसाइटी को जो किसान की इस स्थिति पर चुप्पी साधे हुए हैं ,को कटघरे में खड़ा करती है। कवि कालाहांडी के कर्ली गाँव के नवीदुर्गा के माध्यम से किसान जीवन की जिस व्यथा-कथा को व्यक्त करता है वह आज कालाहांडी के कर्ली गाँव तक ही सीमित नहीं है बल्कि वैश्वीकृत हो चुकी इस दुनिया के तीसरे देशों के हर सीमांत किसान की व्यथा-कथा है जिसके लिए विश्व व्यापार संघ की साम्राज्यवाद परस्त नई कृषि एवं वाणिज्य नीतियाँ जिम्मेदार हैं। इस नीति के चलते ही दुनिया भर के ’नवीदुर्गा’ बेमौत मरने के लिए अभिशप्त हैं या कहें मार दिये जा रहे हैं। हमारी गैर-संवेदनशील व्यवस्था इस अभिशाप की विभीषिका को और बढ़ाने का काम कर रही है। नवीदुर्गा का लाचारी के माहौल में मौत का यह इकलौता किस्सा नहीं है। देश भर के अलग-अलग हिस्सों में इसी तरह की लाचारियों- कभी फसल के भीगकर सड़ जाने,कभी लागत से कम कीमत पाने,कभी फसल के नहीं बिक पाने के चलते बेमौत मारे जाने वाले अनेकानेक किसानों के मार्मिक किस्से आये दिनों सुनाई देते हैं .यह कविता उन दिलदहलाने वाले किस्सों की ही अभिव्यक्ति है जो हमें इस अमानवीय स्थिति के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार करती है।
कमलेश राजहंस जी की एक पंक्ति याद आ रही है
मेरे देश की सियासत मुर्दो का संदूक खा गई
जो भूख मिटाता है सबकी उस किसान को भूख खा गई
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