शिरीष कुमार मौर्य की नई कविताएँ

 शिरीष की इधर की कविताएँ जैसे उनकी बेचैनी से उपजी हैं. एक बिलकुल प्रतिकूल समय में एक ज़िद्दी और स्वाभिमानी आदमी की बेचैनी से. इनमें एक अजीब सा ताप है जो भट्ठी के निचले सिरे पर सुलगते कोयले सा है. इनमें शिरीष अपनी पिछली कविताओं की तुलना में खुद भी अधिक असहज लगते हैं और अधिक असहज करते भी हैं. अपने रोजमर्रा के निजी से लगने वाले ब्यौरों के भरोसे देस-दुनिया की जटिलतम समस्याओं तक पहुँचने और फिर उनसे दो दो हाथ करने की कोशिश में घाइल भी और बज़िद भी. कविताओं के साथ इस बार रेखांकन भी कवि के ही हैं तो शायद यही उन तक पहुँचने की राह और आसान करें.






गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया जी

प्‍यास लगने पर मिल जाता है साफ़ पानी
जतन नहीं करना पड़ता

काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्‍तर मिल जाता है

चलने के लिए रास्‍ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह

कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिंता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं

कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया

किसी के घर जाऊं तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय

जिससे चाहूं मिल सकता हूं
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्‍त में रह सकता हूं
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता

अपनी नज़रों से देखता हूं और देखता रह सकता हूं
भरपूर हैरत के साथ 
कि यह वैभव सम्‍भव होता है इसी लोक में

जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन का
*** 

चुनाव-काल में एक उलटबांसी

सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूं
उसका बनना

गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गंध
ये सब स्‍थूल तथ्‍य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं

मैं जैसे शब्‍दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूं
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में

अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्‍सुक हो जाता हूं
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है

प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएंगे

ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे

तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्‍या चंद दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएंगे

इस कवि को छुट्टी दीजिए पाठको
क्‍योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबांसी

कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएंगे
या वहां हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएंगे।
***


मैं पुरानी कविता लिखता हूं

इधर
पुरानी कविताएं मेरा पीछा करती हैं
मैं भूल जाता हूं उनके नाम
कई बार तो उनके समूचे वजूद तक को मैं भूल जाता हूं
कोई कवि-मित्र दिलाता है याद -

मसलन अशोक ने बताया मेरी ही पंक्ति थी यह
कि स्‍त्री की योनि में गाड़ कर फहराई जाती रहीं
धर्म-ध्‍वजाएं
अब मुझे यह कविता ही नहीं मिल रही
शायद चली गई जहां ज़रूरत थी इसकी
उन लोगों के बीच
जिनके लिए लिखी गई

इधर कविता इतना तात्‍कालिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इंतज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं का
दंगों का
घोटालों का
बलात्‍कारों का     

कृपया मेरी क्रूरता का बुरा मानें
मेरे कहे को अन्‍यथा लें

मेरे भूल जाने के बीच याद रखने का कोलाहल है अगल-बगल
मुझे बुरा लगता है
जब कवि प्रतीक्षा करते हैं अपनी कविताओं के लिए
आन्‍दोलनों का
ख़ुद उतर नहीं पड़ते

न उतरें सड़कों पर
पन्‍नों पर ही कुछ लिखें
फिर कविताओं में भी शान से दिखें

हिन्‍दी कविता के
इस सुरक्षित उत्‍तर-काल में
मुझे माफ़ करना दोस्‍तो
मेरी ऐतिहासिक बेबसी है यह
कि मैं हर बार एक पुरानी कविता लिखता हूं
और
बहुत जल्‍द भूल भी जाता हूं उसे।  
***

ज़मीन को पाला मार है

अभी कुछ समय पहले ढह पड़ी थी
इसकी उर्वर त्‍वचा झर गई थी
जो बच गई उसे पाला मार रहा है पहाड़ पर

इस मौसम में कौन-सी फ़सलें होती हैं
मैं भूल गया हूं
जबकि अब भी
सीढ़ीदार कठिन खेतों के बीच ही रहता हूं
फ़र्क़ बस इतना है
कि कल तक मैं उनमें उतर पड़ता था पांयचे समेटे
अब नौकरी करने जाता हूं
कच्‍ची बटियों पर कठिन ऋतुओं के संस्‍मरण
मुझे याद नहीं
कुछ पक्‍के रास्‍ते जीवन में चले आए हैं


मुझे इतना याद है
कि सर्दियों के मौसम को भी ख़ाली नहीं छोड़ते थे
उगा ही लेते थे कुछ न कुछ
कुछ सब्जियां कुछ समझदारी से कर ली गई
बेमौसम पैदावार

पर इतना याद होने से कुछ नहीं होता
ज़मीन को पाला मार रहा है या मेरे दिमाग़ को

अगर मेरे जैसे और भी दिमाग़ हुए इस विस्‍मरण काल में
तो ज़मीन को पाला मार रहा है जैसा वाक्‍य
कितना भयावह साबित हो सकता है
यह सोच कर पछता रहा हूं

ज़मीन को पाला मारने पर हम घास के पूले खोलकर
सघन बिछा देते थे
नवाकुंरों पर
मैं बहुत बेचैन
दिमाग़ के लिए भी कोई उतनी ही सुरक्षित
और हल्‍की-हवादार परत खोज रहा हूं

पनपने का मौसम हो या न हो पर बमुश्किल उग रहे जीवन को
नष्‍ट होने देना भी
उसकी मृत्‍यु में सहभागी होना ही होगा।
*** 

दख़ल प्रकाशन से शिरीष की शीघ्र प्रकाश्य
 कविता पुस्तक का कवर 
फीकी अरहर दाल

एक बहुत बड़ी गल्‍ला मंडी है पिपरिया
एक बहुत छोटा शहर है पिपरिया
मेरे बचपन में यह बहुत छोटा क़स्‍बा होता था
वो आत्‍मीय आढ़तें छोटी-छोटी
वो लाजवाब मशहूर अरहर की दाल

वहां एक छोटी नगरपालिका है जिसमें मेरा छोटा चाचा
बड़े-बड़े काम करता है
एक लगातार चलती दारू की भट्टी है जिसमें छोटे से बड़ा वाला
दिन-रात दारू पीता
पिपरिया से नागपुर तक डॉक्‍टरों के चक्‍कर लगाता है
उससे बड़ा वाला बुरी तरह कराहता है
पुरानी चोटों
और समकालीन दबदबे के बीच अपनी एक अजीब गरिमा के साथ
वह किसी नीच ट्रेजेडी में फंसा है
मैं उसे निकाल नहीं सकता

इस बहुत बड़ी गल्‍ला मंडी में
झाड़न भी साल भर में लाखों का निकलता है
ठेका-युग में उसके लिए भी दिया जाता है ठेका
ख़ून होते हैं हर साल
झाड़न के लिए

बहुत छोटे शहर के बड़े भविष्‍य की योजनाओं के नाम
नए बन रहे बढ़ रहे सीमान्‍तों  पर
तहसील में पुराने गोंडों की ज़मीनों के नए-नए दाखिल-खारिज सामने आते हैं
रेल्‍वे लाइन पर मिली है लाश – यह एक स्‍थायी समाचार है

चोरी छिनैती करते आवारा छोकरे स्‍मैक पीते हैं जिसे आम बोलचाल में
पाउडर कहा जाता है

मैं पिपरिया नहीं जाता
कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता हूं
मुझे वो घर नहीं मिलता
एक बहुत छोटा शहर मिलता है

मेरे अर्जित किए हुए पहाड़ी सुकून में
पत्‍नी बनाती है कभी धुली तो कभी छिलके वाली मूंग दाल
कभी उड़द मसाले में छौंकी हुई शानदार
मसूर भी बनती है मक्‍खन के साथ
जिसे इसी मुंह से खाता हूं
कभी राजमा
भट्ट की चुड़कानी
कभी स्‍वादिष्‍ट रस-भात

किसी दोपहर बनती है अरहर
पहला निवाला तोड़ते ही मुझे आता है याद 
कि जीवन में पिपरिया उतना ही बच गया है
जितनी भोजन में उत्‍तर की यह
फीकी अरहर दाल

***



शिरीष कुमार मौर्य, द्वितीय तल, ए-2, समर रेजीडेंसी, पालिका मैदान के पीछे, भवाली, जिला-नैनीताल (उत्‍तराखंड) पिन- 263 132

टिप्पणियाँ

|''इधर कविता इतना तात्‍कालिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इंतज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं का
दंगों का
घोटालों का ....
सहजता ,बेबाकी और विकलता से लिखी कवितायेँ ..हमेशा की तरह और उम्मीद के मुताबिक..
"गुरुजी जहां बैठा हूं छाया जी, मैं लिखता हूण एक पुरानी कविता, अरहर की फीकी दाल" ज़ोरदार कविताएं हैं. कवि के रूप में शिरीष का क़द उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है. उन्हें बधाई.
आर. अनुराधा ने कहा…
हिंदी कविता के इस सुरक्षित उत्तर काल... वाह, हिंदी कविता के हाल को इंगित करती पंक्ति.
हमेशा की तरह लाजवाब कविताएँ शिरीष जी की . मन में घर बनातीं ..
Rajesh Kumari ने कहा…
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १७/१२/१३को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है -यहाँ भी आयें --वार्षिक रिपोर्ट (लघु कथा )
Rajesh Kumari at HINDI KAVITAYEN ,AAPKE VICHAAR -
बेनामी ने कहा…
शिरीष जी आपकी कविताएँ दंगों , घोटालों और अमानवीय हो जाने से पहले के संवेदनशील काव्यात्मक दस्तावेज हैं ...पर भाई सवाल फिर वही है क्या ऐसा साहित्य कहीं पहुँचने दिया जा रहा है ??? मेरे अनुभव कड़वे हैं . बाकी एक दूसरे की पीठ सहलाने और खुरचने के लिए तो है ही ... बहरहाल बहुत अच्छी कविताएँ ...हमारे समय में होने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद !!
- कमल जीत चौधरी [ जम्मू ]
अरुण अवध ने कहा…
बहुत अच्छी और मजबूत कवितायेँ ,शिरीष जी को बधाई |
गौतम राजऋषि ने कहा…
एक लंबा अरसा हो भी गया है "पृथ्वी पर एक जगह" के बाद से और अब "दंतकथा" का कवर देखकर संतुष्टि मिल रही है |

इन नई पाँच कविताओं को अभी देर रात गए जब पढ़ा रहा हूँ, पढ़ लिया है...तो शिरीष आश्वस्त से करते नजर आ रहे हैं | कविता की काँगड़ी सुलग रही है अपनी पूरी तपिश के साथ दूर नैनीताल की पहाड़ी पे |

"मैं पुरानी कविता लिखता हूँ" हालमार्क हो जाने वाला है कवि के नए संग्रह में !
Onkar ने कहा…
बहुत प्रासंगिक कविताएँ
चूल्हा-चौका ने कहा…
शिरीषजी को बधाई!
1.गुरू जी जहाँ बैठूँ वहाँ छाया जू---सटीक
2.चुनावकाल में एक उलटबाँसी---बेहतरीन
3.मैं एक पुरानी कविता लिखता हूँ---धारदार
4.ज़मीन को पाला मार है---औसत
5.फ़ीकी अरहर दाल---अच्छी


neera ने कहा…
शिरीष जी कि कवितायें हमेशा कि तरह मन को छूती हैं!
Unknown ने कहा…
फीकी अरहर दाल बिजुका 2 में लगा रहा हूँ .
Unknown ने कहा…
बेहतरीन कविता । अरहर की दाल को बिजूका दो में ले रहा हूँ .
Unknown ने कहा…
बेहतरीन कविता ।

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