जितेन्द्र श्रीवास्तव की नई कविताएँ
जितेन्द्र श्रीवास्तव पिछले लगभग ढाई दशकों से हिंदी कविता में सक्रिय हैं. इस बीच उन्होंने लम्बी यात्रा की है, जिससे हिंदी का पाठक भलीभांति परिचित है. एक तरफ उन्होंने कविताओं में लगातार नए भावबोधों को प्रवेश दिया है तो दूसरी तरफ आलोचना के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया है. छात्र जीवन में मेरे सीनियर रहे जितेन्द्र की कविताओं से अपने पुराने और गहन परिचय के चलते इन कविताओं ने मुझे चौंकाया. इनमें एक बड़ा मद्धम और परिचित सा राग है. लोक की बनावटी धारणा के समक्ष लोक का एक उदात्त रूप, अंधेरों में उम्मीद ढूंढ लेने की बेआवाज़ जीजिविषा...जब वह कहते हैं "डर विलोम होता है प्रेम का" तो बहुत धीमे लेकिन दृढ़ खंडन करते हैं "भय बिनु होंहि न प्रीति" का और इस तरह परम्परा में शामिल होकर उसका अस्वीकार भी और परिस्कार भी.
फ़िलहाल मैं जितेन्द्र भाई का असुविधा के लिए कविताएँ उपलब्ध कराने के लिए आभार प्रकट करते हुए कविता और पाठकों के बीच से हटता हूँ.
प्रकृति बचाती रहेगी
मन को उर्वर बनाने के लिए
दुनिया
के सबसे हसीन सपने
हमेशा
देखे जाते हैं अंधेरे में ही
अंधेरे में कुछ नहीं दिखता
न घर
न पेड़
न गड्ढ़े न पत्थर
न बादल
न मिट्टी
न चिड़ियाँ-चुरुँग
हाथ को हाथ भी नहीं दिखता अंधेरे में
पर कैसा आश्चर्य!
दुनिया के सबसे हसीन सपने
हमेशा देखे जाते हैं अंधेरे में ही।
जब हँसता है कोई किसान
वह हँसी होती है
महज चेहरे की शोभा
जिसका रहस्य नहीं जानता हँसने वाला
सचमुच की हँसी
उठती है रोम-रोम से
जब हँसता है कोई किसान तबीयत से
खिल उठती है कायनात
नूर आ जाता है फूलों में
घास पहले से मुलायम हो जाती है
उस क्षण टपकता नहीं पुरवाई में दुःख
पूछना नहीं पड़ता
बाँई को दाँई आँख से खिलखिलाने का सबब!
वे योद्धा हैं नई सदी के
जो गा रहे हैं
नई संस्कृति के सृजन का गीत
नई संस्कृति के सृजन का गीत
जब वे बोलते हैं हमें महसूस होता है
वे हमारा अपमान कर रहे हैं
जबकि वे सदियों की चुप्पी का समापन करते हुए
बस मुँह खोल रहे होते हैं
उन क्षणों में वे अकन रहे होते हैं
अपनी आवाज का वज़न
महसूस रहे होते हैं उसका सौन्दर्य
और हम डर जाते हैं
वे हमसे पूछना नहीं
अपने हक़ का भूगोल स्वयं बताना चाहते हैं
संस्कृति की उपलब्ध सभी टीकाओं को
सहर्ष समर्पित करना चाहते हैं अग्नि को
कहीं कोई दुविधा नहीं है उनमें
वे नई संस्कृति के अग्रधावक हैं सौ फीसदी
इन दिनों उनकी वाणी से हो रही अम्ल वर्षा
विषाद है उनके पूर्वजों का
उसका कोई लेना-देना नहीं
किसी आम किसी खास से
वे अनन्त काल से चलती चली आ रही
गलतियों पर अंतिम ब्रेक लगाना चाहते हैं
भस्म करना चाहते हैं
उस चादर के अंतिम रेशे को भी
जो कवच की तरह काम आती रही पुराण पंथियों के
सचमुच वे योद्धा हैं नई सदी के
हमारा विश्वास करीब लाएगा उन्हें
वे हमारे खिलाफ नहीं वंचना के विरुद्ध हैं
निश्चय ही हमें इस संग्राम में
होना चाहिए उनके साथ।
विद्रोह
प्रकाश भेद देता है
अंधकार की हर माया
उम्मीद की फसल लहलहाती है
उजाले का साथ पाकर
एक भकजोन्हिया
धीरे से कर देता है विद्रोह
सनातन दिखने वाले अंधकार के विरूद्ध
और दोस्त, तुम अब भी पूछ रहे हो
बताओ तुम्हारी योजना क्या है!
शुक्रिया मेरी दोस्त!
हे अलि! आओ आज करते हैं कुछ ऐसी बातें
जिन्हें भूलने लगा हूँ शायद मैं
देखो, आज मैं करना चाहता हूँ
तुम्हारा शुक्रिया
और चाहता हूँ स्वीकार लो तुम इसे
तुम्हें सचमुच मालूम नहीं
जो सूख गया था मुझमें ही भीतर कहीं
तुमने धीरे से भर दिया है मेरे भीतर वह
जीवद्रव्य
न जाने कहाँ से लाकर
तुम्हारा शुक्रिया!
हृदय की अतल गहराइयों से शुक्रिया
मुझे यह याद दिलाने के लिए
कि प्रेम में अश्लील होता है आश्वासन
शक्ति से नहीं भींगती आत्मा की धरती
डर विलोम होता है प्रेम का
शुक्रिया मेरी दोस्त!
शुक्रिया इसलिए भी
कि तुमने जीवन का स्वप्न रहते-रहते
फिर से खोलकर बाँच दिया है वह पन्ना
जो बिला गया था मेरी ही पुतलियों में कहीं।
जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से
कल इकतीस जुलाई है
जहाँ-तहाँ याद किए जाएंगे प्रेमचंद
हो सकता है सरकार की ओर से जारी हो कोई
स्मरण-पत्र
पर क्या सचमुच अब लोगों को याद आते हैं
प्रेमचंद या उन्हीं की तरह के दूसरे लोग?
एक सच यह भी है
परिवर्तन के लिए जूझ रहे लोग
यकीन नहीं कर पाते
सरकारी गैर सरकारी जलसों का
वे गला खखारकर थूकना चाहते हैं
जलसाघरों के प्रवेश द्वार पर
वे प्रेमचंद के फटे कोट और फटे जूते को
सजावट का सामान बनाना नहीं चाहते
वे उसके सहारे कुछ कदम और आगे जाना चाहते हैं
वे जानते हैं इस महादेश में
फटा कोट और फटा जूता पहनने वाले अकेले नहीं थे
प्रेमचंद
आज भी करोड़ों ‘गोबर’
जी रहे हैं जूठन पर
उनके हिस्से में फटा कोट और फटा जूता भी नहीं
है
वे प्रेमचंद के उस जीवन-प्रसंग का महिमा मंडन
नहीं करते
उसे बदल लेते हैं अपनी ताकत में
प्रेमचंद की चेतना को घोल लेते हैं अपने रक्त
में
बना लेते हैं अपना जीवद्रव्य
ये वे लोग हैं
जिन्हें अब भी यकीन है
‘साहित्य
राजनीति के पीछे नहीं
आगे चलने वाली मशाल है’
वैसे कल सचमुच इकतीस जुलाई है
और यह महज संयोग हो सकता है
मगर एक तथ्य है
कल ही बीती है उनतीस जुलाई
जब देश भर में मनाई गई ईद
और एक खबरिया चैनल के ‘एंकर’ ने
याद किया ‘ईदगाह’ को
लेकिन
हामिद की दादी को भूलवश बता गया उसकी माँ
कुछ साहित्य प्रेमी नाराज हैं इस घटना से
उनका कहना है
पूरी तैयारी से आना चाहिए ‘एंकर’ को
इस विवाद पर एक मित्र का कहना है
इस स्मरण को उस तरह न देखें
जैसे देखते हैं बहुसंख्यक
इसे अल्पसंख्यकों की निगाह से देखें
और सोचें कि जब पूरी दुनिया में घमासान है
धर्मों के बीच
जब कत्ल हो रहे हैं बच्चे, बूढ़े, जवान
और लूटी जा रही हैं स्त्रियाँ
जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से
तब हिन्दी के एक ‘एंकर’ को
याद तो है ‘ईदगाह’।
संजना तिवारी
आप निश्चित ही जानते होंगे
एश्वर्या राय, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ़
एंजलीना जोली, सुष्मिता सेन सहित कई दूसरों को भी
और यकीन जानिए मुझे रत्ती भर भी ऐतराज नहीं
कि आप जानते हैं
ज़माने की कई मशहूर हस्तियों को
लेकिन क्या आप जानते हैं संजना तिवारी को भी ?
संजना तिवारी ने अभिनय नहीं किया
एकता कपूर के किसी धारावाहिक में
वे किसी न्यूज़ चैनल की एंकर भी नहीं हैं
मेरी अधिकतम जानकारी में उन्हांेने
कोई जुलूस नहीं निकाला कभी
चमक-दमक
लाभ -हानि
प्रेम और घृणा के गणित में पड़े संसार को
ठेंगा दिखाती हुई
वे फुटपाथ पर बेचती हैं दुनिया का महान साहित्य
और उन पत्रिकाओं को जिनमें
शृंगार, जिम और ‘मुनाफे’ पर
कोई लेख नहीं होता
वैसे वे चाहतीं तो खोल सकती थीं
प्रसाधन का कोई छोटा-सा स्टोर
या ढूँढ सकती थीं अपने लिए कोई नौकरी
न सही किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में
किसी प्रकाशन संस्था में टाइपिस्ट की ही सही
ऐसा तो हो नहीं सकता
कि कोई घर न हो उनका
और यह कैसे हो
कि घर हो और उम्मीद न हो
यह कहने-सुनने में चाहे जितना अटपटा लगे
पर सच यही है
घर और उम्मीद में वही रिश्ता है
जो साँसों और जीवन में होता है
खै़र, छोड़िए इन बातों को
और थोड़ी देर के लिए
दुनिया को देखिए संजना तिवारी की निगाह से
जो इस बेहद बिकाऊ समय में
अब कम-कम बिकने वाली
सपनों से भरी उन इबारतों को बेचती हैं
जो फर्क़ करना सिखाती हैं
सपनों के सौदागरों और सर्जकों के बीच
संजना तिवारी महज एक स्त्री का नाम नहीं है
किताबें बेचना उनका खानदानी व्यवसाय नहीं है
वे किसी भी ‘साहित्यिक’ से
अधिक जानती हैं
साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में
वे सुझाव भी देती हैं नए पाठकों को
कि उन्हें क्या जरूरी पढ़ना चाहिए
संजना तिवारी महज एक नाम नहीं
तेजी से लुप्त हो रही एक प्रवृत्ति हैं
जिसका बचना बहुत जरूरी है
और जाने क्यों मुझे
कुछ-कुछ यकीन है आप सब पर
जो अब भी पढ़ते-सुनते हैं कविता
जिनकी दिलचस्पी बची हुई नाटकों में
जिनके सपनों का रंग अभी नहीं हुआ है धूसर
इसलिए अगली बार जब भी जाइएगा मण्डी हाऊस
श्रीराम सेण्टर के सामने
पेड़ के नीचे दरी पर रखी सैकड़ों
किताबों-पत्रिकाओं में से
कम से कम एक जरूर ले आइएगा अपने साथ
और यकीन रखिए आपका यह उपहार
किसी और पर फर्क़ डाले न डाले
दाल में नमक जितना ही सही
जरूर डालेगा अगली पीढ़ी पर।
प्रकृति बचाती रहेगी
पृथ्वी को निःस्वप्न होने से
नीले समुद्र पर
बिखरी है चादर नमक की
चेहरा ज्यों पहचाना-सा कोई
इस समय भीड़ मेंअकेला
दृश्य में डूबा ढूँढता तल अतल तक कुछ
पहचानने की कोशिश में हूँ कालिदास के मेघ को
युग बीते कितने
बीते पुरखे कितने
टिका नहीं यौवन जीवन किसी का
पर मेघ अभी जस का तस
अब भी उत्सुक बनने को दूत
यह चमत्कार देख
भीतर कहीं से उठती है आवाज
बीत जाएं मनुष्य यदि किसी दिन
नहीं बीतेंगे स्वप्न उनके साथ
प्रकृति की समूची देह
धीरे से
बदल जाएगी स्वप्न में उस दिन
धरती पर मनुष्य
बचें न बचें
प्रकृति बचाती रहेगी पृथ्वी को
निःस्वप्न होने से।
मन को उर्वर बनाने के लिए
इच्छाओं का व्याकरण
सृजित होता है
संवेदनाओं के रण में
संवदेनाओं के इतिहास में
अक्सर नहीं होते नायक
वहाँ मन होता है राग-विराग से भरा हुआ
उसे कहीं से छेड़ना
विकल करना है खुद को
हारना नहीं होता
किसी इच्छा का पूरा न होना
बाबूजी कहते थे
कभी-कभी किसी इच्छा को मारना
जरूरी होता है
मन को उर्वर बनाने के लिए।
धीरे से कहती थी नानी
मिलने से घटती हैं दूरियाँ
आने-जाने से बढ़ता है प्यार
शरमाने से बचती हैं भावनाएं
चलने से बनती है राह
जूझना सीखो बेटा! जूझना
जूझने से खत्म होती हैं रूकावटें
कभी-कभी मेरा माथा सहलाते हुए
धीरे से कहती थीं नानी।
हिमपात
गिरने लगी है बर्फ
पूस के शुरू होते ही
और लकड़ी के अभाव में
बहाई जाने लगी हैं लाशें
बिना जलाए ही
लोग ठकुआए हुए टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं
ओरा गया है उनका विश्वास
न जाने कहाँ है सरकार!
वह बहुत डरता है
यह खड़ी दोपहर है
सूरज चढ़ आया है सिर पर
जबकि लैंपपोस्ट अभी जल रहे हैं सड़कों पर
सरकार अभी सोई है
लाइनमैन परेशान है
वह बुझाना चाहता है सारी बत्तियाँ
लेकिन बत्तियों के बुझने से खलल पड़ेगी
सरकार की नींद में मनचाहे सपनों में
उसे भ्रम हो जाएगा उजाले का
सरकार को रात के उजाले अच्छे लगते हैं
उसे सूरज बिलकुल नहीं सुहाता
यह अच्छा है उसका घर बहुत दूर है
वह पहुँच के पार है
अन्यथा राजदण्ड का भागी होता
लाइनमैन डरता है
बीबी-बच्चों का चेहरा उसकी पुतलियों में रहता
है
उसे मालूम है
राजद्रोह सिद्ध करने वालों को
बहुत रास आती हैं व्रिदोहियों की आँखें
वे और ही ढंग से समझते-समझाते हैं
‘न
रहेेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ का निहितार्थ
घबराया हुआ लाइनमैन इधर-उधर देखता है
अजीब सी झुरझरी उठती है बदन में
माथे से टपक पड़ता है पसीना
अरावली की पहाड़ियों पर झूम कर खिले हुए कचनार
उसमें रंग नहीं भर पाते फागुन का
वह एक साधारण आदमी है
छोटी-सी नौकरी में खुष रहना चाहता है
वह चाहता है बदल जाएं स्थितियाँ
वह स्वागत करना चाहता है नए उजाले का
लेकिन सरकार की नज़र में नहीं आना चाहता
वह बहुत डरता है राजदण्ड से।
------------------------------------------------------------
सम्पर्क: हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, ब्लाॅक-एफ, इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली-68
सम्पर्क: हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, ब्लाॅक-एफ, इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली-68
मोबाइल नं. -09818913798।
टिप्पणियाँ
(Shafique Alam)