तुर्की कविताएँ - मुईसेर येनिया

तुर्की  की युवा कवि मुइसेर एनिया की इन कविताओं का अनुवाद हिंदी के कवि अनुवादक मणि मोहन ने किया है. दुनिया भर की स्त्रियों की कविताएँ पढ़ते पितृसत्ता के रूह तक को प्रभावित करने वाले ज़ुल्मों के निशानात शाया होते जाते हैं. मुइसेर की कविताएँ उसी कड़ी का एक रौशन हिस्सा हैं. भीतर तक भेदने वाली नज़र और उसे कविता में ढाल देने का हुनर. असुविधा के लिए ये कविताएँ उपलब्ध कराने के लिए मणि मोहन भाई का आभार. मुइसेर की कविताओं का जो संकलन वह ला रहे हैं, उसके लिए उन्हें ख़ूब बधाई भी.
Muiser Yenia





मैं एक अजनबी हूँ ख़ासकर खुद के लिए
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खुद की कीमत पर , मैं एक अजनबी के साथ रहती हूँ
और यदि मैं उछल पडूँ , तो वो गिर पड़ेगा मेरे भीतर से बाहर

मैं अपनी गर्दन के नीचे देखती हूँ
मेरे बालों की तरह हैं उसके बाल
उसके हाथ मेरे हाथों की तरह

मेरे हाथों की जड़ें , धरती के भीतर हैं
दर्द से कराहती धरती हूँ मैं , खुद में

जाने कितनी बार 
अपना चकनाचूर ज़ेहन
मैंने छोड़ा है पत्थर के नीचे

मैं सोती हूँ ताकि वो आराम कर सके
मैं जागती हूँ ताकि वो जा सके
- नींद से , क्या सीखना चाहिए मुझे ? -

खुद की कीमत पर , मैं एक अजनबी के साथ रहती हूँ
और यदि मैं उछल पडूँ , तो वो गिर पड़ेगा मेरे भीतर से बाहर ।

कभी-कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है
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कभी - कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है 
कभी - कभी वह उस मुल्क की तरह हो जाता है
जिसे सबने छोड़ दिया हो

उस मुल्क की तरह 
जिसे छोड़ दिया हो सबने
एक स्त्री भी छूट जाती है

दुःख के समुद्र के भीतर एक मछली
जैसे ही टकराती है किनारे से
समुद्र उछलने लगता है

ताकि कोई देख न सके मेरे ज़ख्म
मैं उन पर जमा लेती हूँ पपड़ी

यदि मैं नहीं होती , दुःख भी नहीं होते ।



विलाप
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एक स्त्री होने का अर्थ
रौंदा जाना है , ओ माँ !

उन्होंने सब कुछ छीन लिया मुझसे
एक स्त्री ने मेरा बचपन लिया
एक पुरुष ने मेरा स्त्रीत्व ....

ईश्वर को स्त्री की रचना नहीं करनी चाहिए 
ईश्वर को जन्म देना नहीं आता

यहाँ , सभी पुरुषों की पसलियां
टूटी हुई हैं

हमारी ग्रीवायें बाल से भी ज्यादा पतली हैं
पुरुष उठाये हुए हैं हमें
अपने कन्धों पर ताबूत की तरह

हम उनके पैरों के नीचे रहे
किसी पँख की तरह
हम उड़े एक दुनियां से 
एक आदम की तरफ

और मेरे शब्द , ओ माँ !
उनके पदचिह्न हैं .....



मुझसे पुरुषों की बात मत करो
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मेरी आत्मा इतनी दुखती है
कि मैं धरती के भीतर सोये पत्थरों को जगा देती हूँ

मेरा स्त्रीत्व
एक गुल्लक है जिसमे भरे हैं पत्थर
एक घर कीड़े-मकोड़ों का , कठफोडवों का 
एक गुफा चढ़ते-उतरते भेड़ियों के लिए
मेरी देह पर , मेरी बाँहों पर
नए बीज बिखेरे जाते हैं
तुम्हारे जीवन के लिए पुरुष तलाशा जाता है
यह बेहद गम्भीर मसला है

मेरा स्त्रीत्व , मेरा ठण्डा नाश्ता
और मेरा वस्ति प्रदेश , खालीपन से भरा एक घर
इसी पर टिकी है यह दुनियां 
और तुम ! उस गन्दगी के साथ जी रही हो
जो फेंक  दी गई है तुम्हारे अंदर

जब वह जा चुके , उससे कहना
कि नाख़ून छूट जाते हैं मांस में
कि तुम जीती हो इस टूटन की विज्ञान के साथ
उस गम्भीर बीमारी के बारे में उसे बताना

किसी भेड़ के चमड़े की तरह , मैं ठण्डी हूँ तुम्हारी घूरती निगाह में
मैं तुम्हारी माँ की कोख की कर्जदार नहीं हूँ  , श्रीमान !
मेरा स्त्रीत्व , मेरा अधीनित महाद्वीप

और न मैं खेती वाली जमीन हूँ ...
खरोंच कर मिटा दो उस अंग को जो मेरा नहीं 
साँप की केंचुल की तरह , काश मैं उससे मुक्त हो सकती
हत्या के लिए माँ बने रहना तार्किक नहीं

यह टुकड़ों में विभाजित सरज़मीन नहीं
एक स्त्री की देह है
अब मुझसे पुरुषों की बात मत करो !

चलो सोने चलते हैं
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चलो सोने चलते हैं
उस तन्हा अँधेरे में

अच्छा हो कि पैर में पड़े लकड़ी के जूते
सूती वस्त्र में बदल जायें

चलो सोने चलते हैं
उस बन्द पलकों वाले महल में

चलो अपने कन्धों से उतारें अपनी देह
चलो उस घोड़े पर सवार हो जायें
जिसकी पूंछ एक बादल है

जैसे हम पराजित हो चुके हों
आसमान की चमक से

जैसे हमारे पास कोई सिरहाना न हो
सिवा धरती के

अच्छा हो कि गेंहू की हरितमा 
हमारे सपनों पर झुक जाये

चलो सोने चलते हैं ।
मधुर है भूलने का स्वाद
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औरों की तरह तुम भी भूल जाओगे
और अपने प्रिय का चेहरा वापिस रख आओगे
जहां से मिला था तुम्हे
शायद किसी मस्जिद के सहन में

उस नरसंहार में जिसे भूलना कहते हैं
छाती सूखती है , त्वचा सिकुड़ जाती है

औरों की तरह तुम भी भूल जाओगे
या फिर भूलने की जुगत तलशोगे

बहुत आसान है एक प्रेमी को भूलना
लोग अपने अत्यंत प्रिय को भूल जाते हैं
और किसी अजनबी का चेहरा उनके ज़ेहन में आ जाता है

तुम भी भूल जाओगे
मधुर है 
भूलने का स्वाद ।

तलवार का घाव
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खुद के सिवा कोई नहीं मेरे पास
एक भी दिन नहीं
इस रात के बाहर मेरे पास

बर्फ़बारी के बीच मैं नींद के आग़ोश में जा रही हूँ
इस देह के साथ जिसे कुत्तों ने
तार-तार कर दिया है

मैं इंतज़ार कर रही हूँ ज़िन्दगी के गुज़रने का 
तलवार का एक गहरा घाव है 
मेरी जांघो के बीच

मैं यहाँ आई 
एक स्त्री की कोख भरने के बाद

मुझे नापसन्द थी यह दुनियां
जिसे मैंने उसकी नाभि से देखा था

खुद से बाहर कोई नहीं मेरे पास
एक दिन तक नहीं 
रात से बाहर 
मेरे पास ।



आक्रमण
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मैं अपने ज़ेहन के कुएँ में हूँ
दीवारों पर 
जगह - जगह
सिर्फ तस्वीरें हैं
कभी गायब हो रही हैं
तो कभी टँग जाती हैं कीलों पर

हवा का एक झोंका खींच लाया मुझे यहां
एक हथौड़े ने धकेल दिया मुझे भीतर
सब कुछ मनभावन है
अहसास देह में ढल गए हैं

प्रेम एक घोड़ा है
जो दौड़ रहा है
मेरी देह में
सिर्फ आवाज़ें बची हैं पीछे
जो दूर जा रही हैं तेजी से .....

नष्टप्राय , अवाक् , इस जगह ।
स्वागत
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मैंने लुढ़का दीं चीजें
इस दुनियां के भीतर
उस बच्चे की तरह
जो अपने खिलौने लुढ़काता है

मुझे ख़ूबसूरती मिली
एक स्वप्न के उजाड़ में
ओह ! स्वागत 
इस हक़ीक़त का 
जो मैं देख न सकी ।

रहस्य के भीतर
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मैंने पाया तुम्हे
रहस्य के भीतर

मैं खो गई तुम्हारे भीतर
मैं खो गई तुम्हारे भीतर

अब सिर्फ ख़ामोशी से तअल्लुक़दारी है
बस अपना दिल ही मेरा बसेरा है

मैं बही जाती हूँ
इस नदी में
जो बहे जाती है मेरी आँखों से
तुम्हारी आँखों में ।

गुलाब
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क्रायोवा में
गुलाब के बगीचे के सामने

मैं देख रही हूँ इस दुनियां को
एक सुर्ख़ गुलाब की तरह

मैं देख सकती हूँ  उन सबको
जो मेरे भीतर हैं
जब भी देखती हूँ 
गुलाब की ख़ूबसूरती की तरफ

- जिन्हें पाल रही हूँ मैं
   अपने दिल की मिट्टी से ।


गुलदान
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वक्त ठहरा हुआ है , वहां
किसी ठोस गुलदान की तरह

दिल बुहार रहा है टूटे हुए टुकड़े
पैरों के नीचे

बहुत मुश्किल है समझना
आत्मा की पसोपेश
और यह दुनिया
यह व्यवस्था

हमारे अंदर की ऊब
मृत्यु को बढ़ा रही है

एक सीरियाई लड़का बह कर
आ चुका है किनारों तक
इस शहर में लोग 
बन्दूक की गोलियां खाकर जिन्दा हैं

मैं पुकार रही हूँ अपनी आत्मा को
कहीं कोई आवाज़ नहीं ।



ग्रेज़ी पार्क में एक चिड़िया का घोंसला 
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( नाज़िम हिकमत की स्मृति में सादर )


एक चिड़िया के घोंसले में बैठकर मैं इन शब्दों को लिख रही हूँ
जो दो शाखाओं के बीच ग्रेज़ी पार्क में बना हुआ है
मेरी साँस चाकू की तरह छाती में अटकी हुई है 
वे आ रहे हैं इस आकाश को ध्वस्त करने
धरती के तमाम लोगों के साथ

मैं एक चिड़िया का घोंसला हूँ


ग्रेज़ी पार्क में
दो शाखों के बीच

यहाँ लोगों को ज़हर दिया जाता है
दरख़्तों को उखाड़ा जाता है

हमें खदेड़ा जा रहा है उन जगहों से
जहां हमारी माओं ने हमे बुलाया

वे चिड़ियों के संगीत पर बमबारी कर रहे हैं 
- चिड़ियें सिक्कों की खनक नहीं पैदा करतीं -
       
ईथम* के बारे में सुना , एक सीमुर्ग आग में
अंकारा का एक वेल्डिंग कामगार
उसका शरीर गिर रहा है एक पँख की तरह
हमारी मृत्यू से पहले ही वे हमे मिट्टी में तब्दील कर रहे हैं 
धुंए में घिरे हैं गली के बच्चे और बिल्लियाँ
उनके कूबड़ पर एक गुमशुदा स्वप्न है
अंधी आँखें दुनियां की तरफ नहीं देख सकतीं
या किसी अप्रत्याशित क्षण में नींद से बोझिल नहीं होतीं ....

मैं एक चिड़िया का घोंसला हूँ
ग्रेज़ी पार्क में
दो शाखों के बीच ।

* सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन के दौरान मारा गया एक कामगार ।
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 कवि-अनुवादक मणि मोहन जी मध्यप्रदेश के गंज बासौदा में प्राध्यापक हैं.
संपर्क : profmanimohanmehta@gmail.com

टिप्पणियाँ

Onkar ने कहा…
सुन्दर कविताएँ
कविता रावत ने कहा…

अनुवाद के लिए मणि मोहन जी को धन्यवाद
प्रसतुति हेतु आपका आभार!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-05-2016) को "बेखबर गाँव और सूखती नदी" (चर्चा अंक-2344) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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