सुनहरे दिनों की यात्रा में आपका स्वागत है : मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी




मनोज अब प्रौढ़ होती जा रही युवा पीढ़ी के सबसे संवेदनशील कहानीकारों में से हैं. विषय चयन में बेहद सावधान और शिल्प के स्तर पर लगातार प्रयोगधर्मी मनोज की कहानियाँ एक तरफ़ घोर राजनीतिक हैं तो दूसरी तरफ़ कला के उच्चतर प्रतिमानों पर खरी उतरने वाली. "पानी" जैसी कहानी मेरे लिए उनकी विशिष्ट पहचान है तो इस कहानी में वह आपको एकदम लोकजीवन के बीच से गुज़रती हुई वैश्विक चिंताओं से रू ब रू कराती है और यक बी यक स्तब्ध कर देती है. 

असुविधा पर उनका स्वागत 
----------------------------------------------------------------------

‘तो आइए मेहरबान अभी भीतर बहुत सारी जगह है...’

माइक पर आवाज लगाते हुए हरकारे ने पूरी ताकत से चिल्लाकर कहा। लगातार चिल्लाते हुए उसका गला खराब हो गया था और कुछ इस तरह से आवाज निकल रही थी जैसे फटे हुए ढोल के भीतर से होकर आ रही हो। अभी इसमें काफी वक्त था जबकि दूसरा हरकारा आकर इसकी जगह लेने वाला था। तब तक यह अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखना चाहता था। इसे पता था कि आवाज के जरा मद्धिम पड़ने की वजह से उसके एक साथी हरकारे का क्या हुआ था। उसकी याद आते ही इसे उसके घर-परिवार की याद आई। उसके घर परिवार की याद आते ही इसे अपना घर-परिवार भी याद आया। इसने अपने भीतर की पूरी ताकत बटोरी और चिल्लाया, ‘स्वर्णदेश के प्यारे प्रजा जन, ‘सुनहरे दिनों की इस महान यात्रा में आपका स्वागत है।’

सामने एक रेल थी जिसके फर्श के ऊपर का हिस्सा पूरी तरह से काँच का बना हुआ था। यहाँ तक कि छतें भी काँच की ही बनी हुई थीं जिससे ट्रेन में बैठे बैठे आसमान और बाहर की दुनिया देखी जा सकती थी और ट्रेन की गति के रोमांच को भी महसूस किया जा सकता था। यह एक ऐसी ट्रेन थी जिसकी जोड़ की कोई ट्रेन अभी तक दुनिया भर में नहीं बन पाई थी। स्वर्णदेश के अखबार रोज पहले पेज पर छाप रहे थे कि दुनिया भर के देश इस ट्रेन के लिए लालायित हैं पर हमारे महान राजा ने तय किया है कि वह किसी भी कीमत पर एक भी ट्रेन दुनिया के किसी भी देश को नहीं देंगे। वे चाहते हैं कि स्वर्णदेश को न सिर्फ उसके सुनहरे दिनों की वजह से जाना जाय बल्कि सुनहरे दिनों की यात्रा पर ले जाने वाली इस अनोखी ट्रेन की वजह से भी जाना जाय।

उधर हरकारा चिल्लाए जा रहा था।

‘इस ट्रेन में आफिसियली ग्यारह सौ जगहें हैं। पर वे सबसे दुर्भाग्यशाली हैं जिन्हें ये ग्यारह सौ जगहें प्राप्त हुईं। या इसे फीलगुड वाले तरीके से कहें तो वे नींव की ईंट हैं जिन पर हम सुनहरे दिनों का महल बनाएँगे। इसीलिए बाद में आने वालों के टिकट का दाम बढ़ता जाएगा। इसलिए भी कि उन्होंने देर की, और इसलिए भी कि तब ये सफर उन्हें ज्यादा न्यायपूर्ण लगेगा। और हमने हर हाल में न्याय का पालन करने की कसम खाई है। प्रिय प्रजा यह यात्रा आपके भीतर विरोधियों द्वारा फैलाए गए सभी भ्रमों को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर देगी। आइए भीतर आकर देखिए। जब तक और ट्रेनें नहीं बन जातीं हम आपके हित में इस ट्रेन का अधिकतम इस्तेमाल करेंगे। आइए और अपने लिए खुद जगह बनाइए।’

और प्रजा का तो जैसा रेला ही टूट पड़ा था। हर कोई किसी भी कीमत पर सुनहरे दिनों की इस यात्रा का हिस्सा बनना चाह रहा था। ये ट्रेन लगभग असंभव की हद तक भरी जा चुकी थी इसके बावजूद जैसे जादू के जोर से नए यात्रियों के लिए जगह बनती ही चली जा रही थी। प्रजा के अंदर मदद की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी इसलिए ट्रेन के भीतर पहले से सवार यात्री नए यात्रियों के लिए जगह बनाते ही जा रहे थे। लोग सीटों पर थे, जमीन पर थे, छत पर उल्टे लटके हुए थे। पंखों में लटके हुए थे। सीटों के नीचे घुसे हुए थे। एक दूसरे के कंधे पर और गोद में बैठे हुए थे। जो लोग गोद में बैठे थे उनकी गोद में भी लोग बैठे हुए थे।

जब जगह कम होती महसूस की जाती तो ट्रेन को हिलाया-डुलाया जाता और इसके बाद फिर से बहुत सारी जगह निकल आती। और हरकारा नए सिरे से आवाज देने लगता। हालाँकि हरकारे के आवाज देने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं थी। लोग खुद ही इस यात्रा के लिए पागल हो रहे थे। वे इस कदर पागल हो रहे थे कि बहुतों ने इस यात्रा के टिकट के लिए चोरी की थी, डाके डाले थे। बच्चों से भीख मँगवाई थी। दोस्तों से घात किया था। अपनी प्रेमिका को ब्लैकमेल किया था। माँ या भाभी के गहने चुराए थे या इसी तरह के और भी बहुत सारे काम किए थे।

इसके बावजूद उन्हें कोई पाप नहीं लगने वाला था क्योंकि यह सब काम उन्होंने अच्छे उद्देश्य से किया था। उन्हें स्वर्णदेश में सब तरफ फैली बहार को देखना था और हमेशा के लिए एक गर्व से भर जाना था। ऐसा नहीं कि इन लोगों के पास पहले से गर्व नहीं था। बल्कि बात इसकी एकदम उल्टी थी। ये कई बार तो ऐसी ऐसी चीजों पर गर्व करते थे कि दुनिया के तमाम लोग अचरज में पड़ जाते थे कि इसमें गर्व की क्या बात है। इस पर ये दोबारा गर्व से भर जाते कि दुनिया भर के लोग उनके गर्व पर अचरज कर रहे हैं। उन्हें दुनिया भर के लोगों पर बहुत तरस आता।

***

दरअसल यह पूरा सिलसिला ही इसी गर्व और तरस के घालमेल से शुरू हुआ था। दुनिया के कई देशों में ऐसी चीजें संभव हो रही थीं जो स्वर्णदेश के लोगों को सपनों की तरह लगतीं। उनके यहाँ इमारतें पैदा होतीं और वे उसी तरह से बढ़ती चली जातीं जैसे पेड़-पौधे बढ़ते जाते हैं। दुनिया के कई देशों में स्वर्णदेश के लोगों की तुलना में क्रीम की तरह गोरे लोग पैदा होते तो कुछ देशों में चाकलेट की तरह काले। वे क्रीमी लोगों को देखते और खुद पर तरस खाते और अपने चेहरे पर क्रीम रगड़ते जाते। पर जब वे चाकलेटी लोगों को देखते तो उनकी खुद पर खाई तरस चाकलेटी लोगों के लिए घृणा में बदल जाती।

इतने से भी इनको पूरी तसल्ली नहीं होती। इसलिए इस स्थिति को स्वर्णदेश में लागू करते। तब इनके भीतर भरा गुबार जरा कम होता। इसी तरह से स्वर्णदेश के लोगों के मन में तरह तरह के जायज-नाजायज गुबार भरे हुए थे। इसलिए बहुत ही स्वाभाविक था कि कोई कल्पनाशील व्यक्ति जन्म ले और इस गुबार से जी भर खेले।

वह कल्पनाशील व्यक्ति थे स्वर्णदेश के नए राजा। जब देश के बहुतेरे धन्नासेठों और गुबार-प्रिय प्रजा द्वारा वह युवराज के रूप में देखे जाने लगे तब उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि इन गुबारों से जी भर खेला जाय। तो सबसे पहले तो उन्होंने ऐलान किया कि अगर प्रजा उन्हें नए राजा के रूप में चुनती है तो वह देश को पुराने गुबार से पूरी तरह मुक्त कर देंगे। वह पुराने गुबार को गुब्बारे में भरकर सुदूर अंतरिक्ष में उड़ा देंगे और स्वर्णदेश में सुनहरे दिन ले आएँगे। स्वर्णदेश की प्रजा सोने से बहुत प्यार करती थी। सोने की चमक और खनक ज्यादातर लोगों के सपनों में बसती थी। इसलिए युवराज की सुनहरे दिनों वाली घोषणा ने प्रजा का दिल ही जीत लिया। प्रजा ने तय कर लिया कि चाहे जो हो जाय वह इन युवराज को राजा बनाकर रहेगी। और स्वर्णदेश की प्रजा जब कुछ निश्चय करती थी तो कर दिखाती थी।

राजा ने पद भार ग्रहण करते ही अपनी योजनाओं को मुकम्मल रूप देना शुरू कर दिया। उसने पहला ऐलान ही यह किया कि स्वर्णदेश के सभी सरकारी भवनों को सुनहरे रंग में पोत दिया जाय। उसने प्रजा से भी निवेदन किया कि वह अपने अपने घरों को सुनहरे रंग में रँग ले। नए राजा ने इस काम के लिए आसान किश्तों और कम ब्याज पर कर्ज देने की भी घोषणा की। प्रजा को यह बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई इसके बावजूद वह बहुत ही प्रसन्न हुई कि यह राजा अपनी घोषणा को मूर्त रूप देने की कोशिश शुरू कर चुका है। आज सरकारी भवन रंगे जा रहे हैं। कल प्रजा के घर रँग उठेंगे। इसके बाद तो वह समय भी आएगा ही जब लोगों के सुनहरे सपने साकार होंगे और पूरा स्वर्णदेश सुनहरे दिनों की आभा से चमक उठेगा।

उधर राजा ने अपना काम शुरू कर दिया था। वे दिन-दिन भर राज्य के अधिकारियों के साथ चिंतन करते। रात-रात भर स्वर्णदेश के धन्ना सेठों के साथ मनन करते। इस तरह से वे कई महीनों तक लगातार जागते रहे। लगातार जागने से उनकी आँखों में एक लालिमा उभर आई जिससे उनका चेहरा और तेजस्वी लगने लगा और उन्होंने चेहरे से भी स्वर्णदेश का राजा होने की पात्रता हासिल कर ली। पर नए राजा इन सब चीजों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते थे। उन पर तो बस एक ही धुन सवार थी कि किसी भी तरह से स्वर्णदेश में सुनहरे दिन लाएँ जाएँ और अपनी प्रजा से किया हुआ वादा पूरा किया जाय।

राजा की मेहनत रंग लाई। जल्दी ही स्वर्णदेश में सब तरफ सुनहरी आभा दिखाई देने लगी। देश के सभी अखबार और खबरिया चैनल सुनहरे हो गए। अखबारों में आधे से ज्यादा अखबार देश में सुनहरे दिनों के आ जाने के विज्ञापन से भरे होते। इसी तरह खबरिया चैनलों के समाचार वाचक दिन भर चीख चीखकर प्रजा को बता रहे होते कि वे सुनहरे दिन जिनका कि राजा ने वादा किया था कबके आ चुके हैं। राजनीतिक विश्लेषक इस बात पर अचरज प्रकट करते कि राजा ने इतनी जल्दी अपना वादा पूरा कर दिखाया।

हर कोई अचरज में था। देश-विदेश के धन्ना सेठ अचरज में थे। दुनिया भर के लोग अचरज में थे। राजा के मंत्री और सिपाहसालार अचरज में थे, व्यापारी और अभिनेता अचरज में थे। पर इन सबसे ज्यादा अचरज में थी स्वर्णदेश की प्रजा। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह सुनहरे दिन जो एक तरफ से सबको दिखाई दे रहे हैं और अभिभूत किए हुए हैं वह उसे क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? वह बार बार अपनी आँख मलती। आपस में एक दूसरे से पूछती कि क्या उसे सुनहरे दिन दिखाई दे रहे हैं और जवाब न मिलने पर नए सिरे निराश और उदास होने लगती।

राजा को जब प्रजा की इस उदासी भरी असफलता के बारे में पता चला तो वह चिंतित हो गया। उसका पूरा जीवन ही प्रजा को समर्पित था। प्रजा के लिए ही वह खाता-पीता था। प्रजा के लिए ही कपड़े पहनता था। प्रजा के लिए ही प्रेम और मनोरंजन करता था। प्रजा के लिए ही देश-विदेश में भटकता रहता था। वह उदास हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसके यह सब करने का लाभ ही क्या हुआ जब प्रजा को सुनहरे दिन दिखाई ही नहीं दे रहे हैं?

इसके पहले कि दुख उसे विह्वल कर देता उसे पिछले राजाओं पर अपार क्रोध आया। कैसे दुखदायी थे वे राजा जिन्होंने प्रजा की देखने सुनने की क्षमता ही छीन ली है। अगर इस दुख का इलाज न किया गया तब तो राजा का किया धरा सब कुछ मिट्ट्टी हो जाएगा। मगर कैसे? सच्चे दुख ने उसे घेर लिया था और ऐसे में उसे हमेशा प्रजा का हुजूम दिखाई पड़ने लगता था। मगर कैसे? राजा जैसे प्रजा से ही पूछते हुए जोर से चिल्लाया। राजा की आवाज देर तक राजमहल में गूँजती रही।

जैसा कि हमेशा होता था राजा की यह आवाज सबसे पहले गुप्त मंत्री ने सुनी और तुरंत ही विह्वल भाव से राजा के सामने हाजिर हो गया। राजा अपने दुख में इतना लीन था कि उसे गुप्त मंत्री के आने का पता ही नहीं चला। उधर गुप्त मंत्री का हाल यह हुआ कि राजा के दुख को देखकर उसकी आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। टप टप की आवाज से राजा का दुख-ध्यान टूटा तो उसने गुप्त मंत्री को गले से लगा लिया और देर तक गुप्त मंत्री के आँसू पोंछता रहा।

जब गुप्त मंत्री की आँख और गाल पर से आँसू पूरी तरह से गायब हो गए तब राजा ने बिना पूछे ही गुप्त मंत्री से अपने सच्चे दुख का हाल कहा। गुप्त मंत्री राजा का हाथ थामे हुए और राजा का मुखमंडल मुग्ध भाव से देखते हुए एकटक भाव से सब कुछ सुनता रहा। जब राजा की बात खत्म हुई तो गुप्तमंत्री इस बात पर बहुत देर तक विह्वल होता रहा कि राजा अपनी प्रजा के लिए इतना कुछ सोचते हैं। अगर प्रजा राजा के इस प्रेम को नहीं समझती तो ऐसी प्रजा पर लानत है। फिर उसने विनम्र भाव से राजा से कहा कि हुजूर इस स्थिति में एक ही उपाय है।

उपाय यह है कि प्रजा को सुनहरे दिनों की यात्रा पर भेजा जाय जिससे कि वह सब कुछ अपनी ही आँखों से देख सके। राजा बहुत देर तक गुप्त मंत्री को देखता रहा। ऐसा कैसे होता है कि गुप्त मंत्री के पास हर सवाल का जवाब होता है। उसे गुप्त मंत्री पर बहुत सारा प्यार आया। उसे गुप्त मंत्री से बहुत सारा डर लगा। पर प्यार और डर पर काबू पाते हुए उसने अपने प्रिय धन्ना सेठ को तत्काल उपस्थित होने को कहा। धन्ना सेठ जैसे आदेश का ही इंतजार कर रहा था। धन्ना सेठ के आते ही बिना समय गँवाए राजा ने गुप्त मंत्री को आदेश दिया कि वह सुनहरे दिनों की यात्रा वाली पूरी योजना धन्ना सेठ के समक्ष प्रस्तुत करे।

योजना सुनकर धन्ना सेठ वाह वाह कर उठा। उसने गुप्त मंत्री का हाथ और राजा के चरण चूमे। वह इस बात पर भावुक हो गया कि उसे ऐसे राजा का भरोसा हासिल है जो हमेशा अपनी प्रजा के बारे में इस हद तक जाकर सोच लेता है। इसके बाद धन्ना सेठ ने राजा के चरणों की शपथ ली कि वह इस योजना को हर हाल में छह महीनों के भीतर पूरी कर दिखाएगा। प्रसन्नमुख राजा ने धन्ना सेठ को गले लगाकर उन्हें धन्यवाद दिया कि वे हमेशा स्वर्णदेश के हित में कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पर रहते हैं। इसके बाद राजा ने गुप्त मंत्री को आदेश दिया कि वह स्वयं इस बात की व्यवस्था करें कि सभी संबंधित विभाग धन्ना सेठ को हर वह सहयोग तुरंत दें जिसकी माँग धन्ना सेठ जी की तरफ से हो।

और आखिरकार वह शुभ दिन आ ही गया जब ट्रेन सुनहरे दिनों की यात्रा पर जाने के लिए स्टेशन पर आ खड़ी हुई। सारे अखबारों में इस ट्रेन के विज्ञापन थे। खबरिया चैनल ट्रेनमय हुए जा रहे थे। वे बता रहे थे कि प्रजा में उत्सव का माहौल है और वह इस यात्रा के लिए बेकरार है। खबरिया चैनलों पर राजा और धन्ना सेठ की जय बोली जा रही थी। वहाँ गुप्त मंत्री का वह बयान भी चल रहा था कि इस बात की पक्की व्यवस्था की जाएगी कि स्वर्णदेश की एक एक प्रजा सुनहरे दिनों की इस यात्रा पर जा सके और स्वर्णदेश में सब तरफ छाई हुई बहार को देख सके।

इस तरह वह सपनों सरीखा सुनहरा दिन आ गया था। राजा स्वर्णदेश के हित में विदेश में थे। उन्होंने वहीं से इस ट्रेन को सुनहरी झंडी दिखाई और गगनभेदी नारों के शोर के साथ ट्रेन चल पड़ी।

***

ट्रेन के चलते ही यात्रियों में एक उन्माद सा फैल गया। ट्रेन की गति उनकी कल्पना से भी परे थी। यह ट्रेन तकनीकी रूप से इतनी उन्नत थी कि इसके चलने का पता ही नहीं चल पा रहा था। न किसी तरह के झटके न किसी तरह का शोर। बस बाहर दिख रहे और बहुत तेजी से पीछे भागते दृश्यों से ही इसके चलने का पता चल रहा था। और बाहर के दृश्य इतने कमाल के थे कि पलकों को झपकने तक का मौका नहीं दे रहे थे।

बाहर सुनहरे रंग में चमकती सुंदर बस्तियाँ थीं। सब तरफ तरह तरह के पेड़ थे जिनमें सुनहरे फल और फूल खिले हुए थे। पेड़ों पर सुनहरे रंग की चिड़िया इधर से उधर फुदक रही थीं। आसमान सुनहरे नीलेपन में चमक रहा था और यह इतना साफ था कि रात में दूसरी आकाशगंगाएँ इतनी नजदीक दिख रही थीं कि दुनिया की उन्नत से उन्नत सूक्ष्मदर्शी से भी यह दृश्य देख पाना असंभव था। यह दृष्य यात्रियों में अनोखा विश्वास पैदा कर रहा था कि वह दिन दूर नहीं कि हमारे महान राजा यह सारी आकाशगंगाएँ जीत लेंगे और प्रजा वहाँ की यात्राओं पर जाएगी।

इसी तरह रास्ते में पड़ रही नदियों का पानी इतना साफ दिख रहा था कि उनकी तलहटी तक के जीव दिखाई दे रहे थे। वे पानी में कुछ इस तरह खेल रहे थे कि जैसे खुशी और उल्लास का कोई उत्सव मना रहे हों। ऐसे ही यह ट्रेन जब जंगल से गुजरी तो इतने घने जंगल मिले कि उनके बीच से हवा तक का गुजरना संभव नहीं लग रहा था। यह अलग बात है कि इन जंगलों में तरह तरह के जानवर बिना किसी भय के विचरण कर रहे थे। स्वर्णदेश की प्रजा ने इतने निर्भय पशुओं को इसके पहले कहीं नहीं देखा था। प्रजा ने अनायास राजा का जयकारा लगाया कि उनके राज्य में मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक इस तरह सुख-शांति और मौज से जी रहे हैं।

जंगल के आगे पहाड़ थे। पहाड़ों की ऊँचाई तेजी से बढ़ रही थी। वह दिन दूर नहीं था कि वह ऊँचे होते होते चाँद का रास्ता रोक देने वाले थे जिससे कि स्वर्णदेश के लोगों को एक स्थिर चाँद पर बसाया जा सके। ट्रेन की कमेंट्री में बताया गया कि चाँद पर बसने का पहला हक उन वनवासियों का होगा जो जंगल और पहाड़ के बीच की जगह पर रहते थे। इसके बाद उन लोगों को चाँद पर भेजा जाएगा जिनके पास स्वर्णदेश में रहने के लिए घर नहीं हैं। राजा इस बात पर हर तरह से दृढ़ हैं कि सबसे अच्छे संसाधनों का फायदा सबसे कमजोर प्रजा को मिले। यात्रा कर रही प्रजा इस बात से मायूस हुई कि वह चाँद पर देर से जा पाएगी पर उसके मन में राजा की इज्जत और बढ़ गई।

इसी तरह शानदार शहर मिले। इन शहरों में कोई बेरोजगार नहीं था। सब अपनी अपनी कारों में बैठकर काम पर जा रहे थे। आसमान को चूमती इमारतें मिलीं जो सर्वसुलभ थीं। सुंदर विद्यालय और विश्वविद्यालय मिले। धर्मशालाएँ, अस्पताल और उपवन मिले। खेल-कूद के मैदान मिले। महँगी कारों में बैठकर खेती करने जा रहे किसान मिले। महँगे वस्त्र और आभूषण पहने हुए भिखारी और उन्हें खूब खूब भीख देते दानी मिले। प्रजा को देखते ही विनम्रता से नमस्ते करने वाले सैनिक और राज कर्मचारी मिले। ऐसे धन्ना सेठ मिले जिन्होंने अपनी तिजोरी कमजोर और गरीब लोगों के लिए पूरी तरह से खोल दी थी। हालाँकि कोई गरीब बचा ही नहीं था कि धन्नासेठों की इस उदारता का फायदा उठा पाता।

यात्रा कर रही प्रजा में बहुतों की इच्छा उन्हीं शहरों में उतर जाने की हुई पर यह संभव नहीं था। यह ट्रेन इतनी तेज थी कि 

इससे कूदना भी संभव नहीं था। कूदना इसलिए भी संभव नहीं था कि यह सब तरफ से बंद थी और इसके दरवाजे वापस स्टेशन पर पहुँचकर ही खुलने वाले थे। ऐसी स्थिति में मन मारकर प्रजा फिर फिर से बाहर सुनहरे दिनों के नजारे में डूबने लगती। और तब उसकी आँखों में वह सुनहरे सपने चमकने लगते कि आएँगे, उसके भी सुनहरे दिन जरूर आएँगे। और फिर वे मुग्ध भाव से बाहर के दृश्य देखने और ट्रेन में चल रही कमेंट्री सुनने में व्यस्त हो जाते। दृश्य और कमेंट्री मिलकर इतना अद्भुत सम्मोहन पैदा कर रहे थे कि यात्री प्रजा अपनी भूख-प्यास तक भूल गई थी।



सारी यात्राएँ कभी न कभी समाप्त होती हैं सो यह यात्रा भी समाप्त हुई। यात्री बाहर निकल रहे थे। उनकी आँखों में देखे गए दृश्य तैर रहे थे। वे उन लोगों से अपने अनुभव अनायास ही साझा कर रहे थे जो ट्रेन में जाने से रह गए थे। अभी पिछले यात्री उतर भी नहीं पाए थे कि नए यात्री ट्रेन पर चढ़ने शुरू हो गए थे। उधर हरकारे की आवाज माइक पर गूँज रही थी। इस सब से बहुत शोर पैदा हो रहा था। इस सबसे एक ऐसा दृश्य पैदा हो रहा था जो यात्रा के दौरान ट्रेन में से देखे गए दृश्यों के एकदम उलट था। इधर यह सब चल ही रहा था कि एक नया शोर और दृश्य उभरकर प्रकट हो गया।

हुआ यह था कि बहुत सारे लोग जिन्हें ट्रेन के भीतर जगह नहीं मिल पाई थी, सुनहरे दिनों को देखने के लालच में ट्रेन की छत पर चढ़ गए थे। उनका कहना था कि यह ट्रेन तो कहीं गई ही नहीं। यह तो जस की तस अपनी जगह पर खड़ी रही है। वे चिल्ला रहे थे कि सुनहरे दिनों का दावा धोखा है और टिकट का पैसा वापस लौटाने की माँग कर रहे थे। उधर माइक पर हरकारा चीख रहा था कि इन लोगों के बहकावे में न आएँ। ये वही लोग हैं जिनकी वजह से स्वर्णदेश आज तक सुनहरा नहीं हो पाया था। ये शत्रु देशों के जासूस हैं। प्रजा को इन्हें सबक सिखाना चाहिए।

वह प्रजा जिसे ट्रेन के भीतर जगह मिल पाई थी और जो अभी अभी सुनहरे दृश्यों को देखकर लौटी थी उसकी भूख और प्यास जाग उठी थी। एक तो उसे ऐसे ही बुरा लग रहा था कि ये छत पर सवार लोग उसकी सपनीली आँखों में कंकड़-पत्थर फेंक रहे हैं। दूसरे माइक पर हरकारे के ऐलान के बाद तो इसमें कोई संदेह ही नहीं रह गया था कि टिकट का पैसा वापस लौटाने की माँग कर रहे लोग स्वर्णदेश के दुश्मनों के हाथ में खेल रहे हैं। ऐसे में प्रजा ने वही किया जो दुश्मनों के साथ किया जाता है। वह अपनी भूख-प्यास भूलकर दुश्मनों पर टूट पड़ी।
           
जो लोग ट्रेन के भीतर सवार होकर यात्रा के लिए गए थे उनमें से अनेक ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उनके मन में भी अब संदेह पैदा हो रहा था कि उन्हें जो नदी पहाड़ जंगल शहर और लोग दिखाए गए उन्हें वहाँ ट्रेन से उतरकर यह सब देखने की अनुमति क्यों नहीं मिली। उन्हें उस पल का अपना मन मसोसना याद आया जब ट्रेन के बाहर की दुनिया उन्हें बुला रही थी पर यात्रा के नियमों और ट्रेन के न रुकने की वजह से वह बाहर की सुनहरी दुनिया में शामिल होने में असमर्थ थे। कुछ फरेब तो है ही इस ट्रेन में, उनके मन में विचार प्रकट हुआ। इस विचार के प्रकट होते ही वह ट्रेन की छत पर सवार यात्रियों को बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े। अब मार बराबरी की थी और देर तक चलने वाली थी।

उधर माइक पर हरकारे का ऐलान जस का तस चल रहा था और यात्रियों की नई खेप ट्रेन में अपनी जगह ले रही थी।
--------------------------------------

मनोज की कुछ और कहानियाँ तथा परिचय यहाँ 
यह कहानी "कथन" पत्रिका के ताज़ा अंक में आई है. 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-05-2019) को "आपस में सुर मिलाना" (चर्चा अंक- 3343) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
narendraps.19.nps@gmail.com ने कहा…
बहुत सुन्दर कहानी जो आज के समय के साथ आपको
कहन की एक नयी दुनियाँ में भी ले चलती है ।
मनोज को बहुत बधायी इतनी अच्छी कहानी लिखने के लिए ।
नरेंद्र प्रताप सिंह

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

रुखसत हुआ तो आँख मिलाकर नहीं गया- शहजाद अहमद को एक श्रद्धांजलि