कहां होंगी जगन की अम्मा ?
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतजार में होती थीं सुलगती हुइ हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा।
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोइ अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर
पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन,पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य
मुठि्ठयां भर भर कर फांकते हुए इसे हमने खेले बचपन के तमाम खेल
उंघती आंखो से हल किये गणित के प्रमेय
रि’तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुंचे महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीजों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुजरे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहां होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहां होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हांथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे शर्मिंदा हांथो को देखते हुए गौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतजार में होती थीं सुलगती हुइ हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा।
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोइ अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर
पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन,पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य
मुठि्ठयां भर भर कर फांकते हुए इसे हमने खेले बचपन के तमाम खेल
उंघती आंखो से हल किये गणित के प्रमेय
रि’तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुंचे महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीजों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुजरे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहां होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहां होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हांथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे शर्मिंदा हांथो को देखते हुए गौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!
टिप्पणियाँ
इतनी बेहतीन कविता के लिए बधाई. हांलाकि समकालीन हिंदी कविता के प्रतिष्ठित कवि-गण इस कविता में 'बचाने' के क्लीशे की खोज़ करते हुए, इसके वृहत्तर सामजिक संदर्भों से अआंखें मूंद कर अपनी घाघ जमुहाई की गुफा में जा सकते हैं.
namaskar
sach kahun to, is kavita ko padhkar bahut baichen sa ho gaya hoon , man nahi maana; to apni patni aur apni choti si bitiya ko sunaya .. yaar ,bahut accha likhe ho .. kya kahun , na tareef ke liye shabd mil pa rahen hai aur na hi main is kavita me se bahaar aa pa raha hoon.. kitna sundar aur vyatit shabd chitran hai , mere dost..
main aapko kavita likhne ke liye badhai nahi doonga , itni acchi kavita ke liye badhai chota sa shabd hai .. main aapki lekhni ko salaam karta hoon ..
namaskar aur dhanyawad ki aapne is kavita ke dwara mujhe thodi der ke liye thaharne par mazboor kiya .
aapka
vijay kumar sapatti
sarvpratham itne sahaj shabdo me apni baat aapne rakhi iske liye aap badhaai ke paatr hai....
sach me aaj ke is bhag daud ke mahoul me aapne jis tarh se jagan ki amma ke chulhe ko sbke samne rakhaa hai vah bahut achcha prayas hai........
Fazalsmriti
vakai achchhi kavita hai.
par isako thik se post nahin kiya hai.font aur peron ka thik se upayog karo.
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर
पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
- बाजार की भयावाह्ता पर एक गम्भीर चिन्तन और सोचने पर मजबूर करती कविता.
बीते दिनों और वर्तमान का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है.
बधाई।
kher..
rachna marmik aour saargarbhit artho se lipti hui he..bahut kuchh apne aap si kahti hui...
sundar
आजकल जग की गन में हैं
वो गन नोटों की है
वोटों की है और
उससे लगी चोटों की है।
अम्मा जो स्मृति है
बसी है अभी तक मन में
कल होगी ब्लॉग के आंगन
स्मृति प्रांगण में।
अभी बहुत कुछ है जो
रह गया है जैसे
लोटपोट, चंदामामा वगैरह
जो पढ़ते रहे हैं बचपन में आप।
और वो गिल्ली डंडा
जो खूब खेला है आपने
पर बच्चों ने पकड़ लिया है क्रिकेट
जिस पर गेंद बल्ला ही नहीं खेलते
खेलते हैं सट्टा भी भरपूर
सट्टे का अड्डा है क्रिकेट हुजूर।
jagan ki amma abhi bhi vhi hai uska svrup badal gya hai .
bahut hi marmikpost
dil ko chu lene vali
badhai
अशोक भाई को धन्यवाद
आपकी कविता आज के समय की शातिर चालाकियों को बेनकाब करती है ,बधाई .......... अभी अभी कथाक्रम में आपकी कविता -'मौन' पढ़ी वो भी बेहद सुंदर है . मेरा ब्लॉग भी देखें .
Nice poem to remember our past. The things have really changed with time & presently, lots are lost from past.
क्या लिखते हो कविवर आप, हम तो दीवाने हो गये हैं आपके।