हत्यारे
(एक)
हत्यारा
अब नहीं रहा
रात के अंधेरों का मुहताज
मुक्त अर्थव्यवस्था के
पंचसितारा सैलून में
सजसंवर कर
निःसंकोच घूमता है
न्याय की दुकानो से
सत्ता के गलियारों तक
नये चलन के बरअक्स
पहन लिए हैं
त्रिशूल के लाॅकेट
और
अपने हर शिकार को कहता है
आतंकवादी!
(दो)
टूटते परिवारों के
इस दौर में
हत्यारों ने संभाल कर रखा है
अपना परिवार
एक
हत्या करता है
दूसरा
उसे गिरफ़्तार करता है
तीसरा
अदालत में जिरह करता है
चौथा
बेगुनाही की गवाही देता है
पांचवा
उसे बाईज्ज़त बरी करता है
और फिर
सब मिलकर
निकलते हैं शिकार पर!
( पेंटिंग गूगल से साभार)
टिप्पणियाँ
दूसरा हत्यारों का परिवार तो अद्भुत है जो इस व्यवस्था के बहुरुपिए छद्म को सामने रखती है।
वाह वाह, बधाई
पहन लिए हैं
त्रिषूल के लाॅकेट
और
अपने हर शिकार को कहता है
आतंकवादी!"
बिलकुल यथार्थ ! बेहतरीन कविता । आभार ।
'त्रिषूल' ’त्रिशूल'होना चाहिए न !
यथार्थ तो हम सबमें रचा-पगा है पर साक्षी भाव से उसे अपने अलग-विलग कर उसका विश्लेषण कितने लोग कर पाते हैं..रचना उल्लेखनीय है.
आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं. आप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.
महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.
आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.
दोनों ही बहुत ही सशक्त कविता है।