कथा मोर,मणि और वनदेवी की
अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार
(एक)
इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अंखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर
एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल
एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने…
उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज़ पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह…
इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार
समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर,शैवाल और सीपियां…
(दो)
वहां बहुत तेज़ रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औज़ारों के बोझ तले
थक कर डूब गया
बहुत शोर था वहां
सारे दरवाज़े बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियां
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहां
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहां
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिये
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी…
वहां दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज़ जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियां अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
ख़त्म हो जाती थीं सधते ही…
वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में
जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते
(तीन)
हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा
साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में
हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
…और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियां
किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आंगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहां-कहां की कर आते यात्रायें सपनों में ही…
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर…
कभी उस तेज़ रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनायें
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टांक आते वनफूल…
हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा प्रवेश!
(चार)
इतनी तेज़ रोशनी उस कमरे में
कि ज़रा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारो ओर
दीवारें इतनी लंबी और सफ़ेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफ़न सी आक्षितिज
इतनी गति पैरों में
कि ज़रा सा शिथिल हो जायें
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहां मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह
भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सजा दिये जाते उन पर नये चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की
इतिहास वहां एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार…
यह गति की मज़बूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर
उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घण्टों के लिये
क्यूं लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता…
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी बालकनी के गमले
क्यूं घेर रखी है उन्होंने इतनी ज़मीन ?
उन्हें सबसे ज़्यादा शिक़ायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने क़ीमती पंख यूं ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये ज़रूरी हो बरसात
शक़ तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से…
उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये ज़िम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर
और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज़्यादा खामोशियां…
उन्हें बेहद अफ़सोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिये
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें …
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला – अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरियां तय कर
गुज़रकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात …
हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढ़ूंढ़ने निकले वे अपनी
संजीवनी…
(पाँच )
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के
नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हज़ार किस्से संघर्ष के
और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका
प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
इतिहास के आगे…बहुत आगे जाने की इच्छा
इच्छा जंगलों से बाहर
क्षितिज के इस पार से उस पार तक की यात्रा की
जो था उससे बहुत बेहतर की इच्छा…
इच्छाओं के गहरे समंदर में तैरना चाहते थे वे
पर उन्हें क़ैद कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम
में
उड़ना चाहते थे आकाश में
पर हर बार छीन ली गयी उनकी ज़मीन…
और फिर सिर्फ़ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी
कुल्हाड़ियां
हाँ … नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास…
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में ज़िक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई
सिधू-कान्हू
बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में क़ैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो ख़ामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान…
इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास
कदमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आंखों से दूर
पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार
और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी खंडित चेतना का स्वपनदर्शी पक्ष
यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के
प्रतिआख्यान!
(छः)
यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का
पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला
दशक
हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही
दुनिया’
हर तरफ़ फैली हुई विभाजक रेखायें
‘हमारे साथ या हमारे
ख़िलाफ़’
युद्ध का उन्माद और बहाने हज़ार
इराक,इरान,लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा
हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
अपराधी वे जिनके हाथों में हथियार
अप्रासंगिक वे अब तक बची जिनकी कलमों में धार
वे देशद्रोही इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़
कुचल दिए जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के
ख़िलाफ़
और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी
ठूंठ की आड़ में
फौज़ी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ़ हड्डियों के… खालों के
सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चांद
और एक अंधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों की आवाज़
और कर्णभेदी चीत्कार
मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर… ख़ूब शोर… हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में…
टिप्पणियाँ
"हर उस जगह थे हमारे स्वजन
जहाँ वर्जित प्रवेश हमारा"
"इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की"
"उनकी चिन्ता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी थे बालकनी के गमले"
"इच्छाओं के गहरे समंदर में तैरना चाहते थे वे
पर उन्हें क़ैद कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम में..
...छीन ली गयी उनकी ज़मीन."
आपको पढ़ना हमेशा ही एक अलग अनुभूति कराता है... इस बार बेचैन कर गया, व्यथित, व्याकुल...
मोर, मणि और वनदेवी की फैंटेसी के साथ समकालीन राजनीतिक परिस्थितियां कविता में बखूबी उतर के आई है समस्या की तह में जाकर.
इन कविताओं के लिए एक बार फिर बधाई....
---
गुलाबी कोंपलें
The Vinay Prajapati
एक कालजयी काल-कथा रच गये हैं आप...
एक संवेदनशील मन की गहरी बौद्धिकता से उपजी व्यथा...
जो बैचैनी भरी असुविधा से भरे दे रही है..
जो लंबे समय तक मन में गूंजती रहेगी...और विचारों को मथती रहेगी...
मुक्तिबोध के शब्दों में...
संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना...
बधाई!
लिखकर बहुत व्यग्र था…आप लोगों की प्रतिक्रिया से संबल मिला
स्वप्निल ने बिम्बों को खूब पहचाना है.
बहुत सशक्त और बहुत सुन्दर, बधाई!
अक्सर कवि की समझ इतनी हावी हो जाती है के भाव..पीछे छूटने का डर रहता है ...कवि का विद्तत्व पूरी कविता पर छाया रहता है ...लेकिन आपके इस प्रयोग का कायल हो गया हूँ......अपितु उस उर्जा की निरंतरता आखिरी पंक्ति तक महसूस कर रहा हूँ.....निसंदेह कविता में एक कथा है ......
आभार आपका इसे पढवाने के लिए ........
ओर हाँ अभी भी मोज़िला में नहीं खुल रहा है......
IE me kholkar tippani kar raha hun..
पवित्र-पावन अरण्यों से होती हुई अतीत-पुराणों के गलियारों से गुजरती विकास की महायात्रा बहुत जल्दी आज के दौर की बालकनी में बदशक्ल चेहरा लिए प्रकट होती है। यह सब सशक्त मगर सरल शब्दों में प्रकट हो रहा है युग की इस महागाथा में।
बधाई स्वीकारें ....
बिरले होते हैं वे क्षण और अनमोल होती हैं वे अनुभूतियां जिनके होने से बरसों में होती है ऐसी रचना। बधाई....
जो बहुत उद्विग्न कर गयी
प्रिय अशोक जी,
कविता बहुत अच्छी है. अपनी जगह, अपने होने की व्यथा कथा तो कहती ही है, हमारे समय को उघाड़ती भी चलती है. सच में चीत्कार ही है. अत्यंत समकालीन. कविता की अंदरूनी लय भी विषयोचित है. इस कविता का पाठ मतलब रेसिटेशन भी प्रभावशाली होगा. इधर अकार और फिर ब्लाग में छपी अजेय की कविता (बुद्ध कविता में करूणा ढूंढ रहा है) की लय में भी एक वेग और आवेग है. संबोधन में और जिद्दी धुन में सुरेश सलिल की रेख्ते के बीज कविता में भी देखें, गजब का आवेग है. बेचैन कर देने वाला. आपकी कविता भी पर्वतीय नदी सी खौलती हुई बहती है. इन तीनों कविताओं को नाट्य कलाकार प्रस्तुत करें तो दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाएं.
बहुत खूब.
साभार
अनूप सेठी
पहले तो आपके इस श्रमसाध्य कार्य के लिये बधाई। अच्छा लगा अपने समय की चिंताओं को इस तरह रूपाकार पाते देखकर। मदन कश्यप की कालयात्री की याद आयी। काश कविताओं की बजाय इन कविताओं में आया हमारा समाज कालजयी हो। एक जगह सूरज की नीम रोशनी है,अगर यह व्यंग्य है तब ठीक है। पर नीम रोशनी नंगा नहीं करती वह नंगापन ढंकती है। देख लीजिएगा, पढते ऐसे ही कौंधा । अच्छा और सार्थक लगा कविता से गुजरना।
कविता पढने के लिए एक ख़ास मनहस्थिति का इंतजार करना पड़ता है.
अभी पहला पाठ किया है, तय है की इस कविता की और बार बार लौटना होगा. अभी इतना कह सकता हूँ की लम्बे समय के बाद एक लम्बी कविता एक सांस में पढ़ गया हूँ . लोगों ने ठीक लक्ष्य किया है की इस कविता में एक बहुत मीठा गीत अपने होने की ऐतिहासिक क्राईसिस से जूझते हुए अपने लिए गद्य का एक जटिल वितान बुनने की ज़द्द्ज़हद में दीखता है. कुछ कुछ समझाता की गीतदर्शी निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा क्यों कहा था.समय की अनिवार्य अंतर्वस्तु अपने लिए किस तरह नए रूप का अनायास निर्माण करती है, यह इस कविता में देखा जा सकता है. नब्बे के बाद के नए हिंदी काव्य काल की एक उपलब्धि है यह , इतना मैं निःसंकोच कह सकता हूँ. यह प्रतिरोध के समय की कविता है. प्रतिरोध की नयी लय खोजती हुयी.
इतनी अच्छी कविताएँ एक साथ, आभार, किंतु काले पर सफेद् पढ्ने में बडी दिक्कत होती है भाई।
प्रदीप भाई आपकी असुविधा हमने समाप्त कर दी है…अब सफ़ेद पर काला है फिर से
asuvidha se parichay karwane ke liye dhanyavad.
उनकी शिराओं में क़ैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो ख़ामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान…
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने.
ashok ji bhut badhiyan... labhi kavita men ant tak dhaar bchaye rakhna mushkil hota hai...aapne bakhubi ise bchaye rkha hai. bdhai.
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की...
इस धुन में बिरसा-मुंडा का होना .. आह! कैसा अवसाद है .. इतिहास की दीवारों से चिपका ..
जीवन को कहती , सुनाती कहानी कहूँ या कविता ..
इस आख्यान में शामिल -
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने.
.........................................
बहुत सुन्दर कविता .. एक शब्द व्यर्थ नहीं -
कवि मन मौन में गाता किस कदर मुखर हुआ है ..कि पूरी कविता गूंजती है ..
बधाई अशोक ..
कई बार पढ़ी जाने वाली रचना... अपनी ओर पुकारती हुई सी!
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते