दुःस्वप्न
दुःस्वप्न
जबसे जाना पिता को
लगभग तबसे ही जानता हूँ
कि एक दिन नहीं होंगे पिता
जैसे नहीं रहा उनका वह क्रोध
जैसे चला गया धीरे-धीरे उनका भय
और चुपचाप करुणा ने भर दी वह जगह
जैसे ख़त्म होती गयीं उनसे जुड़ीं आदतें तमाम
कितना क्रूर यह सोचना
कितना कठिन इसे लिख पाना
मैं लिखता हूँ
कि एक दिन नहीं रहेगी पृथ्वी
एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जायेगा सूर्य
और एक दिन मैं भी नहीं रहूँगा यहाँ…
टिप्पणियाँ
बधाई और शुभकामनायें
वंदना
जैसे खतम होती गयी उनसे जुडी आदतें तमाम
बहुत ही गहरी अनुभूति अशोक जी!
जैसे खतम होती गयी उनसे जुडी आदतें तमाम
बहुत ही गहरी अनुभूति अशोक जी!
Nirmal Paneri
ओक में भर कर
कुछ पानी
यहाँ रख दिया आपने !
बहुत गहरे में उतर जाती है,
ऐसी कविताएँ !
वो लोग जो दुनियां का सब कुछ खरीद लेना चाहते हैं ,इसलिए हर चीज़ को बिकाऊ बनाने पर तुले हैं ! क्या वे नहीं मरेंगे ?!
इस कविता में मार्मिक और प्रभावी पंक्तियां हैं। पिता और मां पर लिखना कठिन है क्योंकि इन पर इतना ज्यादा और बार-बार लिखा गया है कि चुनौती बनती है, दोहराव से बचना भी जरूरी होता है।
कितना कठिन इसे लिख पाना
पर अपने लिख डाला...सचमुच जैसे सोते से जगा देनेवाली कविता है...कुछ भी ज़िन्दगी में शाश्वत नहीं
दूसरी कविताएँ भी पढ़ीं ..मज़ा आया 'असुविधा' में ..!