एक सीधी सादी लकीर
11 नवंबर 1963 को ग्राम मिर्चा, जिला: गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में तथा फिलहाल बरेली के पास खटीमा , उत्तराखंड में रहने वाले कवि सिद्धेश्वर सिंह जी से मेरा संपर्क कबाडखाना और कर्मनाशा के माध्यम से है. अपनी कविता में बेहद सहज और संबद्ध तरीके से जीवन और समाज की छोटी-छोटी विडंबनाओं के सहारे एक विराट वितान रचने वाले सिद्धेश्वर अपने अनुवादों के लिए भी जाने जाते हैं. उनकी कुछ और कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं.
निरगुन
सादे कागज पर
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर।
दो लकीरों के बीच
इतनी सारी जगह
कि समा जाए सारा संसार।
नामूल्लेख के लिए
इतना छोटा शब्द
कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार।
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर
शायद इसी के गुन गाते हैं
अपने निरगुन में सतगुरु कबीर।
उलटबाँसी
दाखिल होते हैं
इस घर में
हाथ पर धरे
निज शीश।
सीधी होती जाती हैं
उलझी उलटबाँसियाँ
अपनी ही कथा लगती हैं
सब कथायें।
जिनके बारे में
कहा जा रहा है
कि मन न भए दस बीस।
कर्मनाशा
कुएं का जल नहीं है यह
ठहरा
यह है बहता निर्मल नीर।
संसृति के सरोवर में स्नात
यह एक काया है
दो देहधारियों की
जिसमें वास करता है कोई अशरीर।
यह है नदी अपवित्र
अहरह बहती हुई कर्मनाशा
गंगा - जमुना हैं जिसके तीर।
राह
नहीं थी
कहीं थी ही नहीं
बीच की राह।
खोजता रहा
होता रहा तबाह।
जब तक याद आते पाश
तब तक
हो चुका था सब बकवास।
कटी पतंग
झील के ठहरे जल की सतह पर
एक नाव होती थी - साधारण
उसमें सवार एक युगल
एक दूसरे की आँखों में देखता था प्रेम
जिस गली में नहीं होता था बालमा का घर
उस गली में पाँव धरना भी होता था गुनाह।
तब झील को जरूरत नहीं थी
कृत्रिम श्वास की
तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।
वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था सबका जीवन।
भाप बनकर उड़ गए सुगंध के बादल
और उमड़ते - घुमड़ते - बरसते रहे
जहाँ जिस ओर ले गई बयार।
झील के ऊपर
अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने - अपने हिस्से का आकाश।
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ईमेल- sidhshail@gmai.com
टिप्पणियाँ
बेहद सुंदर और गहरी कवितावों के लिए कवि महोदय को प्रणाम !
सादर
इन्हें पढवाने के लिए आपका धन्यवाद...
तब तक
हो चुका था सब बकवास।
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