ईश्वर के साथ बैठ कर भुट्टे खाने की जंगली इच्छा - बाबुषा कोहली
बाबुषा कोहली की कविताओं पर लिखना आसान नहीं. सबसे पहले तो यह कि उसे किसी तयशुदा फ्रेम में नहीं रखा जा सकता है. उसकी कविताएँ बाहर से देखने में एक मस्तमौला मन की मस्ती लग सकती है...लेकिन जैसे-जैसे आप भीतर प्रवेश करते हैं वैसे-वैसे आपको उन कविताओं के शिल्प, शब्द-चयन और कथ्य के साथ किये गए ट्रीटमेंट के पीछे की मेहनत दिखाई देती है जो किसी चमत्कार की आकाँक्षा से नहीं बल्कि उसकी जेनुइन तड़प से निकले हैं. उसकी चिंताओं में पता नहीं क्या-क्या है...वह क्या-क्या और कैसे-कैसे सोचती रहती है और उस तलाश में कितना कुछ करती है, कभी उसकी कविताओं पर विस्तार से लिखने का मन है...अभी सीधे उसकी कविताएँ.
दस दिन और ग्यारह रातें
कठोर हैं लाल स्याही के वे छल्ले
जो छिले हुए कैलेंडर की ओर बिना देखे
कुछ तिथियों की परिक्रमा करते हैं....
निर्लज्ज है वे तिथियाँ
जो रेत के दरिया में आधे डूबे
'ऑज़ीमैनडियास' के पैरों के जोड़े की मानिंद तनी हुयी हैं
एक क्षण है जिस पर कांटेदार बाड़ बंधी है
इस क्षण के ह्रदय में ही समाहित है एक युग
जो कटता नहीं / पर एक दिन कट ही जाएगा
क्रॉसिंग पर कारों का शोर सुनते हुए
कई बार पकड़ना चाहा
देह से उगी परछाईं को
जो सड़क पर लम्बवत खिसकती थी
उस दिन मेरे ही भीतर लुप्त हुयी
एक भीड़ भरी सड़क के बीचोंबीच अस्त हुआ सूर्य
कुछ ही दिनों में फिर उगेगा
मेरी परछाईं फिर आकार लेगी
ग्रहण समाप्त होते ही चबा लूंगी
तुलसी के पत्ते
जो मैंने पानी में डाल रखे हैं
छोटी छोटी अँगुलियों वाली एक लड़की के लिए
(जिसे 'मिल्स एंड बून' में कोई दिलचस्पी न होगी)
एक दिन खोल दूँगी वो संदूकची
जो असंख्य कथाओं से भरी पड़ी है
एक छिले हुए कैलेंडर की धूल पोंछ दी जाएगी
वो जानेगी एक दिन
कैसे हुआ था प्रग्रह के पूर्व सूर्य का अश्रु स्नान !
वो जानेगी
जीवन पृथ्वी की तरह होगा
शेष के फन की तरह होगा प्रेम
जिस पर टिकती है पृथ्वी.
आठवां दिन
उस दिन कमरे के भीतर झुलसा देने वाली धूप थी
जबकि सड़कों पर कोहरे के श्वित जंगल के सिवा कुछ भी न था
अज्ञात पते से आयी एक चिट्ठी तकिये के नीचे चुपचाप सो गयी
शहर की सारी घड़ियाँ यूँ बौरायी मानो कोलैन्दा खाए बैठी हों
किसी के आगमन का भ्रम पैदा करने वाला कागा
उस दिन भी छत की मुंडेर पर बैठा था
कि पूर्व से आते हुए एक विषद्रुह ने उसका ह्रदय बेध दिया
मैं क्षितिज को धरती पर
गलीचे की तरह बिछा देना चाहती हूँ
जो स्वप्न भरी दो जोड़ी आँखों को
अनंत काल से छलता आया है
उस पर जमी हुयी धूल को बुहार कर वहीं टंगा दूँगी
पुनः देखना चाहती हूँ
क्या अब भी वह पहले सा दिखता है ?
यहाँ से तुम और मैं विपरीत दिशाओं की ओर आगे बढ़ेंगे
तुम सोने की तारों से जड़ी हुयी 'अल डोराडो' की सड़कों पर चलना
कोकई पंखों वाली तितलियाँ तुम्हारे आगे उड़ते हुए
तुम्हें गंतव्य तक ले जायेंगी
इसके उलट मैं 'अल अमरजा ' चुनती हूँ !
जिह्वा पर काली चाय का कड़वा स्वाद
और काँधे पर माँ के हाथ का स्पर्श
मेरी लम्बी और दुरूह यात्राओं में
सदा साथ बने रहे हैं
(तब भी जबकि मैं स्वयं अपने साथ न थी )
ईश्वर के साथ बैठ कर भुट्टे खाने की
मेरी जंगली इच्छा पूर्ण होने वाली है
गोकि मेरे काले बाल और झुर्रीरहित विंशंक मुख
उसे सदियों तक विस्मेर रखेंगे
( उसके चेहरे के बारे में अब तक मैंने कोई अनुमान नहीं लगाया)
एक मिट्टी का घड़ा
(जो स्वयं को पितरहा समझता था )
आज विवर्तित हुआ है
सड़क के उस पार बैठा पथोरा
अपने सधे हुए हाथों से अब भी विरच रहा है
नए नए घड़े ..
किसी स्वर्ण महल के भीतर बैठे हुए
एक दिन तुम्हारे सिर के ऊपर बरगद उगेगा
एक दिन तुम भीज जाओगे
यह सोचते हुए -
कि धरती प्रेम में डूबी किसी स्त्री जैसी
लचीली और अस्थिर है
एक दिन ' अल डोराडो' और 'अल अमरजा'
आपस में अपने स्थान बदल लेंगे
संभवतः वो एक कोलाहल से भरा हुआ व्यस्त दिन होगा
जबकि मैं
ईश्वर की पीठ पर टिके हुए
भुट्टे खा रही होउंगी !
चौथा आदमी
वहाँ चार आदमी थे
पहला - शब्दों से भरा हुआ था
उसके मुंह से ही नहीं
नाक, कान और आँखों से भी
शब्द टपकते थे !
शब्दों के ढेर पर खड़ा
उसे गीता कंठस्थ थी ;
परन्तु उसे कृष्ण का पता न था !
दूसरा - अर्थों से भरा हुआ था !
वह हर समय
परिभाषाएं गढ़ता
मौसम-खगोल-रहस्य
आकाश- पाताल
भूगोल, राजनीति
कला, प्रेम की
व्याख्या करता
अर्थों को खोजती उसकी नज़रें
मेरे उभारों और
गोलाइयों की विवेचना करती थीं !
तीसरा - मौन से भरा हुआ था
उसके माथे पर चन्दन चमकता
उसके मौन के चारों ओर
अपार भीड़ थी
उसे पूजा जाता था
उसका तना हुआ चेहरा देख लगता था
उसने अपनी जुबान का
गला दबा रखा हो
उसकी जबान को छोड़
बाक़ी सब कुछ बोलता था
उसके मौन में बहुत शोर था
चौथा आदमी -
वह खालीपन से भरा हुआ था !
घुटनों के बल बैठा
आकाश को निहारता
उसकी ख़ाली आँखें भरी हुयी थीं
खींचतीं थीं
जैसे ल्युनैटिक्स को
खींचता है चाँद
और मैं खिंच गयी थी !
उसके ख़ालीपन में मैंने
छलांग लगा दी !
हम एक के भीतर एक थे
पर दो थे !
हमारी सटी हुई त्वचाएं जल्द ही
ऐसी महीन रेशमी चादर में
बदल गयीं
कि हवाएं उसके आर-पार जाती थीं !
बौछारें वहां मुक़ाम बना टिक जाती थीं
हम दोनों की सटी हुई त्वचाओं के बीच भी
हमने ख़ाली ही छोड़ी थी वो ख़ाली जगह
अब -
उस ख़ाली जगह में;
गिलहरियाँ फुदकती हैं ,
पपीहे गीत गाते हैं ;
तितलियों का रंग वहीं बनता है
चाँद की कलाएं बदलने के बाद वहीं आकर रहती हैं
वहीं बहती रहती है शराब ,
झरने वहीं से फूटते हैं
और एक दरवेश ;
एक हाथ से आकाश थामे ;
दूसरे से धरती सम्भाले -
अपनी ही धुरी पर
घूमता रहता है गोल-गोल !
कुछ डिब्बाबंद ख़याल
आँखें ,कान या नाक -
वे होती हैं
मात्र गहरी -अंधी सुरंगें !
*
गाय पॉलीथीन खा गयी
आदमी सूअर खा गया
औरत खा गयी
अपना ही गुलाबी कलेजा -
हर कोई खुद को मारने पर उतारू था !
*
सुख के गुच्छे जितने घने थे
दुःख की जड़ें उतनी गहरी !
रात के तीसरे पहर में जागते हुए
ऐसे ही कभी उसने
सापेक्षता के सिद्धांत के बारे में सोचा होगा !
*
मैंने उड़ने दिया
सुनहरे पंखों वाली इच्छाओं को ,
लुभावनी कलाबाज़ी के साथ
एक ऊंची उड़ान-
फिर वे खो गयीं अदृश्य
अनंत आकाश में !
*
मैंने नहीं मारा इच्छा को
कि -
वो बेचारी तो
खुद ही अमर नहीं !
*
मेरे खून से ख़तम हो रहा है लोहा
ऐसा डॉक्टर ने कहा -
मुझे लगा
बढ़ रहा है हर दिन
*
मैं फ़्रांस हूँ और यह असंभव है कि मैं कभी साइबेरिया हो जाऊं !
मेरे गुम्बदों पर सोने के तार जड़े हुए हैं और मेरे अस्तित्व पर बर्फ नहीं गिरती .
मेरा हर श्वास नूतन है
विश्व के कुछ हिस्सों के लिए प्रेरक
कुछ के लिए घातक हूं मैं
मेरे प्रति तटस्थ दृष्टिकोण रखना असंभव है
संपर्क - "baabusha" <baabusha@gmail.com>
टिप्पणियाँ
अद्भुत और विलक्षण शब्द विन्यास ! घाट की ओर उतरती भोर के धुंधलके में डूबी सीढ़ियों जैसी कविताये ! आभार ,अशोक जी का प्रस्तुतीकरण के लिए और बबूषा जी को बधाई !
" आखिरी बात तो अभी कही जानी है
यह जो कुछ कहा है
आखिरी बात कहने के लिए ही कहा है।
आखिरी बात तो दोस्त
बरसात की तरह कही जाएगी
बौछारों में
और जो परनाले चलेंगे
पिछली तमाम बातें उनमें बह जाएंगी।
बातों -बातों में बातों की
बेबुनियाद इमारतें ढह जाएंगी
फिर उसके बाद कोई बात कहने की
ज़रूरत नहीं रह जाएगी
आखिरी बात कहने के लिए ही
जिए जा रहा हूँ
जीता रहूँगा
आखिरी बात कहे जाने तक"
1999
इनके लिखे शब्द जब भी निगाह से गुजरते हैं...
सहज ही ठहरने की बेचैनी से भर देते हैं...
कवि बाबुषा से बहुत उम्मीदें हैं..
बधाई ..
आभार अशोक जी...
बबूषा की कविताएँ इस तरह से पहली बार पढने को मिली है।
अपनी कहन में नये पन के साथ अच्छी कविताएँ हैं
बाबुषा को पढ़ने का सुख अलग है . बेशकीमती कविताएँ हैं ...
साभार
असीम