प्रांजल धर की कविताएँ
प्रांजल हिन्दी की युवतम पीढ़ी के उन कवियों में से हैं जिनकी काव्यचेतना एक तरफ अद्यतन चिताओं और विडम्बनाओं से जुड़ती है तो दूसरी तरह उसकी जड़ें बहुत गहराई से अपनी परंपरा से जीवन रस लेती हैं. विश्व साहित्य के गहरे अध्येता प्रांजल साहित्य के अलावा दर्शन, राजनीति और अन्य विषयों की भी गहरी समझ रखते हैं. उनकी कविताओं में एक खास तरह का विट बेहद तरल रूप में आता है जो उनकी अभिव्यक्ति को और अधिक मारक बनाता है. उनके यहाँ जोर जादूई बिम्बों के सहारे चौंकाने पर नहीं है. बल्कि विडंबनाओं को तार-तार कर देने वाले सहज लेकिन मानीखेज बिम्ब उनकी कविताओं की खासियत हैं. "वक्त की आधी सड़ी पीठ से लिपटता एक कबूतर/ खोजने लगता ख़तो-किताबत में गुम कोई चीज़ " जैसे प्रयोग उनकी अभिव्यंजना की ताकत बताते हैं. यहाँ प्रस्तुत कविताओं को पढ़ते हुए आप इस कवि की संवेदना के स्रोतों और संभावना के आयामों का पता पा सकते हैं.
परिचय- मई 1982 में उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में जन्मे प्रांजल की कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित और प्रकाशित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर ' समर शेष है ' पुस्तक का संपादन। ' नया ज्ञानोदय ' और ' जनसंदेश टाइम्स ' समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार । वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार, वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान तथा पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार।
बिखरन
रिस-रिस कर टपकतीं गीली भावनाओं की तेज़ाबी बूँदें,
पढ़ता हूँ इस टपकन की बारीक लकीरों को
ओढ़ता काल्पनिक अपनी मुक्ति के विचारों को
रेशमी एक चादर की तरह,
बैठ जाता कभी रंगीन अतीत के बासी किसी फूल पर,
धूल से सनी मधुमक्खी की मानिन्द
कि स्थगित हो जाती चिर यात्रा समय के विशालकाय वाहन की,
ठहर जातीं श्वेत-श्याम घड़ियाँ
और ठहर जाता मैं भी।
रूमानी भी नहीं यह स्थगन।
फ्लैशबैक में चलती एक मुर्दा कैसेट,
कैसेट चलती और चलता ठहराव भी...
वक्त की आधी सड़ी पीठ से लिपटता एक कबूतर
खोजने लगता ख़तो-किताबत में गुम कोई चीज़
हाथ जाता पसीज
खोजता जाता, खोजता ही जाता...
अचानक सृजन की कारुणिक चीत्कारों का कोलाहल
गिरता रात के अँधेरों पर,
बिजलियों से निचुड़कर टपकती हुई
रोशनी की बूँदों की तरह।
गर्मियों में भी काँपने लगता भीतर का बिम्ब
जाग उठतीं ठुमरियाँ
हिलोर लेती, वंचना की जघन्य मादकता
बहुत शीतल घृणा से भर उठता मन।
कहाँ चला जाऊँ दूर इस नरक से,
जहाँ यह कोलाहल भी न हो!
एक झीनी लकीर रेंगती आरी का तरह
और कटता चला जाता विश्वासों का कल्पवृक्ष
कटती जातीं उसकी कोमल टहनियाँ
कुछ अठन्नियाँ, चवन्नियाँ
बच रहतीं बारम्बार – रिश्तों की।
छिटक जातीं रोशनी की ये फूटकर बूँदें
हृदय की विशाल मरुभूमियों पर
मीठे जल का कोई सोता नहीं दूर तक जहाँ
मन बूँदों को जीने लगता और बूँदें मन हो जातीं
एक दूसरे में जीने लगते दोनों - मन और बूँदें।
फिर बूँद-बूँद करके नि:शेष हो जाता मन
महाकाय खालीपन और निर्वात ही बन जाता नियति
बूँदों की नियति - विलोपन।
और मन की... बिखरन!
यही बिखरन रह जाती बाकी
कन्धों पर सवार होकर
और फिर गूँजने लगता
सृजन की कारुणिक चीत्कारों का कोलाहल...
.
न कोई उम्मीद, न कोई...
उम्मीदों की लम्बी पथरीली सड़क पर चलते हुए
हर मोड़ पर खड़ा हो जाता हूँ अचेत प्रश्नाकुल-सा
प्रतीक्षा भी नहीं करता किसी की
अपेक्षा तो इतनी भी नहीं कि कोई पूछ ले हाल-चाल
कोई कहे कि ध्यान रखो खाने-पीने का
कहे कोई कि पान, तमाखू, बीड़ी या सिगरेट
तबियत के लिए बहुत ही नुकसानदेह है...
मुराही मत करो
कि खाना दोनों जून वक्त पर खाया करो,
अपेक्षा यह भी नहीं कि अक्सर खराब रहती तबियत का
लिहाज करके दो टेबलेट ले आए कोई,
कोई काढ़ा बना दे, लगी हो सर्दी जब
या खाँसियों के दौरान रात में ओढ़ा दे कोई कंबल
जब लात मारकर अनजाने स्वप्नों के दौरान उसे
दूर, बहुत दूर, फेंक देता हूँ
आजादी को उतारते हुए सोई रगों में अपनी,
कई बार तो चारपाई के नीचे भी पड़ा मिलता कंबल!
उम्मीद तो यह भी नहीं कि मौके-बेमौके कोई
दे दे उधार, सौ-पचास...
हाँ, सौ-पचास ही, ताकि देने वाले को भी कष्ट न हो बड़ा,
कई बार हजार की नोट भले ही पड़ी हो जेब में
लेकिन बस के किराये के लिए दस-पाँच रुपयों की
फुटकर ज़रूरत आन पड़ती है,
कौन कंडक्टर जहमत मोल ले हज़ार की नोट को
तोड़ने की, दो-चार की एक टिकट के लिए...
वैलेंटाइन डे पर किसी को फूल देने की
कोई भी उम्मीद स्वयं से बहुत बड़ा छलावा है
कौन लेगा वह फूल
फूल चाहे जिस रंग का हो – लाल, सफेद या पीला गुलाब!
छलावा तो यह भी कुछ कम नहीं
कि फूल तो दूर, काँटे भी न चुभाता कोई...
न ही यह चाहता हूँ कि कोई पाँच रुपये की एक क़लम
मेरे जन्मदिन पर मुझे उपहार में दे दे
जो मेरी ही रहे सर्वदा के लिए
न ही यह अपेक्षा कि गिरूँ सड़क पर तो उठा दे कोई
आती-जाती बेतहाशा भीड़ के बीच!
नाउम्मीदी की इस दुनिया में कितने कम लोग रह गए हैं
जिनसे कोई आशा रख सके यह मन
आशंकारहित आशा!
दुनिया के जाल-बवाल से थककर फिर भी कई बार
ऐसी उम्मीद पैदा हो जाती भीतर
कि कोई एक कप चाय बनाकर दे दे,
जिसमें चीनी ज़रूरत से थोड़ी ज़्यादा ही हो...
बिल्कुल देसी चाय! देर तक उबली हुई!!
और वह चाय पीते हुए खँगाल सकूँ जीवन को।
पैसों के लिए परदेस
परदेस रहते वे चार पैसे कमाने के लिए
ऐसा नहीं कि अच्छा लगता उन्हें
बहुत थोड़े-से पैसों के लिए
घर-परिवार और माटी से बिछोह;
खेतों, कुँओं और रिश्तों से दूरी!
यह भी नहीं कि वे
स्वामी हैं अपार धन की अपरिमित भूख के
या विलासी इच्छाओं में विचरण करने की
अतृप्त कामना भरी पड़ी उनके भीतर,
या फोर्ब्स के अमीरों में गिने जाना चाहते वे!
उनके पास ऐसा बहुत कुछ होता कहने के लिए
जिसे कहा ही नहीं जा सकता,
धीमे-धीमे वे चुप्पियों के कब्रिस्तान हो जाते,
तानाशाही के संविधान हो जाते,
एक बहुत लम्बी नींद में सोने से पहले ही
बुरी तरह सो जाते...!
खो जाते बाजार की क्रूरता में।
फिर कौन करना ही चाहे इन खोए हुए
सस्ते आदमियों की ख़ोज!
वे भी नहीं, जो उनके हिस्से की
जिन्दगी भी जी जाते हैं
सिर्फ पैसों के लिए।
कलाकार की शून्यता
विघटन की कष्टमय प्रक्रिया,
आघात देने वाले सहज प्रतीक
हवा साँस में ली, हवा में साँस ली,
तब गाकर उभरी
कलाकार मक़बूल के भीतर पसरी शून्यता,
व्यक्त न कर पाती कोई ज्यामितिक आकृति जिसे
छोटा पड़ जाता हर कैनवास,
हर रंग साबित होता फीका
और नाप न पाता कोई भी दर्जी
जिसके 'बेतुके' आकार को, व्योम से विस्तार को
सांस्कृतिक निरक्षरता कौंध जाती
कला-मर्मज्ञों के चेहरों पर
मानो वक्त की आधी सड़ी पीठ पर
मरा हुआ एक कबूतर बैठा हो।
...और बगलें झाँकते मर्मज्ञ-जन,
कुछ और न बन पाने की
ठोस वज़ह के चलते बने,
बनते गये कला-पारखी, धीमे-धीमे...।
कलाकार को मानसिक बीमारी है
इसीलिए भरसक कोशिश ज़ारी है उसकी,
शून्यता उघाड़ने की,
रेंगती रहती उँगलियाँ
आड़ी-तिरछी, गोल-गोल
शून्य की उलझी-चिपकी परतों को खोल-खोल।
पर न उभर पाते
'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता...' के द्वन्द्व।
फिर नाकामयाबी !
फिर चला गया मन !!
दुर्बलता के रसातल में !!!
क्यों चला गया ? वह भी फिर से !
चिंघाड़ते हाथी दौड़ पड़ते
घोड़ों के उसके चित्रों पर,
मन में खिली आशा की फसलों पर
जाग जातीं स्त्री-दमन की
ऐतिहासिक श्रृंखलाएँ,
न जाने कितनी
उल्टी-सीधी, भूली-बिसरी कथाएँ।
उभरता एक घोड़ा भी
विचारों की तख़्ती पर
जो अपने ही मेहनतकश वैभव के
बोझ तले दबा है,
बेतुका है चेहरा उसका और चाल बोझिल-सी
धीमी, मन्द, थकी और निरुपाय !
उसे हाँकने वाली तेज़रफ़्तार पीढ़ी में
कलियों का अर्थ फूल, फूल का पका फल
फलों का वृक्ष और वृक्षों का बीज लगाया जाता है
कुछ-कुछ बीमा कम्पनियों-सा
गणित करतीं जो मौत के मुनाफ़े का
ज़िन्दगी बची रहने के बावजूद।
कलाकार की दिमाग़ी गलियों में
बन्द पड़ी हैं स्ट्रीटलाइटें, ख़राब हैं शायद।
और टूटन !
लौटती हुई बाढ़ से आक्रान्त किसी बच्चे-सी
बह गया हो भाई जिसका पिछली ही किसी बाढ़ में
चेहरे पर एक लोकतांत्रिक भय,
और लोहे की काल्पनिक एक छड़ हाथों में
पीटता है जिससे वह
बुद्धि के शीतोष्ण मैदान में उगी
परजीवी घासों को, क्रीत विश्वासों को।
सुबह तब्दील हो जाता है
एक उभयलिंगी केंचुए में
अपार पुंसत्व का स्वामी वह कलाकार।
रेंगकर सुरंग खोदता, न जाने क्या खोजता
मेज पर जल रही मद्धम रोशनी में
बिखरकर गिर पड़ती किताबों की गड्डी
ढहे हुए सोवियत संघ-सी।
बन्द सभी दरख़्त, ख़ामोश हैं कोयलें
कौए बदहवास, रो रही गौरैया
घबराए पक्षियों की निस्तब्धता पसर जाती
लौटी पाती में छिपी
बासी वेदना की ताज़ा लकीरों-सी।
उलट जाती दिशा जिसमें शब्दों के अर्थों की !
चटाई में लिपटा खड़ा है, घर के सीलन भरे
गहरे तहख़ाने में
वामपन्थी स्टण्ट। दीमकों से घिरा हुआ।
घर की छत शोभायमान है
प्लास्टिक की 'ग्लोबलाइज्ड' पानी-टंकी से।
निहारता है कलाकार
पंखुड़ियाँ बिखरी हैं फूलों की,
कुछ असमय तोड़ी कलियाँ भी
टंकी के आसपास।
यह मकबूल का मानसिक जल-प्लवन है...
उठता है, जागता है, दौड़ता है, भागता है
कूदता है, फाँदता है, हारता है, मारता है
और तराजू बन जाता उसका बेचैन मन
इस पलड़े में क्षोभ, पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़
और सहारों की कमी का ज़ोरदार खटका उस ओर
पट्टी बँधी की बँधी हुई न्यायदेवी की आँखों पर !
मज़ाक लगता सम्पादकीय, ख़बरें विज्ञापन
धन के ऊँचे-ऊँचे ढेरों पर बैठे कारनामों के !
दिमाग़ी गलियाँ और भी सँकरी हो जातीं
गिर पड़ते स्ट्रीटलाइटों के मोटे-मोटे लौह-स्तम्भ
और नामुम्किन हो जाती अभिव्यक्ति शून्यता की,
शून्य हो जाता कलाकार मकबूल।
स्वयं।
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सम्पर्क : 2710, भूतल, डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009मोबाइल- 09990665881ईमेल- pranjaldhar@gmail.com
टिप्पणियाँ
गहरी संवेदनाएं और उससे भी उत्कृष्ट भाषिक संरचना..... टूटते हुए मन को अभिव्यक्त करने की बहुत बढ़िया कोशिश.....बहुत बहुत बधाइयाँ!
जिनसे कोई आशा रख सके यह मन
आशंकारहित आशा!
दुनिया के जाल-बवाल से थककर फिर भी कई बार
ऐसी उम्मीद पैदा हो जाती भीतर
कि कोई एक कप चाय बनाकर दे दे,
जिसमें चीनी ज़रूरत से थोड़ी ज़्यादा ही हो...
बिल्कुल देसी चाय! देर तक उबली हुई!!
और वह चाय पीते हुए खँगाल सकूँ जीवन को।
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सचमुच..., जीवन को खंगालना बेहद ज़रूरी है।
वही समझ भी देगा, और जीवन दृष्टि भी.
कविता ने उन दिनों की यादें ताजा कर दीं जब अपना घर छोड़कर लोग कुछ कर गुजरने के लिए परदेस आते हैं.. चुनौती को सामना करने के लिए कई प्रलोभनों से मुंह मोड़ना पड़ता है.. इसका जिक्र बखूबी करते नजर आए हैं प्रांजल
आशुतोष शुक्ल
- prasanjit
चटाई में लिपटा खड़ा है, घर के सीलन भरे
गहरे तहख़ाने में
वामपन्थी स्टण्ट। दीमकों से घिरा हुआ।
घर की छत शोभायमान है
प्लास्टिक की 'ग्लोबलाइज्ड' पानी-टंकी से।
निहारता है कलाकार
पंखुड़ियाँ बिखरी हैं फूलों की,
कुछ असमय तोड़ी कलियाँ भी
टंकी के आसपास।
गहरे तहख़ाने में
वामपन्थी स्टण्ट। दीमकों से घिरा हुआ।
घर की छत शोभायमान है
प्लास्टिक की 'ग्लोबलाइज्ड' पानी-टंकी से।
निहारता है कलाकार
पंखुड़ियाँ बिखरी हैं फूलों की,
कुछ असमय तोड़ी कलियाँ भी
टंकी के आसपास।
यह मकबूल का मानसिक जल-प्लवन है...
Alok
अर्जुन मीना
अर्जुन मीना
Naresh Dwivedi (Suggu)