शिरीष कुमार मौर्य की ताज़ा कविताएँ
शिरीष से लगभग छीनी गयी इन कविताओं को असुविधा पर पेश करते हुए एक अजीब सा संतोष हो रहा है. वह उन लोगों में से हैं जिनसे मेरा परिचय केवल कविताओं के माध्यम से है. बिना अब तक रु-ब-रू मिले, खुद को उनका पाठक कहते हुए मुझे वैसा ही संतोष मिलता है जैसा खुद को उनका दोस्त कहते हुए. उनका ब्लॉग अनुनाद, उन शुरुआती ब्लाग्स में से था/है , जिन्होंने हिन्दी और विश्व कविता को उसके पूरे ठाट के साथ पेश किया और अब भी कर रहा है. समकालीन कविता के अपने हमउम्रों के बीच शिरीष को मैंने हमेशा ऐसा कवि पाया, जिस तक पहुंचना जितना आसान होता है उससे बाहर निकलना उतना ही मुश्किल. जो सबसे पहली चीज़ आकर्षित करती है वह है उनकी भाषा. पहले पाठ में एकदम सीधी-सादी लगती, लेकिन जैसे-जैसे आप उसमें उतरते हैं, वह अर्थों की ऐसी परतें खोलती चलती है कि उसके लिए मैं शायद विष्णु खरे द्वारा कहीं उपयोग किया गया मुहाविरा 'धोखादेह सादगी' उपयोग करता हूँ. अपने कई समकालीनों से इतर उनका पद्य (और गद्य भी) उद्धरणों और बिम्बों के बोझ से बोझिल नहीं. उनके बिम्ब न तो सुदूर किसी देश से आते हैं न ही पीली पड़ चुकी उन उदास किताबों से जिनके अर्थ झड चुके हैं. वे इसी दुनिया से आते हैं. संवेदनाओं का उनका संसार इसी दुनिया को बचा ले जाने और बेहतर बनाने की जद्दोजेहद से बना है. यहीं से उपजता है उनका कमिटमेंट. वह अपनी प्रतिबद्धता को कहीं छुपाने या धुंधला करने की कोशिश नहीं करते, न ही उसे शोर की कृत्रिमता के साथ दर्ज कराने की जिद.
अगर इन्हीं कविताओं को देखें तो 'जीवन के तलघर में' मुश्किल होते जा रहे समय में ज़िंदा रहने की वजूहात में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ वह कुत्ता भी शामिल है जिसे वह अपना छोटा बेटा कहते हैं. यह एक पूरी दुनिया का बिम्ब है, जिसे लिए वह अगले दिन संभावनाओं के साथ उठते हैं. इसीलिए इस बाज़ार समय में भी ऐसे कवि के लिए 'चमड़ी बदल पाना मुमकिन नहीं'. लिखने को तो न जाने कितना लिखा जाना चाहिए, पर अब तक न लिख पाने के आलस्य और शर्म के बरक्स (हालांकि बकौल शिरीष 'जो जितना प्यारा हो उस पर लिखना उतना मुश्किल है') अभी बस यह वादा कि उनकी समग्र कविताओं पर एक आलेख जल्द ही.
जीवन के तलघर में
अपने बेटे की आंखों में चमकता हूं मैं
कभी मुस्तक़बिल
तो कभी अतीत बनकर
उसे मेरी ज़रूरत है
उसकी ख़ातिर मेरे हाड़-मांस को अभी
बचे रहना है भरपूर
पत्नी की आंखों में भर आता पानी
मेरा प्यासा कंठ जब पुकारता है उसे
मेरी ऐंठती मांस-पेशियों को
अपनी असम्भव कोमल उंगलियों से
राहत देना चाहती है वह
जोड़ना चाहती है
टूटती-छूटती सांसों को
उसकी समकालीन कोशिशों में
धीरे-धीरे कराहता है मेरा आगत
विगत विकट चिंघाड़ता है
मेरे कुछ नहीं कर रहे हाथों को को
अकथ-अबूझ प्यार में बंद आंखों के साथ
लगातार चाटता है मेरा कुत्ता
जिसे मैं पता नहीं कैसे और कब
छोटा बेटा कहने लगा हूं
जीवन होता जा रहा निजी इतना
कि भुतहा होने के क़रीब
तय कर दी गई दिनचर्या के तहत
जब मैं सो जाता हूं
एक मृत शरीर की गंध आती है मुझसे
रात मर जाने के बाद
सुबह मैं जी पाता हूं
संसार में जाता हुआ कुछ उम्मीदों-सम्भावनाओं से लदा
जीवन के तलघर में विकल पुकारती है मेरी आत्मा –
‘चमड़ी बदल पाना अब मुमकिन नहीं मियां तुम्हारे लिए
मुमकिन है
तो बस गए दिनों की ग़र्द झाड़ देना
और कपड़े बदल लेना जो दुनिया ने दिए तुमको’
रास्ता बनवाने वाले रास्ता बनाने वाले
रास्ता बनवाने वाले
रास्ता बनवा रहे हैं
रास्ता बनाने वाले
रास्ता बना रहे हैं
बनवाने वाले रास्ते से दूर खड़े हैं
मिट्टी-गिट्टी-डामर वगैरह कच्चे माल से उन्हें कपड़े गंदे होने
और चोट लगने का ख़तरा है
बनाने वाले रास्ते में धंसे पड़े हैं
किसी-किसी के पांव में पट्टी बंधी है
गर्म डामर का धुंआ पी रहे हैं
कितनी विचित्र और सार्थक बात है यह
कि कहीं न जाते हुए
वे अपना जीवन
रास्ता बनाने में जी रहे है
ऐसे ही बनवाए जा रहे और बनाए जा रहे
कुछ रास्तों से गुज़रता मैं
दरअसल अब महीनों से स्थगित अपनी कविता की तरफ़
लौट आने के बारे में सोच रहा हूं
लिखवाने वाले बैठे हैं
दूर टेलीविज़न स्टूडियो के सोफ़ों पर
समारोहों में सभाध्यक्षों के आसन पर
विचार और संवेदना की वाहक कहानेवाली पत्रिकाओं के
पन्नों पर
वे लिखवा रहे हैं
भले मुग़ालता हो उन्हें पर वे लिखवा रहे हैं
लिखने वाले परेशान हैं
एक ही रास्ते को बार-बार खोदते
तोड़ते-बनाते
वे कहीं पहुंच नहीं रहे है
मुझ जैसे कुछ तो पहुंचना भी नहीं चाहते कहीं
आख़िर को कविता
कहीं से निकलकर
कहीं पहुंच जाना भर तो नहीं
अभी
इस रात की जिस मेज़ पर
मैं अपनी कविता की तरफ़ लौट आने के बारे में सोच रहा हूं
वहां भूरी-भूरी ख़ाक-धूल और स्याही ताल के बीच
कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े पर
एक बड़ी-सी लाल चींटी है
अपने बेटे के मैग्नीफाइंग ग्लास से देखता हूं उसे मैं
उत्सुकता से भरकर
उसके अगले पैर उठे हुए हैं
थराथरा रही हैं दो पतली सूंड़ें
कठोर है उसका कब्ज़े जैसा जबड़ा
वह बेहद लाल है
और काट भी सकती है
अपनी तरफ़ बढ़ते किसी भी
गुस्ताख़ हाथ पर।
नए मठों में नए गढ़ों में
नए मठों में
मेरे भीतर उलझनों के कई पुराने चेहरे हैं
कुछ नए आकार ले रहे हैं
नए गढ़ों में
मेरे भीतर हिम्मत के भी चेहरे हैं अनेक
अजेय मित्र-मेधाएं
रक्तालोक स्नात अगुआ कुछ
कुछ उठे हुए हाथ
तनी हुई मुट्ठी
वो भी अपने गढ़े तीन सितारों की छांव तले
बरसों पहले की गहराती रातों में
सफ़ेद दीवारों पर ये सब बनाता घूमता था मैं
बरसों बाद
मुझे इस सबके सपने आते हैं
असेम्बलिंग-डीअसेम्बलिंग
कंस्ट्रक्शन-डीकंस्ट्रक्शन का काम नहीं है यह
समूचे को रचने और बचाने की सबसे कठिन-कोमल लगातार जद्दोजहद है एक
जितनी प्यारी उतनी कठोर
इधर देखता हूं
अभिव्यक्ति के मठों और गढ़ों में घुसकर
वहां झिलमिला रहे
कितने ही कम्प्यूटर
कितने ही सजे-बजे कमरों में
कितनी ही सजी-धजी मेज़ों पर
समझाते हैं मिल-जुल कर
हम जैसों को –
‘चेहरे नहीं, उठे हुए हाथ नहीं, तनी हुई मुट्ठी नहीं
विचार के अब गुप्तांग निकल आए हैं
बहस उन पर होनी चाहिए’
टिप्पणियाँ
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और हां ये हमारी छीनझपट भी अपने में एक जटिल कविता ही है।
धनुष पर चिड़िया' देवताले जी की ही किताब है, पर कवर बता रहा है कि संपादक आप हैं :)
चेतना पर इनकी स्पर्शानुभूति इन कविताओं की ताकत है.
अशोक गुप्ता
इस उदीयमान युवा कवि की शख्सियत के विकास के साक्षी होने का हमारा सौभाग्य है l.रिश्ते में तो हम शिरीष के चाचा है पर कविताये पढ़ कर भतीजा बनने को जी चाहता है l
उम्दा कविताओ के लिए शिरीष को बधाई ,और अशोक जी को धन्यवाद
मेरे कुछ नहीं कर रहे हाथों को को
अकथ-अबूझ प्याहर में बंद आंखों के साथ
लगातार चाटता है मेरा कुत्ता
जिसे मैं पता नहीं कैसे और कब
छोटा बेटा कहने लगा हूं
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इंसान से इंसान के बीच बढती जा रही दूरी का मार्मिक दर्द
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रास्ता_ बनवाने वाले रास्ता_ बनाने वाले
अभी
इस रात की जिस मेज़ पर
मैं अपनी कविता की तरफ़ लौट आने के बारे में सोच रहा हूं
वहां भूरी-भूरी ख़ाक-धूल और स्याहही ताल के बीच
कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े पर
एक बड़ी-सी लाल चींटी है
अपने बेटे के मैग्नीलफाइंग ग्ला स से देखता हूं उसे मैं
उत्सुबकता से भरकर
उसके अगले पैर उठे हुए हैं
थराथरा रही हैं दो पतली सूंड़ें
कठोर है उसका कब्ज़ेत जैसा जबड़ा
वह बेहद लाल है
और काट भी सकती है
अपनी तरफ़ बढ़ते किसी भी
गुस्तारख़ हाथ पर।
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कविता में दिखाई देता यह प्रतिरोध!!! शिरीष भाई से इतनी अच्छी कविताएँ छीनकर पढवाने का शुक्रिया...