'अकथ कहानी प्रेम की' के बहाने
संतो धोखा कासू कहियो...
- मार्तंड प्रगल्भ
कबीर वैष्णव थे . आरंभिक आधुनिक काल में विकसित होती देशज आधुनिकता ने जो मूल्य सामने रखा कबीर उसके अग्रदूत थे, इनकी भक्ति काव्योक्त थी. और इनकी वैष्णवता जाति-कुल निरपेक्ष थी. कबीर के समय से विकसित होती देशज आधुनिकता को अवरुद्ध किया औपनिवेशिक शासन ने. इस औपनिवेशिक शासन ने अपना एक ज्ञान-कांड रचा जिसके प्रभुत्व में फिर से जाति व्यवस्था प्रतिष्ठित हुई. इस ज्ञानकाण्ड ने देशज ज्ञान के विकास को रोक दिया. इसने पूरे भारतीय चिंतन में एक विच्छेद पैदा किया. और इस प्रकार पश्चिमी या यूरोपीय आधुनिकता के बाध्यकारी मूल्यों को हमारे यहाँ प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गयी. लेकिन कबीर के समय से विकसित होती देशज आधुनिकता को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़े जा रहे राजनीतिक संघर्ष में पुनः स्थापित करने की कोशिश गांधी ने की. गांधी भी वैष्णव थे. जाति-कुल निरपेक्ष कबीर की वैष्णवता को ‘वैष्णव जन ते...’ के रूपक में उन्होंने लोकप्रिय किया. इसकी ग्राह्यता खुद इसकी लोकप्रियता में थी. जिस प्रकार कबीर शाक्त को नकार कर वैष्णव हुए थे, उसी प्रकार जिन क्रान्तिकारियों ने शाक्त चिंतन से प्रेरणा ली उसकी बनिस्पत वैष्णव गांधी की देशज आधुनिक मुहावरों को जनता ने अपने ज्यादा करीब पाया क्योंकि जनता के धार्मिक अस्तित्व ने पहले ही गैर- वैष्णव परम्परा को एक लिहाज से अस्वीकार कर दिया था. इस प्रकार गांधी ने औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा के प्रतिरोध का नेतृत्व किया. आज भी हमें गांधी के इस चिंतन पद्धति को समझना होगा तभी कल्याण है. पुरुषोत्तम अग्रवाल की अकथ कहानी यही है. और इस कहानी में रूकावट डालने वाले तत्वों खासकर ‘मार्क्सवाद’ और गौण रूप से वर्त्तमान दलित चिंतन को कथित रूप से ‘औपनिवेशिक’ ज्ञानकाण्ड की उपज बता दिया गया है. कुछ लोगों ने ध्यान दिलाया है कि इस अकथ कहानी में जासूसी कहानियों का सा प्रभाव है. और जासूसी कहानियाँ तो लोकप्रिय हुई उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ में अंग्रेजी कहानियों की नक़ल से और उस नक़ल के बांगला संस्करणों के अनुवाद से. अब अगर आख्यान रूपों का कुछ ऐतिहासिक सन्दर्भ होता है तो इस जासूसी कहानी का भी सन्दर्भ है ,और कहना होगा कि यह सन्दर्भ औपनिवेशिक ही है. पश्चिमी ही है. यूरोपीय ही है. लेकिन काल में बिलकुल हमारे आपके साथ. इस नवउपनिवेशवाद और वैश्विक आवारा पूंजी के दौर में!
आइये इस कहानी को थोडा और करीब से पढ़ें. लेकिन इसके पहले मैं एक कहानी और सुनाता हूँ. भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के आधुनिक विद्वानों में सम्मानीय हैं. कुछ लोगों के लिए ‘हिंदी नवजागरण’ के अग्रदूत हैं. हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग भी है. भारतेंदु भक्त थे. वैष्णव थे. परिवार इनका व्यापारियों का था. अग्रवाल थे. साथ ही राजभक्त भी थे. पश्चिम के ढंग की आधुनिकता भी आकर्षित करती थी. इन्होने भक्ति विषयक कवितायें लिखी हैं. साम्प्रदायिक आधार पर उत्तर-भक्तमाल की रचना भी की है. नारद भक्ति सूत्र और शांडिल्य भक्ति सूत्र का अनुवाद भी किया है क्रमशः ‘तदीय सर्वस्व’ और ‘भक्ति सूत्र वैजयंती’ के नाम से. उन्होंने ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’ नाम से एक लेख भी लिखा था. इस लेख में उन्होंने घोषित किया कि भारत का प्रकृत धर्म वैष्णवता ही है. अभी वैष्णव धर्म में थोड़े संस्कार की ज़रूरत है क्योंकि ये बाह्य आडम्बरों में ज्यादा घिरे हैं. फिर क्रिस्तान, ब्राह्म, मुसलमान आदि में भक्ति की प्रधानता से ये सब लोग भी वैष्णवों के सादृश्य हैं. इसलिए “ बाह्य आग्रहों को छोड़कर केवल आतंरिक उन्नत प्रेममय भक्ति का प्रचार करें, देखें कि दिग्दिगंत से हरिनाम की कैसी ध्वनि उठती है और विधर्मीगण भी इसको सर झुकाते हैं कि नहीं और सिक्ख, कबीरपंथी आदि अनेक दल के हिन्दुगण भी सब आप से आप बैर छोड़ कर इस उन्नत समाज में मिल जाते हैं कि नहीं”. इस प्रकार भारतेंदु के ‘भारतवर्ष’ के लिए एक ‘प्रकृत धर्म’ चाहिए था और वह ‘राष्ट्रधर्म’ वैष्णवता थी. वैष्णव मत की उनकी समझदारी अधिकाँश में कृष्ण भक्ति संप्रदायों से बनी थी. इस समझ को उन्होंने राष्ट्र की तत्कालीन बन रही समझदारी से जोड़ दिया. वैष्णवता को उन्होंने सनातन भारतीय आत्म के रूप में समझाने की कोशिश की. इस पहचान में भारतेंदु पूर्व और उनके समकालीन पश्चिमी भारतविदों के धर्म सम्बन्धी चिंतन का प्रभाव भी है. और इस प्रकार वैष्णवता तत्कालीन राष्ट्र सम्बन्धी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भारतेंदु के लिए एक राजनीतिक मुहावरा भी था. इस निबंध में भारतेंदु ने वैष्णवमत को भारत का प्रकृत धर्म बताते हुए इसके ३६ कारण भी गिनवाए हैं, यह कहते हुए कि: “जो कोई कहे कि यह तुम कैसे कहते हो कि वैष्णव मत ही भारत का प्रकृत धर्म है तो उसके उत्तर में हम स्पष्ट कहेंगे कि वैष्णव मत ही भारतवर्ष का भूत है और वह भारतवर्ष का हड्डी लहू में मिल गया है. इस के अनेक प्रमाण हैं, क्रम से सुनिए” और पहला ही प्रमाण हमारे भक्ति विषयक चिंतन के लिए मजेदार तर्क देता है जिसमे भारतेंदु कहते हैं, “पहले तो कबीर, दादू, सिक्ख, बाउल आदि जितने पंथ हैं सब वैष्णवों की शाखा प्रशाखाएँ हैं और भारतवर्ष इन पंथों से छाया हुआ है.” अभी हमने ऊपर देखा कि सिक्ख, कबीर पंथी आदि अनेक दल के हिन्दूगण वैष्णव नहीं थे अभी सब वैष्णव हो गये! और विधर्मियों को भी वैष्णव हो ही जाना चाहिए क्योंकि मूल रूप से उनकी भक्ति भी वैष्णव थी.इसी प्रकार बाकी सारे कारणों को पढ़ने से साफ़ हो जाता है कि विभिन्न धार्मिक मतों को ऐसे ही वैष्णवता के विशाल छत्र के नीचे उन्होंने एक करने की कोशिश की थी.
इसके बावजूद भारतेंदु की वैष्णवता तरल पहचान वाली थी. वैष्णवता की इस तरलता में कैथोलिक भाव का अन्वेषण और उसकी प्रतिष्ठा ग्रियर्सन ने की. ग्रियर्सन के यहाँ वैष्णव भक्ति की कृष्ण मार्गी समझदारी को राम की भक्ति के साथ मिलाकर एक भारतीय धर्म की कल्पना हुई जिसमे विक्टोरियन समर्पण की छौंक शामिल है. भक्ति के उत्स में नेस्टोरियन ईसाईयों के प्रभाव वाली मान्यता तो कड़ी आलोचनाओं के प्रभाव में उन्होंने लगभग छोड़ दी लेकिन भक्ति के आदर्श के रूप में तुलसी के राम को उन्होंने नहीं छोड़ा. तुलसी सचमुच के ‘राष्ट्रकवि’ थे और बाकी सारे कवियों में सबसे ज्यादा कैथोलिक थे. इसलिए ब्रिटिश राज को यहाँ कैथोलिक धर्म के प्रचार की और मिशनरी कार्यों की वैसी ज़रूरत नहीं है. समझना सिर्फ यह है कि इस देश के लोगों के हृदय पर राज करने वाली राम भक्ति भावना को समझा जाए और उसके सहारे कैथोलिक धर्म और राजभक्ति के सन्देश को लोगों तक ले जाया जाए. औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा और उसके राज्य प्रचारित स्वरुप में यह एक बड़ा परिवर्तन था. भक्ति के इस ‘राष्ट्रीय चरित्र’ को बल मिला खुद हिंदी के द्विवेदीयुगीन विचारकों के द्वारा.
द्विवेदी युग की मर्यादा और नैतिकता पर इस प्रचारित वैष्णव भक्ति का बहुत ही बड़ा प्रभाव पड़ा. और इस मर्यादा और नैतिकता के सबसे बड़े सिद्धांतकार के रूप में रामचंद्र शुक्ल ने वैष्णव भक्ति की कृष्णमार्गी परिभाषा में तुलसी के राम को प्रतिष्ठित किया और उसमे कैथोलिक ईसाई तत्वों के विदेशीपन को एक सिरे से नकारते हुए इसे भारत के स्वाभाविक और प्रकृत भक्ति के रूप में स्थापित कर दिया. इसी वजह से कबीरादि निर्गुनियों की भक्ति को विदेशी पद्धति की भक्ति कह कर खारिज किया गया. राष्ट्र-धर्म के रूप में हिंदू सगुण राम भक्ति को पहचान देने के साथ ही यह विदेशी राज के खिलाफ संघर्ष की एक हिंदू-राष्ट्रवादी परिणति थी. इसका राष्ट्रीय आख्यान मुसलमानों को सामने रख कर निर्मित हुआ और तात्कालिक कैथोलिक विदेशीपन को भी चुनौती मिल गयी. इस काम में द्विवेदी युगीन कवि,संपादक , विचारक सब शामिल थे. और इसी वैष्णव व्यक्ति की मुक्ति के स्वर छायावाद में भी प्रखर थे. अपने तमाम नयेपन के वावजूद छायावाद वैष्णव था. मुख्यधारा की गांधीवादी राजनीति और छायावादी साहित्य दोनों ही वैष्णव थे. देशभक्ति की परिभाषा वैष्णव थी. औपनिवेशिक राज्य से संघर्ष के हथियार भी औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा से ही निकले थे.
यहाँ तक कि बड़थ्वाल ने निर्गुण सम्प्रदाय के कवियों-भक्तों में एक सुचिंतित दर्शन की खोज करते हुए उसे उपनिषदों की धारा से जोड़ दिया और साबित किया कि भारत का प्रकृत धर्म यही है और यह भी वैष्णव ही है. और सूफी प्रभावों को भी परोक्ष रूप से भारतीय बताया गया क्यूंकि सूफी दर्शन भी भारतीय वेदान्त से ही विकसित हुआ था! इस प्रकार कबीरादी निर्गुनिये भी मिलाजुलाकर उसी राष्ट्रीय आख्यान में शामिल कर लिए गए. भक्ति अभी भी ‘मुसलमान’ आक्रमण की प्रतिक्रिया में आई मानी जाती थी और इस प्रकार ब्रिटिश राज में भी यही भक्ति हमें संबल दे सकती थी!
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस लिहाज से भक्ति संबन्धिनी चिंतन में एक पैराडाइम शिफ्ट लाया. उन्होंने भक्ति को भारतीय चिन्ताधारा के स्वाभाविक विकास के रूप में दिखाया और इस में ब्राह्मणेतर धर्मों के लोकपरक तत्वों का योगदान निरुपित किया. चूँकि यह चिन्ताधारा ईसा के हजार साल के आसपास खुद ही लोक की ओर झुकने लगी थी अतः यह भक्ति भी लोकधर्म थी. जब भक्ति लोक धर्म थी तो निश्चित ही वैष्णव धर्म भी लोक परक था.लेकिन इस बात से द्विवेदी जी पूरी तरह सहमत नहीं थे कि संतमत भी उसी तरह वैष्णव था जैसा सगुण भक्ति. द्विवेदी जी के लोकधर्म संबंधी चिंतन ने उन्हें मध्यकालीन बोध को समझने के लिए मजबूर किया.और इसलिए द्विवेदी जी के पास उस तरह का कोई राष्ट्र-धर्म नहीं था. इस लोक संबन्धिनी चिंतन के कारण उनमें राष्ट्रवादी इतिहास दृष्टि से मुक्ति के प्रयास भी दिखाई पड़ते हैं. द्विवेदी जी पर मोनियर विलियम्स के पॉपुलर धर्म संबन्धिनी चिंतन का प्रभाव भी देखा जा सकता है. द्विवेदी जी ने मुसलमान आक्रमण की प्रतिक्रिया में भक्ति के उद्भव या प्रसार को नकारा और भक्ति को दक्षिण से उत्तर तक एक आंदोलन की तरह दिखाने का प्रयास किया.भक्ति को भक्ति आंदोलन के आख्यान की तरह देखने की शुरुआत तो बड़थ्वाल के यहाँ ही हो जाती है.लेकिन उसका व्यापक निरूपण और उसकी सैद्धांतिकी द्विवेदी जी के लेखन में रूप ग्रहण करती है और तब से आज तक भक्ति को एक आंदोलन की तरह ही देखा जाता है. द्विवेदी जी ने भक्ति आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन के आख्यान की तरह देखा था. जिस ग्रियर्सन के हवाले से भक्ति-आंदोलन का ज़िक्र द्विवेदी जी ने किया है उस हवाले में ग्रियर्सन ने आंदोलन या मूवमेंट के बदले भक्ति को एक विचार या आईडिया लिखा था. लेकिन इस आईडिया या विचार को ‘क्रांति’ या ‘रिवोल्यूशन’ ज़रूर कहा था. बहरहाल राष्ट्रीय आंदोलन के आख्यान में भक्ति को अवस्थित किया गया, दक्षिण से उत्तर में आकर नोटिस प्राप्त भक्ति के चार संप्रदायों और भक्तमाल की परम्परा ने इसमें अपना योगदान भी दिया.
औपनिवेशिक दौर के इन चिन्तनों के परिप्रेक्ष्य में अग्रवाल जी की कहानी ने नया नुक्ता ढूंढ निकाला है. पहले भक्ति के वैष्णव परिभाषा में रामभक्ति को स्थापित किया गया था. अब अग्रवाल जी का कहना है कि उसमें कबीर को रखा जाए. क्योंकि रामानंदी वैष्णवता ही देशज आधुनिकता की प्रभावी धारा है न कि स्मार्त वैष्णवता जो कि तुलसी की है. भक्ति सम्बन्धी पूर्ववर्ती सभी चिंतन औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा से प्रभावित हैं और इसलिए औपिवेशिक आधुनिकता के गढ़े गए आख्यान हैं. जबकि कबीर को समझने के लिए हमें देशज आधुनिकता को समझना होगा. देशज आधुनिकता की शुरुआत पंद्रहवीं सदी के आसपास हुए सौदागरी पूंजीवाद के विकास के साथ जुड़ता है. व्यापारियों की स्वायत्तता ने पुरानी वर्णव्यवस्था पर आघात किया. उनके ‘फेयर प्ले’ के एथिक्स ने आधुनिक मूल्य बोध को जन्म दिया. जहां व्यक्ति सत्ता को जन्म आधारित भेदभाव से मुक्त करने का प्रयास शामिल है. इस विकसित होती आधुनिकता में पहले से विकसित होते काव्योक्त वैष्णवता, जो नारद भक्तिसूत्र में और रामानंद के चिंतन में दिखाई देता है, का महत्वपूर्ण योगदान है. भक्ति काव्य को सगुण-निर्गुण के द्विविभाजन में देखना बाद के पंथों के साहित्य के प्रभाव में है. खुद भक्त इस विभाजन को नहीं मानते हैं. उस वक्त दरअसल एक भक्ति का लोकवृत्त बन रहा था. यह लोक वृत्त आधुनिक परिघटना है और अलग अलग समाजों में अलग अलग तरीके से उसी समय विकसित हो रहा था. यह लोकवृत्त आधिकारिक और निजी वृत्त से अलग सार्वजनिक विषयों पर स्वायत्त ढंग से चितन करता है. कबीर की बानी इसी लोकवृत्त का सबसे प्रखर स्वर था.
सौदागरी पूँजीवाद के विकास और उसके कारण संभव हुए भक्ति रूपी लोकजागरण की चर्चा रामविलास शर्मा ने विस्तार से की है. १९५० के दशक में रूसी भारतविदों के बीच यूरोपीय पुनर्जागरण या रेनेसंस के साथ भक्ति काल की सादृश्यता पर गहन और विस्तृत चर्चा हुई थी. इस विस्तृत चर्चा पर विद्वानों का ध्यान कम ही गया है. इन चर्चाओं का संक्षिप्त परिचय हमें इ.पी. चेलिशोव की किताब ‘भारतीय साहित्य की समस्याएं’ में मिलता है. कहना न होगा कि ये सभी मूलरूप से मार्क्सवादी चिन्तक ही थे. और इनमें से किसी ने भी भारतीय समाज को बर्फ में जमे समाज की तरह नहीं देखा था. लेकिन ‘आरंभिक आधुनिकता’ सम्बन्धी वर्त्तमान पश्चिमी चिंतन से ख़ासा प्रभावित पुरुषोत्तम अग्रवाल मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि की आलोचना पूरी किताब में करते ही चले गए हैं. लेकिन देशज आधुनिकता की अपनी ऐतिहासिक समझदारी के लिए इन्हें भी सौदागरी पूँजीवाद का सहारा लेना ही पड़ता है! सौदागरी पूंजीवाद के विकास के साथ नगरों के विकास ने दस्तकारों का जो नया वर्ग तैयार किया और साथ ही समाज के निम्न समझी जाने वाली जातियों में जो आत्मविश्वास और स्वतंत्र चेतना पैदा किया उसके साथ कबीर जैसे संत भक्तों का जो सम्बन्ध है वह केवल ‘फेयर प्ले’ के मुहावरे से नहीं समझा जा सकता है. इस सम्बन्ध की समझदारी हमें ग्राम्शी जैसे मार्क्सवादियों से ही मिल सकती है. नामवरसिंह ने बहुत पहले इस ओर संकेत भी किया था. जब तक इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं समझा जाता तब तक हम यह भी नहीं समझ पायेंगे कि दसवीं शताब्दी में बनते नारद भक्ति सूत्र और रामानंद की वैष्णवता से कबीर की भक्ति कैसे ज्यादा मूलगामी हो जाती है. और तब हमें भक्ति के शास्त्रोक्त और काव्योक्त विभाजन का आशय भी स्पष्ट हो जाएगा.दरअसल भक्ति के निर्गुण और सगुण विभाजन में छिपे भक्ति के भिन्न सामाजिक आधारों को भक्ति विषयक चिंतन से विस्थापित करने का प्रयास है काव्योक्त और शास्त्रोक्त के संस्कृत काव्य शास्त्रीय मुहावरे को सामने लाना. और तब हमें यह भी समझ आएगा कि वर्णाश्रम की कठोर आलोचना करने वाले नाथपंथियों का अग्रवाल की कहानी में कोई जगह क्यूँ नहीं है. पूरी कहानी में नाथपंथ का ज़िक्र आता है केवल यह बताने में कि निर्गुण पंथियों की नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण को नाथपंथियों का प्रभाव मानना चाहिए! जाति निरपेक्ष भक्ति के लिए नारदीय सूत्र और नारी विरोधी दृष्टि के लिए नाथपंथी! इस कहानी की उलटबांसी को क्या कहियेगा. प्रेम के लिए भी जिम्मेदार नारदीय भक्ति, सूफियों का प्रभाव नहीं !
आइये देखते हैं कि रामानंदी वैष्णवता के ऊपरी जाति विरोध को कबीर ने क्यूँ कर मूलगामी जातिविरोध में बदल दिया. कुछ ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के उल्लेख उन परिवर्तनों को सामने लाने वाले क्रियाशील व्यक्तिओं के अपने वर्णन में नहीं मिलते. और ऎसी स्थिति में ही ऐतिहासिक दृष्टि की ज़रूरत होती है. ग्राम्शी ने श्रमशील समूह के खंडित विश्वदृष्टि की चर्चा अपने जेल में लिखे नोटबुक में किया है. हम यहाँ रुक कर उसे थोडा पढ़ने की कोशिश करते हैं. जेल में लिखे अपने ‘नोट-बुक’ में ग्राम्शी ने ‘व्यवहार के दर्शन’ की लंबी चर्चा की है| इस चर्चा में उन्होंने ‘सामान्य बोध’ पर विस्तार से अपनी बात रखी है| ‘जनसमूह में कार्यरत व्यक्ति’, सामान्य कामगार दैनन्दिन कार्यों में लगा होता है| फिर भी इस दुनिया के बारे में उसकी कुछ अपनी समझदारी होती ही है| इसी दुनिया के बारे में जिसे वह अपने श्रम से बदलता रहता है| लेकिन उसके पास ‘अपने व्यावहारिक कार्यों को लेकर कोई साफ़ सैद्धांतिक चेतना नहीं होती’| बल्कि-
“उसकी सैद्धांतिक समझदारी ऐतिहासिक रूप से उसके क्रिया-कलापों से भिन्न हो सकती है| कोई संभवतः कह ही सकता है कि उसकी दो सैद्धांतिक चेतनाएं (या एक अंतर्विरोधी चेतना) होती है: एक जो उसके क्रियाकलापों में अन्तर्निहित होती है और प्रकारांतर से उसे वास्तविक दुनिया के व्यावहारिक रूपांतरण में रत अपने सभी साथी कामगारों से एक करती है; और एक जिसे वह अतीत से बिना किसी आलोचना के ग्रहण करता है और जो सतही रूप से व्यक्त और मुखर होती है|”
यह अन्तर्निहित चेतना और सतही रूप से व्यक्त चेतना का अंतर्विरोध दो विरोधी सामाजिक समूहों का प्रतिबिम्बन है| कहना न होगा कि-
“ इस प्रकार इस सामजिक समूह [व्यापक जन समूह वाला एक सबाल्टर्न समूह] की इस दुनिया के बारे में अपनी धारणा होती है,चाहे वह बीज रूप में ही हो;एक धारणा जो अपने को कर्म में अभिव्यक्त करती है ,लेकिन सामयिक रूप से और कभी कभी ही, एक कौंध बनकर- जब वह समूह एक आवयविक पूर्णता से कार्य करता है| लेकिन इसी समूह की एक और धारणा होती है जो उनकी अपनी नहीं होती और अधीनस्थता या बौद्धिक अधीनता के कारण दूसरे समूह से उधार ली गयी होती है; और यह मुखर रूप से इसी धारणा को स्वीकार करता है और खुद मानता है कि इसी का अनुकरण करता है, क्योंकि ‘सामान्य समय’ में वह इसी के अनुसार काम करता है- अर्थात जब इनका आचरण स्वतंत्र या स्वायत्त न हो कर अधीनता या मातहती(submissive and subordinate) में होता है|”
इस प्रकार सबाल्टर्न वर्ग का ‘सामान्य बोध’ आतंरिक रूप से अंतर्विरोधग्रस्त और बिखरा हुआ होता है| यह सामान्य बोध द्विविधाग्रस्त,बहुआयामी और अंतर्विरोधी होता है तथा इसमे कोई परिवर्तन किसी निश्चित ऐतिहासिक प्रक्रिया में प्रभुत्वशाली और मातहत वर्गों के आपसी संबंधों के बदलाव से ही संभव होता है| ‘सामान्य-बोध’ के उस स्वायत्त तत्त्व को जो किसी सबाल्टर्न समूह के क्रियाकलापों में अन्तर्निहित होता है और उनके सभी सदस्यों में अपने श्रम के कारण दुनिया को बदलने के कारण होता है और “सामान्य समय” में प्रभुत्वशाली वर्गों के विचारधारात्मक वर्चस्व के कारण प्रकट नही हो पाता, ग्राम्शी कई बार ‘साधु-बोध’(good sense) कहते हैं| ‘सामान्य-बोध’ के इन दो तत्त्वों के बीच नए उभरने वाले धर्म-मतों और दर्शनों के कारण हमेशा एक गतिशील अंतर्क्रिया भी होती रहती है| जब नए उभरने वाले दर्शन और धर्म मत समाज में एक खास प्रभुत्व बना लेते हैं तो फिर इनका प्रभाव सामान्य बोध के उस तत्त्व पर पड़ता है जो उधार ली गयी होती है| हर दार्शनिक धारा और धर्म-मत की छाया और उसके कुछ अवशेष सामान्य-बोध का हिस्सा बनते चलते हैं| और इस प्रकार सामान्य बोध या ‘लोक-मत’ ऐतिहासिक रूप से रूपांतरित होता चलता है और खुद को विचारों और दर्शनों से समृद्ध भी करता चलता है| इस प्रक्रिया में कई बार लोकमत की अन्तर्निहित धारणा एक ज्यादा सुसंगत विश्वदृष्टि पाने का प्रयास करती है| ग्राम्शी ने सामान्य बोध को ‘दर्शन का लोकगीत’(फोकलोर ऑफ फिलोसोफी) कहा है|सामान्य बोध भविष्य के लोकगीतों के निर्माता होते हैं| जो किसी खास देश-काल में लोकप्रिय ज्ञान का ज्यादा बद्ध(रिजिड) चरण होता है| यहाँ ग्राम्शी न केवल सामान्य बोध या लोक-मत के ऐतिहासिक प्रक्रम को रेखांकित कर रहे है बल्कि लोकगीतों के स्वरुप और उनके इतिहास के अध्ययन का भी सूत्र हमारे सामने रख रहे हैं|
नयी धार्मिक और दार्शनिक धाराएँ प्रभुत्वशाली और अधीनस्थ वर्गों के संघर्ष से अछूती नही रहती| इन वर्गों के बीच किसी खास ऐतिहासिक क्षण में ‘परिस्थितिवश’ जब संघर्ष एक खास गतिशीलता प्राप्त कर लेता है तो सामान्य बोध का स्वायत्त तत्त्व अपनी उपस्थिति पुरजोर तरीके से अभिव्यक्त करने लगता है| यह श्रम में अन्तर्निहित धारणा की उधार ली गयी धारणा पर एक विजय होती है| यह श्रम करने वालों की परिस्थितियों में हुए एक आधारभूत परिवर्तन के कारण संभव होता है और जिसके फलस्वरूप उनकी स्थिति में आयी सापेक्षिक स्वतन्त्रता उनके सामान्य बोध के स्वायत्त तत्त्व को एक आत्मविश्वास से भर देती है| जब-जब ऐसी स्थिति आती है समाज के संकट(क्राइसिस) की अभिव्यक्ति समाज के दो भिन्न विश्वासों,दो भिन्न धर्मों और दो भिन्न विश्व-दृष्टियों में बँट जाने के डर में होने लगती है| ऐसी ही परिस्थिति में ‘लोक-धर्म’ शास्त्र का ‘विकल्प’ बन कर सामने आती है| और तब नए धर्मों और दर्शनों का फिर से बनना और अपने को पुनर्व्यवस्थित किया जाना शुरू होता है, ताकि पूरे सामाजिक व्यवस्था में फिर से एक विचारधारात्मक एका बनाया जा सके| यह या तो नए आधारों पर ज्यादा प्रगतिशील हो सकता है या फिर अपनी खोई हुई सत्ता को फिर से पाने की कोशिश में पुराने आधार की तरफ पुनरागमन हो सकता है| संत-भक्ति के ज्यादा स्वायत्त और ‘अनुभवसम्मत विवेकवाद’ का धीरे-धीरे भक्ति के ज्यादा शास्त्रीय और वर्चस्व की विचारधारा में पर्यवसन ऐसी ही एक प्रक्रिया थी| इस प्रक्रिया का पहला चरण निश्चित रूप से लोक-धर्म का शास्त्र के विकल्प के रूप में सामने आना था|
धर्म की ऊपर-ऊपर की एकता भी केवल भ्रम होती है| भक्ति युगीन वैष्णव धर्म भी कहने को ही एक ही था| न केवल उसके भीतर अनेक अंतर-धाराएँ थीं बल्कि वह समाज के भिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न था| किसानों का वैष्णव धर्म एक था, कारीगरों का दूसर तो पंडितों का तीसरा| इसलिए चेतना के साथ धर्म के रिश्तों का अध्ययन एक ही धर्म-मत के विभिन्न रूपों के बीच की भिन्नता को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए| धर्मों के आतंरिक अंतर्विरोध समाज के विभिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ रखते हैं. एक ओर धर्म की एक प्रवृति समाज के लिए सार्वभौम नैतिक आचारसंहिता बनाने की कोशिश करती है और दूसरी ओर इस सार्वभौमिक संहिता के वर्चस्व के नकार की प्रक्रिया भी चलती रहती है. और महत्वपूर्ण यह है कि विभिन्न सामाजिक समूहों में प्रचलित धार्मिक विश्वासों और आचार प्रक्रियाओं से उन अन्तर्निहित तत्त्वों को सामने लाना चाहिए जो धर्म के उन रूपों में वर्चस्वशाली रूप के विरोध में होते हैं. वस्तुतः द्विवेदी जी मध्ययुगीन धर्म-साधनाओं के इतिहास को लिखते समय यही काम कर रहे थे. उन प्रतिरोधी तत्त्वों की पहचान के कुछ संकेत ग्राम्शी ने किये थे| प्रत्यक्ष अनुभव को महत्व देना, ‘खास हद तक “प्रयोगात्मकता” और यथार्थ का सीधा अन्वेषण, हालांकि आनुभविक और सीमित’.ये सब विशेषताएं संतों के यहाँ है. और तब हमें मानना होगा कि भक्ति का लोकवृत्त भी अंतर्विरोधों से परे नहीं था. इसलिए रामानंदी वैष्णवता को कबीर ने खासा रेडिकल बना दिया था.और इस प्रकार समाज का क्राइसिस दो भिन्न मतों में बंट गया था. निर्गुण संतमत और सगुण वैष्णवता. धीरे धीरे भक्ति के आधार क्षेत्र में जब परिवर्तन हुआ और छोटे वनिक, दस्तकारों और निम्न-अछूत जातिओं के यहाँ से निकल कर भक्ति किसानों और ब्राह्मणों के यहाँ पहुंची तो साथ ही साथ नए पुनर्व्यवस्था का प्रयास भी शुरू हुआ. बड़ा किसान वर्ग अभी भी सामंती विचारधारा के प्रभाव में था और इस प्रकार पहले से ज़ारी वर्चस्वशील धार्मिक मतों के प्रभाव में था. यह वर्ग हालाँकि दसवीं- ग्यारहवीं सदी से शुरू हुई राज्य निर्माण प्रक्रियाओं और तदनुरूप स्थानीयताओं के पार-क्षेत्रीय मुहावरों और धार्मिक प्रतीकों और धर्म-मतों के प्रभाव में भी थी, और इसलिए पहले की तुलना में निर्गुण मत के लिए कहीं ज्यादा तैयार थी. परन्तु अपनी सामाजिक अवस्थिति के कारण कृष्ण या राम भक्ति के सगुण मतों की तरफ ज्यादा आकर्षित हुई. इस लिए भक्ति का लोक वृत्त भी दो भिन्न सामाजिक आधारों के लिए विमर्श के विषयों और संग्रह त्याग के निर्णयों में भी अंतर्विभाजित थी. ऐसी स्थिति में भक्ति को काव्योक्त और शास्त्रोक्त वर्गीकरणों को एक सिरे से नकारने की ज़रूरत है. और तब जाकर हमें मुक्तिबोध के यह कहने में कि सगुण भक्ति ने निर्गुण भक्ति के क्रांतिकारी दांत उखाड डाले, की सच्चाई मालूम चलती है.
भक्ति के लोकवृत्त की ज्यादा प्रभावशाली निर्गुण धारा के सगुण धारा में परिवर्तन की प्रक्रिया ऐसे ही समझ में आ सकती है. अकारण नहीं कि एक बार बड़े किसान वर्ग पर अपनी छाप छोडने के बाद धार्मिक मतों में एक व्यवस्था आ गयी और भक्ति के वास्तविक उन्मेष ने अपनी ऊर्जा खो दी. इस प्रक्रिया में देशी भाषाओं के क्रांतिकारी इतिहास ने भी एक चरण पूरा कर लिया. और साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रज का पार-क्षेत्रीय स्वरुप स्थापित हुआ. मुग़ल सत्ता के पतन के साथ नए क्षेत्रीय राज्य अपनी वैधता के लिए ब्राह्मणों की ओर मुड़े और साहित्य लोकवृत्त से निकल कर दरबारी आधिकारिक वृत्त में चला गया. यह हिंदी की नयी साहित्यिक संस्कृति थी. और अब भक्ति का धार्मिक आवरण ज्यादा लौकिक श्रृंगार में अभिव्यक्त होने लगा. राधा-कृष्ण तो सुमिरन के बहाने थे.
परन्तु ऐसा नहीं है कि किसी समय हुए व्यापक सामाजिक उथल-पुथल के बाद समाज से वह चेतना गायब हो जाती है. अलग-अलग स्वरूपों में वह समाज के भीतर ज़िंदा रहती है. भक्ति के परवर्ती पंथों के स्वरुप और उन पंथों के सामजिक आधारों के विश्लेषण से इस बात का पता चलता है. हांलाकि यह एक ज़टिल प्रक्रिया है. डेविड लौरेंज़न ने ‘कबीर पंथ और सामजिक प्रतिरोध’ के अपने अध्ययन में इसे समझने की कोशिश की है. लोरेंज़न लिखते हैं: “इस अध्याय की मूल संकल्पना यह है कि कबीर की शिक्षा में सामजिक और धार्मिक विरोध के महत्वपूर्ण तत्व पाए जाते हैं. इन तत्वों का मूल अभिप्राय और प्रकार्य चाहे जो रहा हो, ये पंथ के अनुयायियों द्वारा –अधिकतर शूद्रों, अछूतों और आदिवासियों जैसे हाशिए के समूहों द्वारा –ऊंच-नीच पर आधारित जाति-व्यवस्था की कुछ पहलुओं को नकारने के लिए प्रयोग में लाये गए, साथ ही कबीरपंथ में अपनी सदस्यता के द्वारा वे उसी समाज के भीतर आत्मसात होने के अनुकूल भी बने. वो ‘संस्कृतिकरण’ के द्वारा अपनी स्थिति को ‘बदलने’ की कोशिश भी करते हैं. जितना ही वे उच्च जाति की विचारधारा को आत्मसात करते हैं उतना ही अपनी सामजिक स्थिति को ‘ऊंचा’ उठाने का प्रयास करते हैं.लेकिन वास्तव में, ये सामजिक समूह यह आशा नहीं कर सकते कि दूसरों की निगाहों में उनकी जातिगत स्थिति नाटकीय ढंग से ऊपर उठ जाएगी. फिर भी, कबीरपंथ की अधिक समतावादी विचारधारा में उन्हें एक सकारात्मक आत्मछवि प्राप्त होती है जो कि रूढ़ी-ग्रस्त ब्राह्मणवादी हिंदू परम्परा के द्वारा आरोपित जन्मजात निम्न स्थिति को अस्वीकार करती है.” कबीर की लोकप्रियता कबीर पंथों के बाहर भी बहुत रहती आई है. और इस मामले में भी उसके भिन्न सामाजिक आधारों को औपनिवेशिक काल में भी रेखांकित किया गया था. ऊपर ग्रियर्सन को लिखे एक मिशनरी की चिट्ठी का जो ज़िक्र पाद टिप्पणी में है उससे भी इस बात का पता चलता है.
आइये हम फिर नारद भक्ति के कबीर द्वारा स्वीकार पर कुछ करीब से विचार करते हैं. कबीर ने नारदीय भक्ति को ठीक वैसे ही स्वीकार नहीं किया. नारद भक्ति सूत्र में भक्ति के लिए जाति-कुल और कर्मकांड तथा लोक-वेद दोनों को अस्वीकार किया था, ऐसा उन सूत्रों को समग्रता में पढने पर सही नहीं लगता. भक्ति के क्षेत्र में समानता की चर्चा तो एक हद तक रामानुजम के यहाँ भी थी.फिर भक्ति के आदर्श उदाहरण के रूप में गोपियों की कृष्ण के प्रति प्रेम को बताया गया है. लेकिन ये प्रेम कैसा होगा और किस तरीके से होगा इसका उल्लेख नहीं किया गया है क्यूंकि यहाँ सूत्रकार सीधे भागवत में वर्णित गोपी-कृष्ण लीला को अप्रत्यक्ष रूप से संदर्भित मान रहा होता है. इसके अलावा निम्न सूत्रों को पढ़ने से हमें धर्म और वर्णाश्रम की कबीर द्वारा की गयी मूलगामी आलोचना और नारद भक्ति सूत्रों के अंतर का भी पता चलता है.
११.लोकवेदेषु तदानुकूलाचारणं तद्विरोधिषूदासीनता ||
१२.भवतु निश्चयदाढ्रयांदृध्व शास्त्ररक्षणम् ||
१३. अन्यथा पतित्यशंकया ||
१४. लोकोऽपि तावदेव भोजनादि व्यापारस्वत्वाशारीरधारणावधि||
६१. न तदसिद्धौ लोक्व्यवहारो हेयः किन्तु फल्त्यागास्तत्साधनं च कार्यमेव||
६२. स्त्रीधननास्तिकचरित्रं न श्रवणीयम्|| (फिर भी स्त्री विरोधी दृष्टि नाथपंथियों का प्रभाव बताते हैं अग्रवाल!)
७३. वादो नाव्लाभ्यः( कबीर खूब वाद करते हैं, और यह अग्रवाल के लिए नाथों का प्रभाव नहीं है!)
७६. भक्तिशास्त्राणि माननीयानि तादुद्द्धोधककर्माणि करणीयानि||
भक्ति के उद्भव और प्रसार के दो आख्यान हमें पुराने वक्त में मिलते हैं. इसमे पहला संस्कृत में है और दूसरा देशी भाषा में. संस्कृत वाला आख्यान ‘भागवत महात्म्य’ में है जो कि ‘भागवत’ के पहले जोड़ा गया है और निश्चित रूप से सतरहवीं शताब्दी के आसपास से पहले का नहीं है. खुद भक्ति ने नारद को कहा था:
उत्पन्न द्रविड़ं साहम वृद्धिम कर्णाटके गता|
क्वचितक्वचित महाराष्ट्रे गुर्जर जिणॅतमगता ||
और फिर वृन्दावन में आने से वह पुनः जवान हो गयी है लेकिन उसके कर्म और ज्ञान नामक दो पुत्र अभी भी वृद्ध हैं और अचेत पड़े हैं यमुना के तट पर. इनके सुस्थित होने के लिए भी भागवत पाठ की ज़रूरत होती है.
दूसरा है एक दोहा जिसे सब जानते हैं लेकिन कोई यह नहीं कह पाता कि इसका उल्लेख पहले पहल कहाँ हुआ था:
भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानंद
प्रगट किया कबीर ने सप्तद्वीप नवखण्ड.
पहला दोहा तो निश्चित रूप से किसी कृष्ण भक्ति के सम्प्रदाय का लिखा हुआ है. और दूसरा शायद किसी निर्गुणपंथी का. परन्तु भक्ति के दक्षिण में उत्पन्न होने और उत्तर में आने को लेकर दोनों ही आख्यान सहमत हैं. भक्ति के इन दोनों आख्यानों से जुड़े हुए कुछ वाजिब प्रश्न हैं. अगर ये आख्यान औपनिवेशिक काल के पहले के हैं तो फिर निश्चित है कि औपनिवेशिक काल के पहले ही भक्ति के दो आख्यान थे, भक्ति के दो स्वरूपों पर चर्चा थी. एक कबीर को भक्ति का अग्रदूत बताता है दूसरा ब्रजभूमि को. हो सकता है यह केवल साम्प्रदायिक प्रतिष्ठा का सवाल हो. यह भी हो सकता है कि भक्ति के दो स्वरुप आरम्भ से ही लोगों के सामने स्पष्ट हो. इन दोनों आख्यानों से ही भक्ति के सगुण-निर्गुण स्वरूपों का प्रश्न भी जुड़ा है. कुछ विद्वान मानते हैं कि भक्त कवियों के यहाँ सगुण-निर्गुण दो भिन्न भक्ति की अवधारणाएं थीं और यह केवल भगवान के दो भिन्न स्वरूपों से आगे जाकर खास सामाजिक आधारों वाली विचारधारा थी. इन दो भिन्न भक्ति अवधारणाओं के निम्न और उच्च जातियों से स्पष्ट संबंद्ध थे. निर्गुण भक्त कवि में सामाजिक प्रतिरोध की चेतना थी. कुछ विद्वानों के अनुसार यह विभाजन पंथ-निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े हैं और इनकी निर्मिति सतरहवीं शताब्दी के अंत और अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ से बननी शुरू हुई थी. कुछ विद्वान इसे औपनिवेशिक ज्ञान कांड की उपज बताते हैं. मिलाजुलाकर अभी भी कोई स्पष्ट मान्यता या मोटा-मोटी समझदारी इस विषय पर बन नहीं पायी है. मनोरंजक बात यह है कि औपनिवेशिक काल में हुए भक्ति विषयक चिंतन में होने वाले परिवर्तनों का पैटर्न भी इन दो आख्यानों में निरुपित भक्ति के स्वरुप की ओर इशारा करते हैं. भारतेंदु के वैष्णव भक्ति से लेकर निर्गुण पंथ और संतमत के क्रांतिकारी अंतर्वस्तु की पहचान तक औपनिवेशिक काल में हुए भक्ति के माइनों में परिवर्तन में भी इन दो आख्यानों की भिन्नता दिखाई देती है. अगर ये आख्यान औपनिवेशिक काल से पूर्व के हैं तो मानना पड़ेगा कि औपनिवेशिक काल के चिंतन की दिशा भिन्न पड़ावों को पार करते हुए औपनिवेशिक पूर्व भक्ति की भिन्न-भिन्न मान्यताओं के आख्यान के करीब ही पहुँच रही थी, निश्चित रूप से अपने नए राजनीतिक उद्देश्यों के साथ. तब फिर औपनिवेशिक पूर्व सामाजिक-राजनीतिक भिन्नताओं की एक धारा औपनिवेशिक काल में भी सक्रिय रही मानी जा सकती है जिसका अलग-अलग स्तरों पर उपनिवेशवाद विरोधी विचारधारा के साथ अलग-अलग अन्तर्क्रियाओं की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. अर्थात औपनिवेशिक राजनैतिक कर्ता(colonial political subject) के रूप में भक्ति पर चिंतन करने वालों और व्यापक जनसमुदाय,जो उस तरह से सीधे औपनिवेशिक शासन के सब्जेक्ट नहीं थे, के चिंतन और प्रतिक्रियाओं के मनोरंजक स्वरुप सामने आ सकते हैं.
इतना तो तय है कि भक्ति के स्वरुप को लेकर चलने वाली उपनिवेशकालीन चर्चा का कुछ सम्बन्ध तो उपनिवेशपूर्व चर्चाओं के पैटर्न से भी है. यहाँ आकार यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि जब हम औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड को सर्वथा आधिकारिक औपनिवेशिक संवेदना की निर्मिति से जोड़ते हैं तो उसे निहायत ही नए संबंद्ध विच्छेदक क्षण(moment of dissociation) के रूप में देखते हैं. यह उत्तरौपनिवेशिक इतिहास दृष्टि का प्राथमिक आधार है. लेकिन क्या औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड ने पहले की ज्ञान परम्पराओं और ज्ञान के लोकपरक आख्यानों को सचमुच ही एक सिरे से बदल दिया? इसी सवाल को रंजीत गुहा ने भी दूसरे तरीके से ‘Dominance without Hegemony’ में उठाया है.
राज की विचारधारा के मूर्तिमान ज्ञानकाण्ड के कारण शुरू हुई राजनीति और उस ज्ञानकाण्ड के बाहर पड़ी जनता के असंबद्ध विचारधारात्मक निर्मिति (loose ideological construct) के बीच क्या सचमुच कोई अंतर नहीं था? क्या सचमुच सूर के भ्रमरगीतों और तुलसी की रचनाओं में मिलने वाला प्रखर निर्गुण विरोध (वैचारिक और सामाजिक), और बाद के पंथों की एक खास सामाजिक पृष्ठभूमि , जिसको ‘कबीरपंथ और सामाजिक प्रतिरोध’ जैसे अध्ययनों में डेविड लोरेंज़न जैसे विद्वानों ने दिखाने की कोशिश की है, का कोई अर्थ नहीं है? क्या अठारहवीं सदी में ब्राह्मणवाद और राज्य सत्ता के संबंद्ध में होने वाले नए परिवर्तनों का चरित्र हमें खुद भक्ति में निहित स्वरूपगत भेद की ओर ध्यान नहीं दिलाता? क्या तब भक्ति के किसी ऐसे लोकवृत्त की कल्पना की जा सकती है जो अंतर्विरोध से रहित हो? क्या भक्ति का सगुण वृत्त खुद आधिकारिक वृत्त के लिए वैचारिक और सामाजिक आधार नहीं रखता था? क्या औपनिवेशिक काल में भक्ति के सगुण राम भक्ति लोक वृत्त का आधिकारिक औपनिवेशिक वृत्त बनना उस खास ऐतिहासिक प्रक्रिया की तार्किक परिणति नहीं है जिसको मुक्तिबोध ने निर्गुण भक्ति के क्रांतिकारी दांत उखाड़ने वाली कह कर सगुण रामभक्ति की ओर इशारा किया था? इस प्रक्रिया को समझे बिना हम उस गलती को भी नहीं समझ पायेंगे जो रंजीत गुहा जैसे सबाल्टर्न इतिहासकार की भक्ति विषयक समझदारी से होती है. इन इतिहासकारों के लिए भक्ति की औपनिवेशिक परिभाषाएँ ही,जिसमे भक्ति को एक सगुण समर्पणवादी सामंती विचारधारा की तरह देखा गया है, व्याख्या का आधार बनती है. इसीलिए ये इतिहासकार भक्ति को सामंती अधीनस्थता की विचारधारा के रूप में देखते हैं और इस एकपक्षीय विचार के कारण औपनिवेशिक अधीनस्थता के लिए पहले से उपलब्द्ध विचारधारा के रूप में इसको निरुपित करते हैं. प्रतिरोध की विचारधारा के रूप में भक्ति का वास्तविक निर्गुण आख्यान उनकी निगाह से गायब रहता है, और इसीलिए औपनिवेशिक प्रभुत्व का भी गैरद्वंद्वात्मक निरूपण हो जाता है. इसलिए ये सबाल्टर्न एक स्तर के बाद बंकिम और गांधी के माध्यम से ही निम्नवर्गीय इतिहास लेखन का दावा करते हैं. और इसी प्रवृत्ति की ओर हिंदी के कुछ विद्वान आलोचक ‘आरंभिक आधुनिकता’ के आख्यान के सहारे पहुंचते हैं. मजेदार बात है की इनके पास सामंतवाद आलोचना की कोई कैटेगरी ही नहीं होती. यहाँ यह भी देखना मजेदार होगा कि औपनिवेशिक ज्ञानकांड के प्रभाव में पैदा हुए राजनीतिक आन्दोलनों ने उपनिवेशपूर्व के सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को कैसे एक निश्चित दिशा प्रदान की और इनका विभिन्न सामाजिक प्रवर्गों के विश्वदृष्टि पर कैसा प्रभाव पड़ा. दरअसल औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड की द्वंद्वात्मकता को समझाने का प्रयास करना ही होगा.
औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड की द्वंद्वात्मकता को समझे बिना ही हम निकोलस डर्क्स जैसे उत्तर-औपनिवेशिक इतिहासकारों की इस मान्यता को मान लेते हैं कि ब्राह्मणवाद औपनिवेशिक प्रशासकों और हिन्दुस्तानी ओफिसिअल ब्राह्मणों की सांठ-गाँठ की उपज है. इसके चलते औपनिवेशिक काल में ब्राह्मणवाद को फिर से खोजा गया. वरना भक्ति के लोकवृत्त के कारण ब्राहमणवाद तो स्वतः ही एक नोर्मेटिव व्यवस्था से अलग कुछ नहीं थी. जातिनिरपेक्ष हिंदू परम्परा ही मुख्य थी. और देशज आधुनिकता में होने वाले परिवर्तनों की दिशा को अवरुद्ध करते हुए औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड ने हमारी अपनी परम्परा से हमें महरूम कर दिया और हमारी राजनितिक प्रक्रियाओं को गलत दिशा प्रदान की. इस औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के खिलाफ कोई लड़े तो वह राजनीतिक और दार्शनिक स्तर पर गांधी !
यह बात तो तय है कि ब्राह्मणवाद एक विचारधारा के रूप में कभी एक सा नहीं था. इतिहास के अलग अलग काल खण्डों में समाज के स्तरीकृत जातिभेदों में परिवर्तन होते रहे हैं. इन परिवर्तनों का सम्बन्ध भूमि पर विभिन्न समूहों के अधिकार और राज्य के निर्माण प्रक्रिया से भी जुड़ा हुआ है. भूमि संबंधों में परिवर्तन के कारण कुछ जातियां वर्णाश्रम में ऊपर चले जाते रहे हैं. नयी व्यापारिक गतिविधियों ने नयी जातियों को वर्णाश्रम में शामिल किया है. परन्तु एक पदानुक्रमिक संरचना के रूप में ब्राहमणवाद, एक शोषणकारी विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद चला आया है. इस विचारधारा का सत्ता तंत्र से भी बहुत करीबी सम्बन्ध रहा है और लगातार शासकीय विचारधारा के रूप में भी प्रभावी रहा है. मध्यकाल में इस्लाम के आगमन के साथ इस शासकीय विचारधारा को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक चुनौती मिली. परन्तु तुर्क-मुग़ल सत्ता ने भी आमतौर पर शासकीय कार्यों में इस विचारधारा को स्वीकार ही किया था. लेकिन राज्य के बदलते स्वरुप और १४वीं १५वीं सदी तक आते आते नगरीकरण और वाणिज्यीकरण की तेज होती प्रक्रियाओं ने ब्राह्मणवादी विचारधारा को कड़ी चुनौती दी. धर्म मत के रूप में भी इस्लाम ने चुनौती पेश की. देश्यभाषाकरण की प्रक्रिया ने कुछ पहले ही साहित्यिक संस्कृति को भी संस्कृत-अपभ्रंश की सार्वत्रिकता और अर्द्ध-सार्वत्रिकता से मुक्त कर दिया था. राज्य के स्वरूपों में होने वाले परिवर्तनों के साथ इस नयी विकसित देश्यभाषाकरण का गहरा रिश्ता है जिसे शेल्डन पोलक ने समझने की कोशिश की है. परन्तु दक्षिण भारत से उत्तर भारत में देश्यभाषाकरण की प्रक्रिया भिन्न थी और इस प्रक्रिया में तुर्कसत्ता के साथ भिन्न संस्कृति के आगमन ने बड़ी भूमिका अदा की थी. यही कारण है दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तरभारत की भक्ति ने भी ज्यादा रेडिकल रुख अपनाया था. वह राज्य और संस्कृति के पोलिटि के दक्षिण भारतीय रूपों से ज्यादा मुक्त भी हो पायी. इसलिए भी भक्ति के उद्भव में इस्लाम के चार आने के ‘प्रभाव’ को चार आने तक सीमित करना भूल है. और इसलिए भी भक्ति के विकास में इस्लाम की भूमिका को भी कम करके आंकना भूल है. इसलिए कबीर जैसे रेडिकल चिंतकों की अकथ कहानी में इस्लाम की भूमिका का अनदेखा किया जाना भूल है. और इसलिए भी गाँधी की देशज आधुनिकता से कबीर की ‘आधुनिकता’ भिन्न विचारसरणी वाली है.
बहरहाल, ब्राह्मणवाद में जो दरार १५वीं सदी के आसपास पैदा हुई उसमे मुग़ल सत्ता के पतन के साथ बदली हुई परिस्थिति में फिर से एक पुनरुत्थान देखने को मिलता है. जो इतिहासकार उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि से उतने आक्रान्त नहीं हैं, उन्होंने इस प्रक्रिया को बखूबी लक्ष्य किया है. बहुत सारे इतिहासकारों को छोड़ भी दिया जाए तो सिर्फ उमा चक्रबर्ती की ‘जेंडरिंग कास्ट’ में उन्होंने दिखाया है कि औपनिवेशिक शासकों ने १८वीं सदी में आरम्भ हुए राज्य के ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया को और ज्यादा तेज किया, तथा उसे संस्कृत के उच्च पाठों के सहारे रिजिड और कोडीफाइ भी किया. लेकिन इस शासकीय प्रक्रिया के बाहर ब्राह्मणवाद का शोषणकारी स्वरुप तब भी ज़ारी था और शासकों के लिए कई जगह मुश्किल निर्णयों का सबब भी बनता था. साथ ही इस शोषण से मुक्ति के संघर्ष भी चल रहे थे. फूले जैसे चिंतकों ने धार्मिक मुहावरों से बाहर जाकर पूरे ब्राह्मणीय संरचना को शोषण की संरचना के रूप में व्याख्यायित किया और उसे अस्वीकार किया. संस्कृतिकरण और सुधारवादी कर्मकांडों की आलोचना की. उन्होंने ब्राह्मणीय संरचना में बद्ध निम्न जातियों की अवरुद्ध ‘सांस्कृतिक कल्पना’ को मुक्त करने का प्रयास किया. धर्म से बाहर जाकर समाज में स्थित सामाजिक और आर्थिक अंतर्विरोधों को जाति व्यवस्था के प्रश्न के केन्द्र में लाया. उनका लेखन उन लोगों से अलग था जो अपनी-अपनी जातियों का इतिहास लिख रहे थे या फिर उच्च जातियों के उन लेखकों से जो जाति को गलत और बाध्यकारी सामंजस्य के रूप में देखते थे. आगे चलकर फूले की परंपरा में पेरियार और अम्बेडकर जैसे चिंतकों ने महती भूमिका निभाई. हम उनके विचारों से संवाद कर सकते हैं, आलोचना कर सकते हैं, उन्हें कई जगह नकार सकते हैं, लेकिन जातिगत शोषण के गांधीवादी हल से तब भी बेहतर स्थिति में उनके चिंतन को पाते हैं. यह अकारण नहीं कि ब्राह्मणवाद के शोषणकारी स्वरुप को ठेठ जिंदगियों से उठाने वाले प्रेमचंद कफ़न की मूलगामी समीक्षा तक पहुंचते हैं और इस प्रकार कोलोनिअल ज्ञानकाण्ड के बाहर पडी रोज़मर्रा की जिंदगियों में उस सत्य को देख लेते हैं जो अग्रवाल और डर्क्स जैसे उत्तरौपनिवेशिक नहीं देख पाते! जाति के साथ भूमि संबंधों को नज़रअंदाज करते हुए उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना भी दरअसल अस्मितामूलक विमर्शकारों और राजनीतिज्ञों की गलती को ही दुहराता है. फिर उपनिवेश विरोधी आंदोलन की भिन्न ध्वनियों को भी अस्वीकार करते हुए गांधी के चिंतन में उसकी सही दिशा तलाश करता है.यह औपनिवेशिक काल के पोलिटिकल कंडीशनिंग का तो नकार है ही वर्तमान पोलिटिकल कंडीशनिंग का भी नकार है. जाति से वर्ग में रूपान्तरण की प्रक्रिया को समझे बिना हम वर्तमान नवउदारवादी-नवउपनिवेशवादी कंडीशंस से लड़ नहीं सकते. और इस प्रकार भारत के अर्द्ध-सामंती अर्द्ध-औपनिवेशिक चरित्र को समझे बिना ब्राह्मणवाद को भी नहीं समझ सकते. आज कोई भी सामजिक समूह वैश्विक पूंजीवाद से बाहर नहीं है. अगर हमें इतिहास से शिक्षा लेना है तो प्रतिरोध की उस धारा से प्रेरणा लेनी होगी जो कबीर आदि के यहाँ अपने श्रम की विचारधारा में निहित थी और धर्म की मूलगामी आलोचना करती थी. जैसे फूले ने जातिव्यवस्था की सामजिक-आर्थिक कंडीशनिंग पर ध्यान दिलाया. कबीर की परम्परा कोई भी हो गांधी की नहीं है. कबीर की देशज आधुनिकता कोई भी हो गांधी की देशज आधुनिकता नहीं थी. फिलहाल इतना ही. अग्रवाल जी की कहानी के दूसरे हिस्सों पर बहस फिर कभी.
मार्तंड प्रगल्भशोधार्थी, भारतीय भाषा केन्द्र.१९,सतलज होस्टल, जे. एन. यु.संपर्क - 9968333032
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