हम दोनों के बीच हारमोनियम एक चरखे की तरह है - हेमंत देवलेकर
हेमंत देवलेकर की ये कवितायें मुझे प्रिय मित्र नीलोत्पल के मार्फ़त मिलीं. इनसे पहले हेमंत भाई को मैं एक सक्रिय रंगकर्मी के रूप में ही अधिक जानता था. उनके सद्य-प्रकाश्य संकलन से ली गयीं इन इन कविताओं से गुजरते हुए आपको उस रंगकर्म के लम्बे अनुभव का असर दिखेगा भी. उनकी कविताओं का संसार बहिष्कृत जनों से बनता है. मालगाड़ी उसका बड़ा प्रतीक बन कर आती है, जिसके आने से स्टेशन पर कोई हलचल नहीं होती. मध्यवर्गीय स्त्रीविमर्श के इस दौर में उन्होंने अपनी कविता के लिए कामवाली बाई के रूप में निम्नवर्गीय किरदार चुना है. हेमंत की कविताओं का शिल्प तो सधा हुआ है ही, साथ में जो बिम्ब वे चुनते हैं वे बेहद आकर्षक और नए हैं जहाँ हारमोनियम एक 'चरखा' है, दरवाजे मानसून की ख़ुशी में 'फूले' हुए हैं और मछलियाँ नदी को सिलने वाले 'धागे' हैं. असुविधा पर हेमंत भाई का स्वागत...
मालगाड़ियों का नेपथ्य
रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में
कहीं नहीं होतीं वे नामज़द।
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं।
स्टेशन के बाहर खड़े
सायकल रिक्शा, आटो, तांगेवालों को
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से।
चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ
कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं
वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी
क्या उन्हें देख धड़का करते हैं?
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा
बुकस्टाल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता
किताबों पर जमी धूल हटाने के लिये।
मालगाड़ियों के आने जाने के वक़्त
पूरा स्टेशन और क़रीब-क़रीब पूरा शहर
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी सा हो जाता है
और इस सौतेले रवैये से
घायल हुई आत्मा के बावजूद
अपनी पीड़ा को अव्यक्त रखते हुए
वे तय करती रहती हैं तमाम दूरियाँ।
भारी-भरकम माल असबाब के साथ
ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा ख़ालीपन।
पैसेंजर ट्रेनों से पहले चल देने की
गुस्ताख़ी कभी नहीं करेंगी वे
पीढ़ियों की दासता ने उन्हें
इतना सहनशील और ख़ामोश बना दिया है।
दो प्लेटफार्मों के बीच छूटी सुनसान पटरियों पर
अंधेरे में आकर जब चुपचाप गुज़र जाती हैं
तब उनकी ज़िंदगी
दुनिया के तमाम मज़दूरों की कहानी लगती है
एक-सी अनाम
एक-सी उपेक्षित
और एक सी इतिहास के पन्नों से
खारिज
पेड़ों का अंतर्मन
कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा ख़ुशी से फूल गया है
खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं हैं
विस्थापित जंगल होते हैं
मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ,
टहनियों पर बैठता हूँ
पेड़ों की खोखल में रहता हूँ किताबें
मैं, जंगल में घिरा हूँ
किंवदंतियों में रहने वाला
आदिम ख़ुशबू से भरा जंगल
कल मौसम की पहली बारिश हुई
और आज यह दरवाज़ा
चैखट में फँसने लगा है
वह बंद होना नहीं चाहता
ठीक दरख़्तों की तरह
एक कटे हुए जिस्म में
पेड़ का खून फिर दौड़ने लगा है
और यह दरवाज़ा बचपन की स्मृतियों में खो गया है
याद आने लगा है
किस तरह वह बाँहें फैलाकर
हज़ारों हथेलियों में समेटा करता था
बारिश को
और झूमने लगता था
वह स्मृतियों में फिर हरा हुआ है।
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
हारमोनियम के उस तरफ़
सुरों को अपनी उंगलियों की थापों से
जगाती हुई तुम बैठी हो
और इस तरफ़
तुम्हारे सुरों में नाद भरने
पर्दे से हवा धोंकता हुआ मैं
हारमोनियम-
किलकारियां भरता, हाथ पैर चलाता
एक नया नवेला बच्चा है लगभग छः महीने का
हम दोनों उसे खिलाने में लगे हुए हैं
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
मेरे तुम्हारे दरम्यान एक बरसाती नदी है
जिसमें राग अनंत लहरें उठाते हैं
हम डूबते हंै उस नदी में
तैरते हैं और गोते लगाते हुए
पकड़ते हंै संतरंगी मछलियों को
हारमोनियम हम दोनों के बीच उस नदी की तरह है
लेकिन क्या तुमने
’यमन’ की सरगम याद करते हुए
कभी ग़ौर से देखा है हारमोनियम को
क्या वह तुम्हें पुल की तरह दिखाई नहीं देता
जिस पर से दौड़-दौड़कर
हम एक-दूसरे के करीब तक पहुँचते हैं
और छुए बिना ही भीग-भीग जाते हैं
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
उसमें शब्द नहीं हैं तो क्या
वह वही भाषा बोलता है
जो मेरी है, तुम्हारी है
हम दोनों के बीच हारमोनियम एक चरखे की तरह है
जो बुन रहा है
बहुत महीन और मुलायम धागे
बाई
शहर की सड़कों पर आजकल
दिखाई देती हैं पीली बसें
नहीं दिखाई देती है तो बस
एक बूढ़ी सी औरत
बिखरे सफेद बालों और
कमर में खोंसी हुई
मैली-कुचैली साड़ी की परवाह न करते हुए
बढ़ती हुई उन घरों की ओर
जहाँ अनमने ढंग से तैयार बच्चांें को
पाठशाला भेजना होता।
बच्चों के वास्ते क्या कुछ नहीं थी वह
सहेली, दादी, मेडम
ऊटपटांग, हरकतोंवाला जोकर
और हिफ़ाज़तदार पुलिस भी
पिटारे में उसके क्या-क्या नहीं होता
गाने, नाच, पुचकारें,
झिड़कियाँ, धमकियाँ, नसीहतें
भीड़-भाड़ से बचाते हुए
बच्चों को एक क़तार में रखने का करिश्मा
उसे आता था
चलते रास्ते बच्चों का पहला पीरियड वही लेती थी।
स्कूल न जाने की ज़िद पर अड़े बच्चों को
बलात् खींचकर ले जाने लगती
तब वह विकराल जाूदगरनी लगती
और जब कभी स्कूल से लौटने में
होती थोड़ी भी देर
तो कई शंकाएँ उस पर उठतीं।
दूर दराज़ रहते अपने नाती-पोतों की कल्पना
वह उन्हीं बच्चों में करती
और भूल जाती रत्ती भर पगार का असंतोष और अकेलापन
ज़िंदगी की बहुत सी पुरानी
और भूली जा चुकी चीज़ों की फ़ेहरिस्त में
शायद उसका पता मिले
वह केवल ‘बाई’ नहीं
एक सभ्यता थी
जो सड़क किनारे की मिट्टी में
गहरे लुप्त हो गई है।
झील
1.
पानी पर एक रास्ता बनाती हुई
गुज़र गई बोट
एक फव्वारा-सा उसका पीछा रहा करता
एक आवाज़ जो उस रास्ते पर
चलकर पहाड़ियों के पीछे
हुई अदृश्य
सिग्नल पर रुकी भीड़-सा
पानी कुछ देर रहा ठहरा
फिर झील में गया मिल
पानी के निचाट सूनेपन में
वह एक बोट
याद की तरह छूट जाती है
2.
पहाड़ी
कालीन की तरह बिछी है झील पर
डबल रोटी के टुकडे़ उछाले जाते हैं
कालीन के नीचे तहख़ानों से
सिर उठाती हैं मछलियाँ
तैरती डबलरोटी टुकड़ों में बिखर जाती है
झील के होंठ मुस्कुराहट की तरह फैलते हैं
3.
झील पर तैरती एक दोपहर
मछलियाँ
अपने सिरों पर
रोशनी के जवारे उगाए
नाचती हुई
चल रहीं
सूर्य के विसर्जन का
यह चल समारोह
4.
पानी को सिलती रहती हैं मछलियाँ
इसलिये पानी कभी उधड़ता या
फटता नहीं
और मछलियों को पता नहीं चलता
कि वे कब धागे बन गई हैं।
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परिचय
जन्म : 11 जुलाई 1972
शैक्षणिक योग्यता : 12वीं उत्तीर्ण प्रथम श्रेणी (उच्चगणित विज्ञान)
रंगकर्म का अनुभव: 1995, शिप्रा संस्कृति संस्थान उज्जैन द्वारा आयोजित ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविर से रंगकर्म की शुरुआत। 2006 तक शिप्रा संस्कृति संस्थान में अभिनय और रंगमंच की अन्य विधाओं में सक्रिय भूमिका
नाटक : अनोखा वरदान, एक था गधा, पांचाली ये वो नहीं, कबीरा खड़ा बजार में, मीरा, मृच्छकटिक, विठ्ठला, अमर शहीद बलराम जोशी (टेलीफिल्म), श्री विनोद मातवणकर के निर्देशन में मराठी नाटकों में अभिनय जुलाई 2006, संगीत नाटक अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा एक माह की युवा रंगकर्मी कार्यशाला पचमढ़ी में देश के सुप्रसि़द्ध रंग आचार्यो के मार्गदर्शन में सघन प्रशिक्षण प्राप्त 2007 से प्रसिद्ध वरिष्ठ रंग निर्देशक श्री अलखनंदन के नाट्य समूह में अभिनय और अन्य विधाओं में सतत् अनुभव. भगवदज्जुकम्, धूर्तसमागम, महानिर्वाण, अजातघर,चारपाई, ताम्रपत्र, काव्यरंग, (रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएं ) में मंच पर और मंच परे,
जून 2008 संगीत नाटक अकादेमी दिल्ली द्वारा द्वितीय चरण हेतु सेंट्रल झोन की 75 दिवसीय युवा रंगकर्म कार्यशाला में विशिष्ट अध्ययन. सर्वश्री के0एन0 पणिक्कर, रतन थियम, एच0 कन्हाईलाल, सावित्रिजी, सतीश आनंद,कमलेश दत्त त्रिपाठी आदि सुविख्यात रंग गुरुओं के मार्गदर्शन में। कार्यशाला में प्रतिभागियों की परीक्षा-प्रस्तुती में दो नाटकों में संगीत निर्देशन ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य शिविरों में मार्गदर्शन गोंडी बोली में प्रस्तुत बाल नाटक डाकघर में गीत लेखन और संगीत निर्देशन
जुलाई 2010 में स्वराज संस्थान, भोपाल द्वारा आयोजित आजाद बांसुरी बाल नाट्य समारोह हेतु नाटक बिरसा मुंडा का लेखन और भारत भवन में मंचन
साहित्यिक गतिविधियां: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन
वर्तमान में : स्वतंत्र रचनाकर्म
स्थायी पता : 17, सौभाग्य, राजेन्द्र नगर, शास्त्री नगर के पास, नीलगंगा, उज्जैन, पिनकोड- 456010 (म0प्र0)
मोबाईल - 090398-05326
टिप्पणियाँ
इस पोस्ट को कम से कम एक हफ्ता रहने देना दोस्त।
अंतिम कविता बड़ी सादी है. सादगी से अपनी बात कहती है.
हेमंत जिस मनोयोग से कविता लिखता है वह इतना बेसबब है कि आप उसमें झाँक कर देख सकते है वह अपनी उम्मीदों के रंग छोड़ता नहीं...
बस यह बेफिक्री है, पानी का उदात्तपन या अपने होने की सीमाहीन गति.....
हेमंत के विलक्षण बिम्ब उसकी कविताओं का नैरन्तर्य धेर्य और प्रकृति के प्रति सहज प्रेम है.
प्रेम हेमंत की मूल प्रकृति हैं.
हेमंत सर को बधाई .. और आपका आभार
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय
जो पढ़ पाते है वे ही ऐसी कवितायें रच सकते है ...............बेहद पसंद आई....आप दोनों को दिल से धन्यवाद .....
शिरीष की ओर से अशोक को भी बधाई...