कुमार अनुपम की ताज़ा कवितायें
कुमार अनुपम की कवितायें आपने असुविधा पर पहले भी पढ़ी हैं. वह कुछ उन कवियों में से है जिनके यहाँ कविता एक रुटीन की तरह नहीं घटना की तरह घटित होती है. इसीलिए उनके यहाँ विमर्शों की आपाधापी नहीं बल्कि समकालीन विडम्बनाओं का गहरा मानवीय चित्रण होता है. यहाँ इन दो कविताओं में जल है...जल जो जीवन भी है, प्रलय भी...पानी भी और काला पानी भी. अधिक कहना कविता में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा तो मैं आपको इन दो कविताओं की संगत में अकेला छोड़ता हूँ...
सर जान एवर्ट मेलास की एक आयल पेंटिंग यहाँ से |
जल
एक तिहाई
पृथ्वी है
खेतों का
स्वेद
उसी की गन्ध से
साँस की
सुवास
उसी की आवाज़ से
रक्त में
पुकार
उसी की चमक से
रिश्तों
में प्रकाश
उसी के स्वाद से
नमक में
मिठास
उसी के स्पर्श से
है दुनिया सहलग।
काला पानी
कुछ ही देर
बाद
सिलवटें साफ़
करती उठ जाएगी रात
ख़ामोशी
पत्थर की तरह
तपते हुए टूट जाएगी
चिड़ियाँ
उठेंगी
और छोड़ देंगी
अपना नीड़
सपने
नींद की
प्रतीक्षा में
पुनः स्थगित
हो जाएँगे
अँधेरा फिर भी
नहीं हटेगा उन पुतलियों से
जिनमें बाढ़ का
पानी
ख़तरे के निशान
को डुबाता जा रहा है
एक हाथ उठेगा
कहीं से
और लुप्त हो
जाएगा एक चिराग बुत्त
वह हाथ किसका
है
जिसकी
उँगलियों में
पुरखों की
विघ्नहारी अंगूठियाँ
बहन कलपेगी
बप्पा हेराने
बचाते क्यों
नहीं
देखो डूब रहा है भाई
देखो डूब रहा है भाई
अम्मा को सम्हालो गई दादी की फूल बटुली भी गई
नन्हे तो बोल भी नहीं सकता
भाई फसल तो गई
भाई फसल तो गई
मेरी आवाज़
पानी से भर रही है
गरू है यह
काला पानी
इसी पानी से
नहाना जैसे नियति है हमारी
और सुबह काम
पर जाना है प्रफुल्लित मुख लिये
थकान की ख़ुराक
अभी कम है शायद
उस नींद के लिए
जिसमें सुन्दर
सुन्दर सपने रहते हैं।
टिप्पणियाँ
यहाँ तो एक कवि की गहन सम्वेदना का रचाव है
दुखों को जड़ करता 'काला पानी' -पुतलियों से न हटता अँधेरा' यहाँ सपने बार बार स्थगित होने के लिए अभिशप्त हैं
'अनुपम' का 'जल' है 'रिश्तों में प्रकाश को भरता ' एक तिहाई प्रथ्वी है खेतों का स्वाद' है ....वाह ... बधाई भाई
धन्यवाद!
~सादर!!!
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